आदर्शवाद में शिक्षक का प्रमुख स्थान है।
आदर्शवाद में शिक्षक का प्रमुख स्थान है, जो अग्रलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट हो जायेगा-
1. आत्म-साक्षात्कार या आत्मानुभूति हेतु शिक्षा-रॉस के अनुसार, आत्म- साक्षात्कार के लिये शिक्षक एवं बालक दोनों का होना आवश्यक है। ‘चरम सत्य’ की खोज यहीं से प्रारम्भ होती है। दोनों की अन्तःक्रिया के सम्बन्ध में रॉस के विचार निम्नलिखित हैं- “शिक्षक एवं शिक्षार्थी के सम्बन्ध पर विचार करने से यह भी निष्कर्ष निकलता है कि शिक्षा की प्रक्रिया में शिक्षार्थी की भाँति शिक्षक भी अपनी स्वयं की मुक्ति का रास्ता बना रहा है। असल में दोनों ही एक-दूसरे के साथ परस्पर क्रिया कर आत्म-साक्षात्कार की ओर बढ़ रहे हैं।”
2. बौद्धिक जागरूकता के लिये शिक्षक का महत्त्व – छात्र एवं अध्यापक दोनों ही सीखने योग्य वातावरण सृजित करते हैं और सत्य तथा पूर्णता तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करते हैं, बिना शिक्षक के सीखने की प्रक्रिया सम्पादित नहीं हो पायेगी।
3. सम्यक् व्यक्तित्व के विकास हेतु शिक्षक का महत्त्व – शिक्षक सत्य तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करता है, सम्पूर्ण को प्रकाश में लाता है तथा संकीर्णता को सामाजिकता का विराट् रूप प्रदान करता है। यह तभी सम्भव है जबकि यह प्रसुप्त मानसिकता को जाग्रत करे। डॉ. राधाकृष्णन् ने शिक्षक को बालक को द्वितीय जन्म देने वाला कहा है। प्रथम जन्म तो माता-पिता देते हैं, किन्तु उसके व्यक्तित्व को उदारता एवं विराटता का स्वरूप शिक्षक देता है। सुकरात भी शिक्षा को व्यक्ति की दाई (Midwife) मानते हैं। “जिस प्रकार एक दाई गर्भस्थ . शिशु को सुरक्षित रूप से बाहर निकालती है, उसी प्रकार शिक्षक शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति के मानस में निहित पूर्णता को बाहर लाता है अर्थात् प्रकाश में लाता है।”
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