मानवीय मूल्यों के विकास में परिवार की भूमिका
मानवीय मूल्यों के विकास में परिवार की भूमिका को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) प्रत्येक व्यक्ति अपने मूल्यों का निर्माण स्वयं करता है। वह अपने निर्णय स्वयं करता है। माता-पिता बच्चों को परम्परागत मूल्यों के प्रति आस्थावान बना सकते है, परन्तु ऐसा करते समय उन्हें अन्य प्रयत्नों को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिये।
(2) माता को बच्चों को यह सत्य बताना चाहिये कि उन्हें समकालीन परिस्थितियों में परम्परागत मूल्यों की व्यावहारिकता पर निरन्तर विचार करना चाहिये तथा पुरातन मूल्यों को स्वयं के लिये पुनः सृजित करना चाहिये ।
(3) माता-पिता बच्चों पर मूल्य थोप नहीं सकते हैं। उन्हें बच्चों को स्वयं अच्छे लगने वाले मूल्यों के अनुरुप आचरण करने का उपदेश नहीं देना चाहिये।
(4) माता-पिता को बच्चों को उन मूल्यों पर आधारित आचरण करने के लिये विवश नहीं करना चाहिये जिनमें उनकी अपनी आस्था न हो और जिनके अनुरूप वे आचरण न करते हो। स्पष्ट है कि माता-पिता की कथनी व करनी में अन्तर नहीं होना चाहिये।
(5) परिवार के सदस्यों को विद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा का उपहास नहीं करना चाहिये। मूल्यों में आस्था रखने वाले शिक्षकों एवं अन्य व्यक्तियों पर व्यंग्य नहीं करने चाहिये तथा मूल्यों की महत्ता का विरोध नहीं करना चाहिये।
(6) बच्चों में ऐसा भाव उत्पन्न करना चाहिये कि वे मूल्य विश्लेषण, स्पष्टीकरण, चिन्तन एवं चर्चा आदि में सक्रिय भाग लेकर अपने मूल्यों को स्वयं रूप प्रदान कर सके।
(7) जन संचार माध्यमों द्वारा प्रसारित पर्यावरण शिक्षा प्रसारणों, बालकों के लिये उपयोगी कार्यक्रमों, फिल्मों, नाटकों, कवि सम्मेलनों, समाचारों, सीरियलों आदि के मूल्य संकट दर्शाने वाले तथा मूल्य अभिमुख व्यवहारों पर परिवार के सदस्य परस्पर चर्चा कर सकते है तथा समस्याओं, उनके समाधानों व समाधानों में से प्रत्येक के परिणामों आदि पर विचार कर सकते हैं।
(8) कुछ विद्यालयों में कुशिक्षा देने का दुराग्रह दृढ़तापूर्वक फैल रहा है। इसके प्रति बच्चों में चेतना विकसित की जा सकती है।
(9) आजकल वृद्धों व बच्चों के बीच पीढ़ी का अन्तराल बढ़ता जा रहा है। किशोर स्वच्छन्द एवं उग्र होते जा रहे हैं। वृद्ध शिथिल होते जा रहे है। इस अन्तराल-जन्य खाई को कम करने हेतु माता-पिता को प्रयत्न करना चाहिये।
(10) अपने निर्णयों के लिये स्वयं को उत्तरदायी मानने की प्रवृत्ति विकसित करने हेतु माता-पिता को बच्चों को स्वतन्त्रतापूर्वक निर्णय लेने एवं अपने निर्णय के परिणामों का सामना करने हेतु अवसर देने चाहिये।
(11) आज जब बालक यह देखता है कि मूल्य विमुख व्यवहार एवं भ्रष्ट व्यक्ति अधिक सुखी एवं सुविधा सम्पन्न है तब उसे मूल्यों से विरक्ति हो जाती है । हताश बच्चों को ऐसे समय में भी अपने मूल्यों के प्रति आस्थावान रहने के लिये प्रेरित करना चाहिये।
(12) बच्चे वातावरण से अच्छी बातें उतनी जल्दी नहीं सीखते जितनी जल्दी वे गन्दी बातें सीखते हैं। अतः माता-पिता को बच्चों को कुसंगति से बचाने हेतु सदैव सावधान रहना चाहिये।
(13) माता-पिता बच्चों को मूल्य आधारित कहानियाँ पढ़ने एवं सुनने का अवसर देकर उनमें मूल्य विकसित कर सकते हैं।
(14) माता-पिता बच्चों को अपने दैनिक व्यवहारों में व्यक्त मूल्य लिखने, स्वयं द्वारा अनुभव किये गए मूल्य संकट लिखने, मूल्य द्वन्दो को सुलझाने के लिये, लिये गये निर्णय व उनके औचित्य लिखने, दूसरों के अनुचित व्यवहार व उन्हें अनुचित मानने के कारण लिखने, अपने जीवन के लिये निर्देशक नियम लिखने आदि हेतु डायरी तैयारी करने में सहायता एवं सहयोग दे सकते है। इससे बच्चों में आत्म विश्लेषण की आदत विकसित हो जायेगी।
(15) बच्चे विविध कारणों से अनेक बार मूल्यों से विरोधी व्यवहार प्रदर्शित कर सकते है। ऐसे अवसरों पर माता-पिता को शारीरिक दण्ड, विशेषाधिकार वंचन, सामाजिक पार्थप्य, अस्वीकरण अनदेखी तथा ऋणात्मक प्रबलन प्रदान करने आदि व्यवहारों की अपेक्षा विचार-विमर्श को प्रमुखता देनी चाहिये।
(16) मूल्य आधारित व्यवहारों के प्रदर्शन के लिये बच्चों को उपयुक्त पुरस्कार मिलना चाहिये।
(17) माता-पिता को आस-पास के समाज के अन्य सदस्यों से सहायता द्वारा सुधार करने हेतु प्रयत्न करने चाहिये ताकि बच्चों के मूल्य अन्तर्द्वन्द्वों को बढ़ावा न मिले।
(18) माता-पिता को मूर्त नैतिक परिस्थितियों में मूल्य द्वन्द की अनदेखी नहीं करनी चाहिये।
(19) परम्परागत मूल्यों की व्यवहारिकता के बारे में बता सकते है।
(20) बच्चों को अच्छे लगने वाले मूल्यों के अनुसार आचरण करते समय किसी प्रकार हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये ।
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