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राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा के उद्देश्य | Purposes of Education in National Life in Hindi

राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा के उद्देश्य
राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा के उद्देश्य

राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा के उद्देश्य- Purposes of Education in National Life

नागरिक किसी भी राष्ट्र के प्राण होते हैं। नागरिक यदि श्रेष्ठ चरित्र वाले होंगे राष्ट्र भी निरन्तर उन्नति करता रहेगा। मैकाइवर के शब्दों में, “राष्ट्र का गुण उसकी सामाजिक इकाईयों का गुण है अर्थात् सामाजिक इकाईयों का सामूहिक जीवन है। यदि ईंधन ही खराब है, तो ज्योति कैसे तेज हो सकती है— अर्थात् यदि सामाजिक इकाईयाँ निर्बल हैं, तो राष्ट्र कैसे दैदीप्यमान हो सकता है।”

स्पष्ट है कि किसी राज्य की उन्नति तभी सम्भव है, जब उसके नागरिक श्रेष्ठ हों, कर्त्तव्यनिष्ठ हों, विवेकशील हों। इन्हीं भावों के सन्दर्भ में राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा के कार्यों की विवेचना इस प्रकार की जा सकती है-

1. नेतृत्व के लिये प्रशिक्षण (Training for Leadership)- भारत एक लोकतान्त्रिक देश है अर्थात् देश के शासन तन्त्र में जनता की सहभागिता है। लोकतन्त्र तभी सफल हो सकता है जब सामाजिक, राजनीतिक, औद्योगिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों का नेतृत्व योग्य लोगों के हाथों में हो । अतः शिक्षा का कार्य छात्रों को नेतृत्व सम्बन्धी ऐसा कुशल प्रशिक्षण प्रदान करना है जिससे वे अध्ययन समाप्त करने के पश्चात् देश के विभिन्न क्षेत्रों में योग्य नेतृत्व व निर्देशन दे सकें, उपयुक्त नीतियों का निर्माण कर सकें, और उन्हें लागू करवा सकें। किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है कि-“विशेष रूप से इस समय जब देश में लोकतन्त्र, जीवन का ढंग हो गया है, अच्छे नेतृत्व की आवश्यकता है। सच्चे नेतृत्व के लिये सेवा की भावना के साथ-साथ अच्छे प्रशिक्षण की आवश्यकता है।”

2. राष्ट्रीय विकास (National Development)- भारत की उन्नति तभी होगी जब उसका पूर्ण राष्ट्रीय विकास होगा। शिक्षा राष्ट्रीय विकास का महत्त्वपूर्ण आधार है। शिक्षा का कार्य देश के प्रत्येक नागरिक को एक निश्चित स्तर तक शिक्षित करना है जिससे वह मतदान के द्वारा एक सुयोग्य सरकार के निर्वाचन में सहायक हो सके। यदि सरकार में निःस्वार्थी, प्रेरक और आदर्श व्यक्ति होंगे तो वह निश्चित रूप से राष्ट्रीय विकास के लिये अनथक प्रयास करेगी। स्व० पं० कमलापति त्रिपाठी के शब्दों में, “हमने अपने देश में धर्म-निरपेक्ष कल्याणकारी लोकतन्त्र की स्थापना की है। हमें उसे सुदृढ़ एवं शक्तिशाली बनाना है, किन्तु यह सब तब तक सम्भव नहीं हो सकता है, जब तक कि उसकी आधारशिला ही सुदृढ़ एवं शक्तिशाली न हो और यह आधारशिला है इस देश की वह समस्त जनता जिसके ऊपर आज राज्य सरकारों का सुयोग्य निर्वाचन निर्भर है तथा समूचे राष्ट्र के मंगलमय स्वरूप का निर्धारण अवलम्बित हैं। इस उद्देश्य के लिये आवश्यक है—उस दिशा की ओर अग्रसर करने वाली जन-जन की उपयुक्त शिक्षा एवं उपयुक्त साहित्य ।”

3. राष्ट्रीय एकता (National Unity)— देश का आन्तरिक विकास और उसकी बाह्य सुरक्षा हमारी राष्ट्रीय एकता पर निर्भर है किन्तु आज हमारा सम्पूर्ण राष्ट्र भाषावाद, प्रांतवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद आदि के कारण एक घोर संकट के जाल में उलझ गया है। हर जगह ‘अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग’ दृष्टिगोचर होता है। इन सब बातों ने हमारा दृष्टिकोण संकुचित बना दिया है, हम अत्यधिक स्वार्थी एवं व्यक्तिवादी हो गये हैं । इन बुराइयों को दूर करने के लिये हमें शिक्षा का आश्रय ही ढूँढ़ना पड़ेगा क्योंकि शिक्षा ही इन दोषों को दूर करके हम सब को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में आबद्ध कर सकती है। स्व० पं० नेहरू के मतानुसार, “राष्ट्रीय एकता के प्रश्न में जीवन की प्रत्येक वस्तु आ जाती है । शिक्षा का स्थान इन सबसे ऊपर है और यही आधार है।”

4. भावात्मक एकता (Emotional Integration)— हमारे देश में जाति, भाषा, परम्परा, धर्म, रहन-सहन आदि की विशेषताएँ पायी जाती हैं लेकिन प्रायः लोग संकीर्ण दृष्टिकोण के कारण दूसरे की तुलना में केवल अपनी भाषा, धर्म व रीति-रिवाज आदि को श्रेष्ठ समझते हैं। लेकिन इन सबसे ऊपर हमारी राष्ट्रीय संस्कृति भी है जो हमें एकता के सूत्र में बाँधती है। राष्ट्रीय विरासत का यही आदर्श सम्पूर्ण राष्ट्र में भावात्मक एकता को विकसित करने में सहायता देता है। शिक्षा का महति कार्य राष्ट्रीय जीवन में भावात्मक एकता को विकसित करना है। भावात्मक एकता के सन्दर्भ में एक बार पं० नेहरू ने अपने एक भाषण में कहा था, “जहाँ कहीं भी मैं जाता हूँ, वहीं मैं भारत की एकता पर बल देता हूँ, न केवल राजनीतिक एकता पर, वरन् भावनात्मक एकता पर अपने मनों और हृदयों की एकता पर तथा पृथकता की भावनाओं के दमन पर । “

5. राष्ट्रीय अनुशासन (National Discipline)- अंग्रेजों से अपने देश को स्वतन्त्र कराना हमारे लिये गौरव का विषय रहा है किन्तु उससे अधिक कष्टसाध्य कार्य है— इस स्वतन्त्रता को बनाये रखना। आज, हम देखते हैं कि देश में अपने अधिकारों की आपा-धापी में हड़तालों, घेराव, तालाबन्दी, तोड़-फोड़, हिंसात्मक प्रदर्शनों आदि की भरमार है। यह एक प्रकार से राष्ट्रीय अनुशासन का अभाव है। इससे राष्ट्रीय एकता में भी बाधा पड़ती है। अतः आज शिक्षा का कार्य छात्रों को राष्ट्रीय अनुशासन का पाठ पढ़ाना है जिससे वे बड़े होकर राष्ट्रीय एकता को स्थिर रख सकें।

डॉ० राधाकृष्णन के अनुसार, “राष्ट्रीय एकता और मेल का आधार है— राष्ट्रीय अनुशासन ।”

यही बात माध्यमिक शिक्षा आयोग ने भी कही है” जनतन्त्र तब तक सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर सकता जब तक सभी आदमी, केवल एक विशेष वर्ग के ही नहीं, अपने-अपने उत्तरदायित्व को निभाने के लिये प्रशिक्षित नहीं किये जाते और इसके लिये अनुशासन में प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।”

6. नैतिकता का प्रशिक्षण (Trainingof Morality) — चार्ल्स ब्रुक्स (Charles Brooks) के अनुसार, ” नैतिकता में वे सभी गुण आ जाते हैं जो मनुष्यों के आचरण को नियमित करते हैं । इन गुणों से युक्त व्यक्ति राष्ट्र की बहुमूल्य सम्पत्ति बन जाता है ।” अतः शिक्षा का एक प्रमुख कार्य लोगों को नैतिक रूप से प्रशिक्षित करना है। बीचर के शब्दों में, ” प्रत्येक युवक को यह याद रखना चाहिये कि सभी सफल कार्यों का आधार नैतिकता है।” व्यक्तित्व सम्बन्धी अनेक गुणों में नैतिकता का गुण सर्वोपरि माना जाता है।

7. कुशल श्रमिकों की पूर्ति (Supply of Skilled Workers)- राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का एक प्रमुख कार्य कुशल श्रमिकों की पूर्ति करना है। कुशल श्रमिकों के माध्यम से ही हम उत्पादन में वृद्धि कर सकते हैं। उत्पादन में वृद्धि के फलस्वरूप राष्ट्रीय सम्पत्ति में भी बढ़ोत्तरी होगी। हुमायूँ कबीर (Humayun Kabir) के शब्दों में, “शिक्षित श्रमिक अधिक उत्पादन में योग देंगे और इस प्रकार उद्योग तथा व्यवसाय दोनों की अधिक उन्नति होगी।”

8. नागरिक व सामाजिक कर्त्तव्यों की भावना का समावेश (Inculcation of Civic and Social Duties)- हमारा देश एक धर्म निरपेक्ष गणतन्त्र है। वर्तमान परिस्थितियों में शिक्षा का एक प्रमुख कार्य यह है कि वह लोगों को इस प्रकार का प्रशिक्षण दें, जिससे वे नागरिक के रूप में अपने राष्ट्र की निःस्वार्थ भाव से सेवा कर सकें तथा समाज के सदस्य के रूप में अपने सभी सामाजिक कर्त्तव्यों का निर्वाह कर सकें।

डॉ० जाकिर हुसैन के अनुसार, “प्रजातन्त्रीय समाज में यह आवश्यक है कि व्यक्ति नैतिक और भौतिक- दोनों प्रकार से समाज के जीवन को उत्तम बनाने के सम्मिलित उत्तरदायित्वों को सहर्ष स्वीकार करें ।”

9. सामाजिक कुशलता की उन्नति (Promotion of Social Efficiency)— अमरीका के प्रोफेसर बागले के अनुसार सामाजिक दृष्टि से कुशल व्यक्ति वह है जो राज्य पर भार स्वरूप प्रतीत न हो, दूसरों के कार्य में हस्तक्षेप न करे तथा जो समाज की उन्नति में यथाशक्ति योग देता रहे। इस प्रकार शिक्षा का यह कार्य है कि वह छात्रों को उन उद्योगों एवं व्यवसायों में कुशल बनाये जो न केवल उनके लिये वरन् समाज के लिये भी उपयोगी सिद्ध हों। सामाजिक कुशलता में ही व्यक्तिगत कुशलता निहित होती है।

10. राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता (Priority to National Interest)— आज की भौतिकता की चकाचौंध तथा पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में व्यक्ति अत्यधिक स्वार्थी बनता जा रहा है। उसके प्रायः सभी कार्य अपनी भलाई, अपने स्वार्थों को पूरे करने के निमित्त होते हैं, चाहे उनके कारण राष्ट्र व समाज रसातल में चले जायें। शिक्षा द्वारा इस मनोवृत्ति को बदलना चाहिये। शिक्षा का एक प्रमुख कार्य लोगों को ऐसी प्रेरणा प्रदान करना है जिससे वे राष्ट्रीय जीवन में राष्ट्रीय हितों को प्रमुखता दें । डॉ० राधाकृष्णन ने ठीक ही लिखा है, ” एशिया में प्रजातन्त्र की सफलता हमारी अनुशासन में रहने की इच्छा और व्यक्तिगत बलिदान पर आधारित है। यदि भारत, संयुक्त और लोकतन्त्रीय बना रहना चाहता है, तो शिक्षा को लोगों की एकता के लिये, न कि प्रादेशिकता के लिये, न कि तानाशाही के लिये प्रशिक्षित करना चाहिये।”

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