दास या गुलाम वंश के प्रमुख शासक
दास या गुलाम वंश के प्रमुख शासक निम्नलिखित थे –
1. इल्तुतमिश (1210-1236 ई.)
दास वंश के शासकों में सबसे योग्य शासक इल्तुतमिश हुआ। वह इल्वारी तुर्क था। खोखरों के विरुद्ध युद्ध में अपार साहस दिखाने के कारण और मोहम्मद गौरी के कहने पर कुतुबुद्दीन ने उसको दासता से मुक्त कर दिया था। इल्तुतमिश सन् 1211 में आरामशाह को हटाकर दिल्ली का सुल्तान बना। गद्दी पर बैठने के बाद इल्तुतमिश के सामने अनेक कठिनाइयाँ थीं। मंगोलों एवं बाहरी आक्रमणकारियों के कारण पश्चिमोत्तर सीमाएँ सुरक्षित नहीं थीं। गजनी के यन्दौज तथा सिन्ध एवं मुल्तान के कुबाचा एवं सल्तनत के सूबेदार एवं सरदार उसके विरोधी थे। उसने विद्रोही सरदारों और सूबेदारों की शक्ति को समाप्त कर तुर्कों का एक संगठन तैयार किया। अपनी दूरदर्शिता तथा कूटनीति द्वारा मंगोल नेता चंगेज खाँ के आक्रमण से दिल्ली को बचा लिया था। राजपूतों की बढ़ती हुई शक्ति को सीमित करने के लिये उसने रणथम्भौर, मन्दौर, नागोद, सांभर, नयाना, जालौर एवं ग्वालियर पर आक्रमण किये तथा सन् 1232 में ग्वालियर के दुर्ग को जीत लिया। इल्तुतमिश ने सन् 1234 में मालवा के राज्य भेलसा एवं उज्जैन पर आक्रमण कर उसे जीता। सन् 1236 में उसकी मृत्यु हो गयी।
2. रजिया सुल्तान (1236 ई. से 1240 ई. तक)
इल्तुतमिश के पुत्र अयोग्य थे इस कारण उसने अपनी योग्य पुत्री रजिया को उत्तराधिकारी बनाया। रजिया दरबार में बैठती एवं युद्धों का नेतृत्व करती थी। पुत्रों के होते हुए भी पुत्री को सिंहासन का उत्तराधिकारी बनाना मध्यकालीन इतिहास में एक नया कदम था। पूरे मध्यकाल के इतिहास में रजिया दिल्ली की प्रथम मुस्लिम महिला सुल्तान थी। अमीर तुर्की सरदार महिला सुल्तान को बर्दाश्त नहीं कर सके और उसके विरुद्ध षड़यन्त्र और विद्रोह करने लगे, जिसमें सबसे सशक्त विद्रोह भटिण्डा के अलतूनिया का था जिसे दबाने के लिये रजिया ने लाहौर पर चढ़ाई कर दी। युद्ध में उसका सेनापति याकूत मारा गया एवं रजिया की हत्या कर दी गयी। रजिया के बाद बहरम शाह, अलाउद्दीन मसूद शाह तथा नासिरुद्दीन महमूद नाममात्र के दिल्ली के सुल्तान बने जबकि वास्तविक सत्ता अमीर सरदारों के हाथ में रही।
3. गयासुद्दीन बलबन (1265 से 1287 ई.)
बलबन को सुल्तान इल्तुतमिश ने खरीदा था। बलबन ने अपनी योग्यता और सेवाओं से अपने स्वामी को प्रभावित किया था इसलिये उसे शीघ्र ही चालीस अमीरों के दल का सदस्य बना दिया गया। बलबन ने अपने स्वामी इल्तुतमिश और उसके उत्तराधिकारी की पूर्ण भक्ति के साथ सेवा की। सन् 1266 में नासिरुद्दीन महमूद के बाद वह गद्दी पर बैठा । बलबन ने शासन संचालन के लिये ‘लौह और रक्त’ की नीति का अनुसरण किया। अपने विरोधियों को समाप्त करने में उसे तनिक भी संकोच नहीं होता था। उसने निरंकुश राजतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था का गठन किया। वह सुल्तान के दैवी अधिकारों में विश्वास करता था तथा सुल्तान के पद को श्रेष्ठ और गौरवमय मानता था । आज्ञाओं और आदेशों का पूर्ण रूप से पालन न करने वालों को वह कठोर दण्ड देता था, उसने राज्य की सुरक्षा के लिये सेना का पुनर्गठन किया तथा एक शक्तिशाली गुप्तचर व्यवस्था की स्थापना की।
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