जल संचयन एवं संरक्षण
वर्तमान समय में जल स्रोत और प्रदूषणग्रस्त होते जा रहे हैं। जल स्रोतों की अवस्थितियों को देखकर जल की कमी का विकट आभास संसार को होने लगा है, इसी कारण अब जल संरक्षण करके इस समस्या से संघर्ष करने का आह्वान अत्यन्त आतुरता से किया जा रहा है तथा सरकारी और गैर-सरकारीवादी चेतना की झंकार बहुत उग्र हो गयी है। एक तरह से कहा जा सकता है कि चूँकि जल मानव जीवन के प्रत्येक व्यावहारिक कार्य की अनिवार्य आवश्यकता है, इसलिए जल प्रबन्धन कार्य अनिवार्यतः महत्वपूर्ण रूप में उसके हर क्षेत्र और अंग से जुड़ा हुआ है । स्वाभाविक है कि यह सभी प्रशासनिक और सामाजिक व्यवस्थाओं में प्रमुख है। वर्तमान औद्योगिक और वैश्विक पर्यावरण के सन्दर्भ में विश्व की प्रत्येक शासन व्यवस्था ने इसे पहचान भी लिया है। इसी कारण मानव जीवन के लिये अनिवार्य रूप से जल की अपेक्षित परिमाण में आवश्यकता को पहचान कर ‘जल संरक्षण’ और ‘जल संचयन’ जैसे उपायों को भी जलाभाव से मुक्त होने के लिए सम्मिलित किया गया है—जब यह दोनों ही कार्य, एक कल्पनात्मक व्यावहारिकता के रूप में स्वीकार किये जा सकते हैं। व्यस्त सामाजिक, व्यावहारिक जीवन में सामान्य मनुष्य का इन कार्यों में निरन्तरित योगदान पूर्णत: असम्भव है। यह कार्य मानव-समुदायों में सम्मिलित वर्ग विशेष के ही लोग कर सकते हैं।
सावधानीपूर्वक जल का उपयोग तथा मितव्ययिता ही जल प्रबन्धन कहलाता है। जल प्रबन्धन के लिये पानी का अपव्यय जहाँ तक सम्भव हो कम करना चाहिये। बहुत-से क्षेत्रों में सिंचाई तथा घरों के लिये पानी बहुत मात्रा में कुओं से खींचा जाता है। यदि वर्षा कम हो तो कुओं में पानी की सतह नीचे चली जाती है तब पानी का संकट गहराता है एवं पानी की कमी हो जाती है। वर्षा होने में वनों का महत्त्वपूर्ण योगदान है, इसलिये वनों को नष्ट नहीं करना चाहिये तथा अधिक मात्रा में वृक्ष लगाने चाहिये। वृक्षों के कारण पानी की सतह सूखती नहीं है तथा पानी सुरक्षित रहता है।
भूमि के अन्दर अथवा ऊपर टैंक तथा छोटे बाँधों का निर्माण करके उनमें वर्षा का पानी एकत्रित करके पानी की कमी को दूर किया जा सकता है।
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