डॉ. राधाकृष्णन् के विचार- हिन्दू धर्म, राजनीति, विज्ञान, स्वतन्त्रता एवं विश्वशान्ति के सन्दर्भ में |
उपरोक्त सभी सन्दर्भों में डॉ. राधाकृष्णन् के विचार निम्नलिखित प्रकार हैं-
1. हिन्दू धर्म के प्रति श्रद्धा- डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने हिन्दू धर्म का जो गहन अध्ययन किया उससे वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हिन्दू धर्म घृणा के योग्य नहीं वरन् पवित्रता की खान है। उसमें जो कुछ भी बुराई आयी हैं वह धर्म के कारण नहीं वरन् उसको मनुष्यों द्वारा अनुचित ढंग से प्रस्तुत करने के कारण आयी हैं। डॉ. राधाकृष्णन् के अनुसार हिन्दू धर्म केवल भारतवासियों के लिये ही प्रेरणा का स्रोत नहीं है वरन् उसमें इतने सद्गुण हैं कि वह विश्व को भी शान्ति और कल्याण का मार्ग दिखा सकता है।
2. पूर्व और पश्चिम का समन्वय – रवीन्द्रनाथ टैगोर के समान डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् पूर्व-पश्चिम की विचारधाराओं के आदर्श मिलन स्थल थे। दिनकर के शब्दों में- “विश्व की – दार्शनिक विचारधारा को उन्होंने एक नया मोड़ दिया. संसार के चिन्तकों को उन्होंने एक नयी उत्तेजना दी। पश्चिम जिस उच्च दर्शन का अभिमान करता है, पूर्वी जगत् के पास भी वैसा दर्शन विद्यमान है और विश्व का कल्याण एक ऐसे सामाजिक दर्शन को खड़ा करने में है, जिसमें पूर्वी और पश्चिमी दोनों ही दर्शनों के श्रेष्ठ तत्त्व समन्वित हों।”
3. राजनीति का आध्यात्मीकरण- महात्मा गाँधी के समान डॉ. राधाकृष्णन् राजनीति के आध्यात्मीकरण में विश्वास करते थे। वे धर्म का प्रवेश जीवन के कुछ क्षेत्रों में नहीं वरन् समस्त क्षेत्रों में में करने के पक्षधर थे। इस प्रकार वे जीवन के प्रत्येक पहलू को चाहे वह राजनीतिक हो या . साहित्य, धर्म से अलग करने के पक्ष में नहीं थे। इस कारण ही लोकतन्त्र, शक्ति और युद्ध एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर जो उनके विचार थे, वे उनके धार्मिक दृष्टिकोण के द्वारा निर्धारित हैं।
4. विज्ञान के सम्बन्ध में विचार- डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् विज्ञान का अनादर नहीं करते थे परन्तु उसका मानव सभ्यता पर जो दुष्प्रभाव पड़ा उसकी उन्होंने खुलकर आलोचना की। ईश्वर और धर्म से मानव का ध्यान हटाने में विज्ञान को जो हाथ रहा, वह उनके मतानुसार चिन्ता का विषय है। जीव विज्ञान ने मनुष्यों को पशुता की ओर ले जाने की प्रेरणा दी क्योंकि इस विज्ञान ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि जिस प्रकार प्राकृतिक नियमों की अधीनता में अन्य जीव चलते हैं वैसे ही मनुष्य चलता है परन्तु साथ ही विज्ञान की विभिन्न उपलब्धियों के प्रति वे बड़े उत्साहित और आशावान थे।
5. स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में विचार – स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् के विचार हीगल से मिलते हैं। उनके शब्दों में, “जिस स्वतन्त्रता की कल्पना मनुष्य करते हैं वह केवल नियन्त्रण का अभाव नहीं है और इस प्रकार की स्वतन्त्रता तो अवास्तविक और निषेधात्मक होती है। अपनी जन्मसिद्ध शारीरिक और मानसिक शक्तियों को पूर्णरूप से प्रयोग करना चाहिये। यही वास्तविक और भावात्मक स्वतन्त्रता है।” परन्तु वे पूर्णरूप से हीगलवादी नहीं हैं। उन्होंने स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में काण्ट और स्पेन्सर की धारणा को भी स्वीकार किया है। वे स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं, “स्वतन्त्र वह समाज है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार जीवन व्यतीत करने के लिये स्वतन्त्र है। उसकी स्वतन्त्रता पर केवल इतना प्रतिबन्ध हो सकता है कि वह दूसरों की स्वतन्त्रता का अतिक्रमण न करे।”
6. मानवतावादी दर्शन- डॉ. राधाकृष्णन् राष्ट्रीयता की विचारधारा से ऊपर उठकर मानवतावादी विचारधारा का प्रतिपादन करते हैं। उन्होंने अपने मानवतावाद का प्रतिपादन धर्म के आधार पर किया है। उनके अनुसार पश्चिम के मानवतावाद की सबसे बड़ी कमी यह है कि उसमें आध्यात्मिक सत्ता की उपेक्षा की गयी है, जबकि राधाकृष्णन् नैतिक मूल्यों को आध्यात्मिक आधारों पर स्थापित करना चाहते हैं। अन्य शब्दों में उनका मानवतावाद आध्यात्मिक मानवतावाद है। उनके मत में सभी ईश्वर के अंश हैं, इस कारण सभी बराबर हैं। मानव यदि मानव से घृणा करता है तो वह ईश्वर से भी घृणा करता है।
7. विश्व शान्तिके समर्थन में विचार- मानवतावाद में आस्था रखने के कारण डॉ. राधाकृष्णन् ने विश्व शान्ति को परम आवश्यक माना है। उनके विचार में हमें विश्व राज्य का स्वप्न देखना चाहिये। वह दिन मानवता के लिये सबसे अधिक सुखदायी दिन होगा जबकि सम्पूर्ण पृथ्वी एक परिवार का आदर्श प्रस्तुत करेगी। वे विश्व शान्ति के लिये सदा चिन्तित रहते थे। उनका विचार था कि राष्ट्रों के पारस्परिक व्यवहार अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों पर आधारित होने चाहिये। उन्होंने विश्व सरकार का समर्थन भी किया।
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