सल्तनत कालीन समाज तथा सूफी एवं भक्ति आन्दोलन
सल्तनतकाल के प्रारम्भिक समय में सामाजिक एवं सांस्कृतिक विचारों, रिवाजों एवं विश्वासों में भिन्नता होने समाज में संघर्ष एवं टकराव की स्थिति पैदा होने लगी। तुर्कों के आगमन ने उत्तर भारत में पर्दा प्रथा का चलन किया। मुस्लिम समाज नस्ल, जाति और वर्गों में बँटा रहा। तुर्की, ईरानी, अफगानी और भारतीय मुसलमानों ने अपने-अपने अस्तित्व को बचाने के लिये जातिगत पाबन्दियों का सहारा लिया। उनका एक-दूसरे से कोई सम्बन्ध तथा मेलजोल नहीं था। बाह्य आडम्बर एवं धन-सम्पत्ति का कुरूप प्रदर्शन समाज की विशेषता बन गया, जिससे जीवन के नैतिक मूल्यों का ह्रास होने लगा। धीरे-धीरे लोग बनावटी जीवन से थकने लगे। इसी समय सूफी सन्तों और भक्तों का पदार्पण हुआ। उन्होंने समाज में आपसी समझ पैदा करने का प्रयास किया और सादा जीवन उच्च विचार पर बल दिया।
भक्ति आन्दोलन तथा सूफी सन्त- तुर्क और अफगान अपने साथ जो धार्मिक विचार और संस्कृति लाये उसका भारतीय समाज एवं उनकी विचारधारा पर प्रभाव पड़ा। जाति प्रथा की कठोरता, ऊँच-नीच का भेदभाव तथा बाहरी आडम्बर के कारण भारतीय समाज में कुछ दोष आ गये। अतः सामाजिक कुरीतियों को दूर करने और समाज को सुसंगठित करने के लिये कुछ समाज सुधारकों ने जनता में परस्पर प्रेम तथा सद्भाव को बढ़ाने का प्रयास किया। इन्होंने ध् शार्मिक कर्मकाण्डों की अपेक्षा भक्तिभाव से ईश्वर की उपासना करने को श्रेष्ठ बताया। इस प्रकार धार्मिक सहिष्णुता की भावना को बल मिला। सन्तों एवं समाज सुधारकों द्वारा चलाया गया इस प्रकार का आन्दोलन भक्ति आन्दोलन नाम से प्रसिद्ध हुआ। इन भक्त सन्तों में कबीर, चैतन्य महाप्रभु, गुरु नानक, दादू, रैदास, तुकाराम, रामानन्द एवं बल्लभाचार्य आदि प्रसिद्ध हैं। इन्हीं भक्त सन्तों की तरह अनेक मुसलमान सन्त भी थे जो सूफी-सन्त कहलाते थे। दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन औलिया, पंजाब के बाबा फरीद, अजमेर के ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती बहुत जाने माने सन्त हुए थे। सूफियों ने इस बात पर बल दिया कि सच्चे दिल से अल्लाह को प्रेम करना और अपने बुरे कामों पर पश्चाताप करना, अल्लाह को पाने का सही तरीका है। धन, दौलत एवं पद सभी त्यागकर गरीबों और लाचारों की सेवा करना ही धर्म है। वे कट्टर रस्मों के खिलाफ थे। सूफियों के डेरे पर कव्वाली गाने की प्रथा थी जिसे सुनकर लोग झूमने लगते थे। ये सन्त सुल्तानों से अपने आपको दूर ही रखते थे, इनमें से अनेक सन्त कहने लगे कि हिन्दू और मुसलमान दोनों का ईश्वर एक है। ईश्वर को पाने का मार्ग एक समान है।
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