मानव जीवन में शिक्षा के उद्देश्य- purposes of education in human life
मानव जीवन में शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं-
1. आवश्यकताओं की पूर्ति (Satisfaction of Needs)- अपने अस्तित्त्व को बनाये रखने के लिये तथा अपने व्यक्तित्त्व के विकास हेतु व्यक्ति के लिये यह आवश्यक है कि वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति सही ढंग से कर सके। जीवन में व्यक्ति की अनेक आवश्यकतायें हैं— जैसे कार्य की आवश्यकता, अवकाश की आवश्यकता, अवसर की आवश्यकता, संघर्ष की आवश्यकता, धर्म एवं जीवन-दर्शन की आवश्यकता तथा सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने की आवश्यकता आदि । इन विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने पर ही व्यक्ति अपने जीवन को सुखमय बना सकता है तथा वह समाज का एक योग्य सदस्य बन सकता है । स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, “शिक्षा का कार्य यह पता लगाना है कि समस्याओं को कैसे सुलझाया जाये, और इसी बात की ओर संसार के सभ्य समाज का ध्यान गम्भीरतापूर्वक पूर्णतया लगा हुआ है।”
2. वातावरण से अनुकूलन (Adaptation to Environment)- व्यक्ति अपने जीवन में तभी सफल सिद्ध हो सकता है जबकि वह अपने आपको प्राकृतिक वातावरण तथा साथ ही, सामाजिक वातावरण के अनुकूलन योग्य बना ले। शिक्षा का एक प्रमुख कार्य जीवन में व्यक्ति को इस योग्य बनाना है कि वह प्राकृतिक एवं सामाजिक वातावरण से अपना अनुकूलन कर सकें। थॉमसन के अनुसार, “वातावरण शिक्षक है, और शिक्षा का कार्य है छात्र को उस वातावरण के अनुकूल बनाना, जिससे कि वह जीवित रह सके और अपनी मूल प्रवृत्तियों को सन्तुष्ट करने के लिये अधिक-से-अधिक सम्भावित अवसर प्राप्त कर सकें।”
3. वातावरण में सुधार (Modification of Environment) – शिक्षा का मात्र यह कार्य नहीं है कि वह छात्र को वातावरण से अनुकूलन करना सिखाये, वरन् उसका यह कार्य भी है कि वह छात्र को इस योग्य बनाये कि वह वातावरण में पर्याप्त सुधार ला सके, सुधार लाने हेतु अथक प्रयास कर सकें। आज भारतीय समाज में आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, नैतिक, तथा भाषा आदि सभी क्षेत्रों में अत्यन्त दूषित वातावरण देखने को मिलता है। समाज की उन्नति हेतु आवश्यक है कि इस वातावरण में पर्याप्त सुधार किया जाये। वातावरण का रूप परिवर्तन कर उस पर अधिकार रखने की आवश्यकता पर बल देते हुए जॉन ड्यूवी का कथन है कि, ” वातावरण से पूर्ण अनुकूलन का अर्थ है, मृत्यु । आवश्यकता इस बात की है कि वातावरण पर नियन्त्रण रखा जाए ।”
4. आत्म-निर्भरता की प्राप्ति (Achievement of Self-sufficiency)– मानव जीवन में शिक्षा का एक प्रमुख कार्य व्यक्ति को आत्म निर्भर बनाना है। वास्तव में वही व्यक्ति अपने कार्यों को सफलतापूर्वक कर सकता है तथा समाज का भी हित कर सकता है जो अपना भार स्वयं अपने ऊपर लेता है। आज तो वैसे भी आधुनिक भारतीय समाज कठिन आर्थिक स्थिति के दौर से गुजर रहा है। अतः आज इस देश के प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह आत्म-निर्भर बने। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, “केवल पुस्तकीय ज्ञान से काम नहीं चलेगा। हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है जिससे कि व्यक्ति अपने स्वयं के पैरों पर खड़ा हो सकता हो।”
5. व्यावसायिक कुशलता की प्राप्ति (Achievement of Vocational Efficiency)- आज हमारा देश औद्योगीकरण की दिशा में तेजी से प्रगति कर रहा है। इसके लिये आवश्यक है हमारे अधिकांश छात्र वैज्ञानिक, इन्जीनियर व शिल्पी बनें । मानव-जीवन में शिक्षा का कार्य छात्रों को व्यावसायिक कुशलता की प्राप्ति में भी योग देना है। इससे एक ओर तो उत्पादन में वृद्धि होगी तथा दूसरी ओर बेरोजगारी मिटेगी। डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार, “प्रयोगात्मक विषयों में प्रशिक्षित व्यक्ति, कृषि और उद्योग के उत्पादन को बढ़ाने में सहायता देते हैं। ये विषय सरलतापूर्वक रोजगार पाने में भी सहायता देते हैं। छात्रों को जीविका उपार्जन करने में सहयोग देना, शिक्षा का एक महति कार्य है”।
6. भौतिक सम्पन्नता की प्राप्ति (Achievement of Material Prosperity)- आधुनिक युग विशेष रूप से भौतिकवादी युग है। व्यक्ति अगर भौतिक दृष्टि से सम्पन्न नहीं होगा तो समाज में उसका मान नहीं होगा । शिक्षित होने के बाद भी यदि व्यक्ति इस दिशा में कोई प्रगति नहीं कर पायेगा, तो ऐसी शिक्षा व्यर्थ ही समझी जायेगी। अतः मानव जीवन में शिक्षा का एक प्रमुख कार्य यह है कि वह व्यक्तियों को भौतिक सम्पन्नता की प्राप्ति में सहायता दे । शिक्षा के इस कार्य के सन्दर्भ में जॉन रस्किन ने लिखा है, “माता-पिता कहते हैं कि शिक्षा का मुख्य कार्य उनके बच्चों को जीवन में अच्छे स्थान प्राप्त करने, बड़े और धनी व्यक्तियों के समाज में महत्त्वपूर्ण बनने और आराम तथा ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करने के लिये तैयार करना है। “
7. कार्य का व्यावहारिक ज्ञान (Practical Knowledge of Work)— शिक्षा का एक आवश्यक कार्य यह है कि वह छात्रों को सैद्धान्तिक ज्ञान देने के साथ-साथ जीवन के विभिन्न कार्य-क्षेत्रों के विषय में ज्ञान प्रदान करे। सभी प्रगतिशील देशों में शिक्षा के इस कार्य पर बल दिया जाता है। हमारे देश में बालक को शिक्षा प्रदान करने के अन्तर्गत सिद्धान्त पर आवश्यकता से अधिक बल दिया जाता है, इसका परिणाम यह होता है कि उसे जीवन के किसी भी कार्य क्षेत्र का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, “तुमको कार्य क्षेत्रों का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। सिद्धान्तों के ढेरों से देश का नाश हो गया है।”
8. श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण (Creation of Good Citizens)- शिक्षा का एक ‘आवश्यक कार्य है— श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण । श्रेष्ठ नागरिक ही प्रजातान्त्रिक व्यवस्था को सफल बना सकते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि शिक्षा छात्रों में देश-प्रेम, अनुशासन, सहयोग, सहनशीलता, स्पष्ट विचार आदि गुणों का विकास करे। डॉ० राधाकृष्णन के अनुसार, “कल्याणकारी राज्य में हमारा उद्देश्य- अपने सभी नागरिकों को भोजन, वस्त्र और मकान की प्रारम्भिक आवश्यकताओं को पूरा करना ही नहीं होना चाहिये, वरन् उनको भाइयों के समान रहना सिखाना चाहिये-भले ही वे विभिन्न प्रजातियों, धर्मों और प्रान्तों के क्यों न हों। “
9. व्यक्तित्त्व का विकास (Development of Personality)- शिक्षा के आधार पर ही बालक अच्छी बातें सीखता है तथा बुरी बातों का परित्याग करता है। शिक्षा ही बालक का उचित दिशा में विकास करती है तथा उसके जीवन को सुखी एवं सफल बनाती है इसलिये व्यक्तित्त्व का विकास शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण कार्य माना जाता है। फ्रेडरिक ट्रेसी के शब्दों में, “समस्त शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य व्यक्तित्व के आदर्श की पूर्ण प्राप्ति है। यह आदर्श-सन्तुलित व्यक्तित्त्व है।”
10. चरित्र का विकास (Development of Character)- आज सभी जगह मूल्यहीनता का बोलबाला हो गया है। भ्रष्टाचार दैनिक जीवन का अंग बन गया है। झूठ बोलना, धोखा देना, रिश्वत लेना, गलत कार्य करना आज जैसे प्रतिष्ठा के सूचक बन गये हैं । इन सबसे मानव को अस्थाई सफलता भले ही मिल जाये लेकिन उसे स्थाई सुख, शान्ति और सन्तोष प्राप्त नहीं हो सकता । अतः यह परमावश्यक है कि शिक्षा मूल्यहीनता की स्थिति को दूर करे और छात्रों में नैतिकता का समावेश करे। हरबर्ट के शब्दों में, “शिक्षा का कार्य उत्तम नैतिक चरित्र का विकास करना है।”
11. जीवन के लिये तैयारी (Preparation for Life) — वास्तव में शिक्षा का एक प्रमुख कार्य छात्रों को भावी जीवन के लिये उपयुक्त प्रशिक्षण देना है। जीवन में आगे चलकर उन्हें अनेक कठिनाइयों व समस्याओं का मुकाबला करना होगा, जीवन में अनेक संघर्ष करने होंगे तथा चुनौतियों का सामना करना होगा। शिक्षा का कार्य छात्रों को इस योग्य बनाना है कि वे इसमें सफल हो सकें। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, “क्या वह शिक्षा-शिक्षा कहलाने के योग्य है जो सामान्य जनसमूह को जीवन के संघर्ष के लिये अपने आपको तैयार करने में सहायता नहीं देती है और उनमें शेर का सा साहस उत्पन्न नहीं करती है ?”
12. अनुभवों का पुनर्गठन (Re-organisation of Experiences)– व्यक्ति अपने जीवन में पग-पग पर अनेक अनुभव प्राप्त करता है। शिक्षा का एक प्रमुख कार्य इन अनुभवों का पुनर्गठन करना है जिससे व्यक्ति अपनी भावी प्रगति के लिये अतीत की उपयोगी बातों को अपना सके तथा अपने अतीत में हुई असफलता के कारणों को पहचान सके । ड्यूवी के अनुसार, “शिक्षा का प्रमुख कार्य है- प्रत्येक पग पर अपने अनुभवों द्वारा जीवन को समृद्ध बनाना ।”
इस प्रकार स्पष्ट है कि मानव जीवन में शिक्षा का कार्य मनुष्यों की शक्तियों, क्षमताओं और गुणों का पूर्ण विकास करना है जिनसे वे अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकें। एमर्सन के शब्दों में, “शिक्षा इतनी विशुद्ध होनी चाहिए, जितना कि मनुष्य उसमें जो भी शक्तियाँ हैं शिक्षा को उन्हें पोषित और प्रदर्शित करनी चाहिये।”
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