सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तन में शिक्षा की भूमिका
शिक्षा की सामाजिक परिवर्तन में विशेष भूमिका है। इस सन्दर्भ में कुछ विचार नीचे दिए गए हैं—
गाँधीजी समाज में शान्तिपूर्ण क्रांति शिक्षा के माध्यम से लाना चाहते थे उनके अपने शब्दों में, “बेसिक स्कूल समाज में सामाजिक क्रांति का सूत्रधार बने। “
जॉन ड्यूबी (John Dewey) के कथनानुसार, “शिक्षा सामाजिक प्रगति एवं सुधार की बुनियादी विधि है।”
डॉ. राधाकृष्णन् के शब्दों में, “शिक्षा परिवर्तन का एक साधन है जो कार्य समाज में परिवार, धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक संस्थाओं द्वारा होता था वह आज शिक्षा संस्थाओं द्वारा किया जाता है।”
इलवुड (Ellwood) का कहना है, “शिक्षा ही मुख्य साधन है जिसकी ओर समाज सब प्रकार की प्रगति के लिए अभिमुख हो।”
शिक्षा आयोग (1964-66) के कथनानुसार, “यदि हिंसक क्रांति के बिना इस परिवर्तन (लोगों के ज्ञान, कौशल, रुचियों तथा मूल्य) को व्यापक स्तर पर प्राप्त करना है तो इसका केवल एक ही साधन है और वह है—’शिक्षा’।
रस्किन (Ruskin) के विचार में, “शिक्षा लोगों को शिष्ट बनाने की प्रक्रिया है।” शिक्षा नीति 1986 में शिक्षा के कार्य पर इस प्रकार प्रकाश डाला गया है, “शिक्षा वर्तमान तथा भविष्य के निर्माण का अनुपम साधन है।” शिक्षा को ही लोगों को सुसंस्कृत बनाने का माध्यम माना गया हैं।
सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तन में शिक्षा के कार्य (Functions of Educa tion in Social and Economic Change)
सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तन के क्षेत्र में शिक्षा के कार्य निम्नलिखित हैं-
1. सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तनों को अपनाने लोगों को तैयार करना- शिक्षा का यह एक महान् कार्य है कि वह सामाजिक परिवर्तनों को अपनाने के लिए जनता को तैयार करे। जब शिक्षित लोग आर्थिक परिवर्तनों को अपनायेंगे तो समाज भी उन्हें आसानी से स्वीकार कर लेंगे ।
2. परिवर्तन के विरोध को दूर करना- समाज में कुछ लोग, वर्ग या तत्व ऐसे भी होते हैं, जो सामाजिक परिवर्तन का विरोध करते हैं। कुछ ऐसे परम्परावादी होते हैं, जिनका काम ही विरोध करना होता है। शिक्षा ऐसे विरोधी लोगों में परिवर्तन के महत्त्व समझाती । यह अन्धविश्वास समाप्त करके विरोधियों को भी सहयोग व साथी बनाती है।
3. सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तन की समीक्षा (विश्लेषण) करना- परिवर्तनों के गुण-दोषों को देखने के बाद ही पता चलता है कि परिवर्तन उचित है या नहीं। यह विश्लेषण एवं समीक्षा शिक्षा ही कर सकती है।
4. नये परिवर्तनों का मूल – शिक्षा के कारण खोज एवं आविष्कारों को बल मिलता है। आविष्कार समाज में परिवर्तन लाते हैं। इन दोनों के बीच का सम्बन्ध क्रिया-प्रतिक्रिया जैसा है। शिक्षा ही परिवर्तनों का मूल है। वही समाज में नये सुधारों के लिए रास्ता खोजती है।
5. सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तनों में नेतृत्व करना- शिक्षित व्यक्तियों ने सदा से सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तनों का नेतृत्व किया है, जैसे- राजा राममोहन राय, महात्मा गाँधी, स्वामी दयानन्द आदि शिक्षा ही जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए नेतृत्व पैदा करती है।
6. सामाजिक तथा आर्थिक कुरीतियों को दूर करने में शिक्षा – शिक्षा एक सामाजिक तथा आर्थिक प्रक्रिया है। इसलिए शिक्षा का कार्य समाज में कुरीतियाँ दूर करना। भी है। भारत जैसे देश में जहाँ अनेक गन्दी परम्परायें एवं कुरीतियाँ हैं, वहाँ शिक्षा को उनमें परिवर्तन करना चाहिए, जैसे-दहेज प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह आदि क्षेत्रों में।
7. ज्ञान के क्षेत्र में विकास- शिक्षा का कार्य है, ज्ञान प्रदान करना। ज्ञान से ही खोज एवं आविष्कार होते हैं। खोज एवं आविष्कार से ही समाज आगे बढ़ता है।
8. राष्ट्रीय एकता एवं आर्थिक वृद्धि – शिक्षा ही आर्थिक विकास का मार्ग बनाती। है। वह सामाजिक कुशलता एवं आर्थिक कुशलता की भावना का विकास करती है। इससे समाज के परिवर्तन में योगदान मिलता है।
9. सामाजिक अनुकूलन में सहयोग- दुर्खीम के मतानुसार, “शिक्षा ही बच्चों को भाषा, धर्म, नैतिकता तथा सामाजिक प्रथाओं के माध्यम से सामान्य परम्परा का प्रसारण कर सम्पूर्ण समाज में जीवन व्यतीत करने योग्य बनाती है।”
वर्तमान स्कूलों के सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तन में प्रमुख कार्य (Main Functions of the Present day schools in Social and Economic Change)
वर्तमान स्कूलों के कार्यों का संक्षेप में विवरण इस प्रकार दिया जा सकता है-
1. सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार (According to the Needs of Society) — इसे समाज की आवश्यकताओं और समस्याओं पर आधारित होना चाहिए। समाज के सभी महत्त्वपूर्ण क्रिया-कलाप स्कूल के कार्यक्रम में प्रदर्शित होने चाहिए। स्कूल को बाह्य जीवन के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित होना चाहिए।
2. चयनात्मक वातावरण (Selective Environment)- स्कूल को चयनात्मक वातावरण प्रस्तुत करना चाहिए। बाहरी जीवन के वास्तविक महत्त्वपूर्ण एवं जटिल कार्यों को में सन्तुलित, शुद्ध एवं सरल रूप में स्कूल जीवन में प्रस्तुत करना चाहिए, भूतकाल के विसंगत एवं प्रचलित अनुभवों को त्याग देना चाहिए ।
3. लोकतंत्रीय मूल्यों का विकास (Development of Democratic Values)— स्कूल को अपने विभिन्न कार्यों द्वारा छात्रों को लोकतांत्रिक समाज के लिए तैयार करना चाहिए। उन्हें ‘सहयोग के साथ रहने की कला’ से अवगत कराना चाहिए और जाति, रंग व वर्ग-भेद से होने वाली बुराइयों से भी अवगत कराना चाहिए। प्रजातांत्रिक एवं धर्म-निरपेक्ष समाज के उत्तरदायी सदस्यों के कर्त्तव्यों एवं अधिकारों का भी विद्यार्थी को ज्ञान कराना चाहिए ।
4. उपयुक्त राष्ट्रीयता (Appropriate Nationality)- इसे उचित प्रकार की राष्ट्रीयता की भावना छात्रों में उत्पन्न करनी चाहिए।
5. छात्रों की विभिन्न रुचियों का विकास (Development of Children’s Interests)— इसे छात्रों की विभिन्न प्रकार की रुचियों और रुझानों की आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए
6. व्यावसायिक क्षमता का विकास (Development of Vocational Capacity)— इसे छात्रों की व्यावसायिक आवश्यकताओं की भी पूर्ति करनी चाहिए ।
7. क्रियाओं का केन्द्र (Hub of Activities) – स्कूल प्रयोगशाला, फार्म तथा पुस्तकालय आदि क्रिया-कलापों का केन्द्र बने ।
8. मानवीय मूल्यों का विकास (Development of Human Relations)- स्कूल स्वस्थ मानवीय सम्बन्ध पर बल दें।
9. सेवा केन्द्र (Community Centre)- स्कूल समुदाय सेवा का केन्द्र बनें ।
10. प्रौढ़ शिक्षा का प्रसार (Spread of Adult Education)- भारत में अधिकांश लोग गाँवों में रहते हैं। वे अशिक्षित भी हैं। अतः गाँव के स्कूलों पर विशेष उत्तरदायित्व हैं. कि वे यहाँ शिक्षा का प्रसार करें और गाँव के अन्धकार को दूर करें। ऐसा तभी हो सकत है, जबकि इन स्कूलों के पाठ्यक्रम में विशेष परिवर्तन हो।
11. ग्रामीणों में जागरूकता (Awareness in Villagers)- समय-समय पर स्कूलों के छात्रों तथा अध्यापकों को ग्रामीणों के पास जाकर उन्हें स्वास्थ्य के सामान्य सिद्धांतों का भी परिचय कराना चाहिए।
12. अध्यापक की भूमिका (Role of Teachers) – प्रौढ़ शिक्षा के प्रसार के लिए विद्यालय के अध्यापकां को पूरा प्रयत्न करना चाहिए। यह कार्य प्रदर्शनी, समाचार-पत्रों, नाटक और ग्राम्य पुस्तकालयों द्वारा किया जा सकता है।
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