थार्नडाइक द्वारा निर्मित अधिगम नियम (Thorndike’s Laws of Learning)
थार्नडाइक द्वारा निर्मित अधिगम नियम- थार्नडाइक ने अधिगम की क्रिया में प्रभाव को विशेष महत्त्व दिया है। उद्दीपन का प्रभाव प्राणी पर अवश्य पड़ता है। उद्दीपन के फलस्वरूप ही वह किसी क्रिया को सीखता है। प्राणी को जिस कार्य में संतोष प्राप्त होता है, उपयोगिता का अनुभव होता है वह उसी कार्य को करता है और उस कार्य को करने में रुचि भी लेता है। अनेक प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर थार्नडाइक ने कुछ नियमों की रचना की। यहाँ उसके प्रमुख और गौण नियमों का उल्लेख संक्षेप में किया जा रहा है-
अधिगम के प्रमुख नियम (Main Laws of Learing)
अधिगम के प्रमुख तीन नियम हैं-
(1) प्रस्तुतता अथवा तत्परता का नियम (Law of Readiness)
प्रस्तुतता के नियम के सम्बन्ध में थार्नडाइक कहता है- “जब कोई संवहन एक संवहन के लिए तैयार होता है तो उसके लिए संवहन संतोषजनक हो जाता है, परन्तु जब कोई संवहन के लिए प्रस्तुत नहीं होता तो उसके हेतु संवहन खिझाने वाला होता है। जब कोई संवहन एक संवहन के लिए तैयार हो तो उसके लिए संवहन करना भी खीझ उत्पन्न करने वाला होता है। प्रस्तुतता अथवा तत्परता के नियम का सम्बन्ध प्रभाव तथा अभ्यास से सम्बन्धित है। जब व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक रूप से कार्य करने हेतु तैयार होता है तभी वह किसी कार्य को आसानी के साथ कर सकता है। थार्नडाइक किसी कार्य को करने. हेतु व्यक्ति के प्रस्तुत हो जाने के सम्बन्ध में लिखता है- “जब अधिगम की क्रिया को सम्पादित करने हेतु कोई व्यक्ति प्रस्तुत होता है तो क्रिया के सम्पादन में संतोष प्राप्त होता है। जब व्यक्ति कार्य करने हेतु प्रस्तुत नहीं होता तो उसे कार्य करने में असंतोष प्राप्त होता है।”
इस नियम को इस तरह स्पष्ट किया जा सकता है नर्सरी कक्षा के बच्चों को अक्षर ज्ञान अथवा पुस्तक पढ़ना इसलिए कठिन होता है कि वे मानसिक रूप से इस योग्य नहीं होते। इसी तरह चार महीने के बच्चे को चलना इसलिए नहीं सिखाया जा सकता कि वह शारीरिक रूप से चलने के हेतु प्रस्तुत नहीं है। इससे पूर्णतः स्पष्ट है कि प्रस्तुतता के नियम का आधार परिपक्वता है।
प्रस्तुतता का नियम एवं कक्षा
प्रस्तुतता के नियम का प्रयोग अध्यापक कक्षा में इस प्रकार कर सकता है-
(i) अध्यापक को चाहिए कि वह अपनी कक्षा के विद्यार्थियों को नवीन ज्ञान देने के पहले मानसिक रूप से तैयार करें। इस तैयारी में उसे विद्यार्थियों के व्यक्तिगत भेदों पर भी ध्यान देना चाहिए। अध्यापक को यह देखकर नवीन ज्ञान प्रदान करना चाहिए कि बालक नवीन क्रिया करने हेतु तैयार हो गये हैं अथवा नहीं।
(ii) अध्यापक को चाहिए कि वह बालकों को नवीन ज्ञान सीखने अथवा नई क्रिया करने हेतु उस समय तक बाध्य न करे जब तक कि वे मानसिक रूप से उसके लिये तैयार न हो जायें। जबरन कराये गये कार्य से उनकी शक्ति बेकार जाती है।
(iii) अध्यापक को चाहिए कि वह बालकों की रुचि, अभिरुचि, योग्यता, क्षमता, संप्राप्ति आदि का परीक्षण कर ले। ऐसा करने से बालकों में निहित योग्यताओं एवं क्षमताओं का पता लग जायेगा और वे ठीक ढंग से कार्य कर सकेंगे।
(2) प्रभाव का नियम (Law of Effect)
थार्नडाइक ने इस नियम की व्याख्या करते हुए कहा है कि, “जब एक स्थिति और अनुक्रिया के मध्य एक परिवर्तनीय संयोग बनता है और उसके साथ ही अथवा उसके परिणामस्वरूप संतोषजनक अवस्था उत्पन्न होती है तो उस संयोग की शक्ति बढ़ जाती है। अब इस संयोग के साथ अथवा इसके बाद खिझाने वाली अवस्था पैदा होती है तो उसकी शक्ति घट जाती है।”
थार्नडाइक का विचार था कि जिन कार्यों को करने में व्यक्ति को संतोष प्राप्त होता है। उन्हें वह बार-बार करता है और जिन कार्यों से असंतोष की प्राप्ति होती है उन्हें वह नहीं करना चाहता। थार्नडाइक ने चूहों पर परीक्षण किया। उसने एक ‘भूल-भुलइया’ (Puzzle Box) तैयार करवाई जिसमें भोजन रख दिया तथा चूहों को उस भूल-भुलइया में छोड़ दिया। भोजन प्राप्त करने के लिए चूहे प्रयास करते थे। जब उन्हें भूल-भुलइया में भोजन मिला उन्होंने प्रयास किए, परन्तु जब भोजन नहीं मिला तो उन्होंने असंतोष का अनुभव किया और क्रिया में शिथिलता बरती।
1922 ई. में थार्नडाइक की इस विचारधारा में परिवर्तन आया और उसने यह विचार प्रस्तुत किया कि असंतोष से संयोग शिथिल नहीं होते। पशुओं को नई चाल सिखाने के लिए पीटा जाता है तथा कई प्रकार के कष्ट दिये जाते हैं और कालान्तर में वे स्थायी रूप से उस क्रिया को सीख जाते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रभाव के नियम में बारम्बारता (Frequency) और लक्षणता (Recency) न हो तो प्रभाव के नियम में शिथिलता आ सकती है।
यहाँ इस तथ्य का उल्लेख कर देना आवश्यक है कि जब किसी संयोग पर शक्तिशाली प्रभाव पड़ता है तो उसे उपस्थित कारक प्रभाव कहा जाता है। इसके सम्बन्ध में थार्नडाइक ने लिखा है—“उपस्थित कारक प्रतिक्रिया संवेदी सुखों से पूर्णतः स्वतन्त्र है। वास्तव में यह भी हो सकता है कि कोई दुःख ही इस प्रतिक्रिया का प्रारम्भ करे। उपस्थित कारक प्रतिक्रिया तर्कसंगत अथवा विभ्रांत तो होती नहीं बहुत अधिक चयनात्मक भी होती हैं। वह व्यक्ति के शब्दों को जान सकता है और उनके अनुसार काम कर सकता है तथा उसके आसन और शारीरिक गति को, वह जो कुछ देख रहा है, उसे सर्वथा अछूता छोड़ सकता है। उपस्थित कारक प्रतिक्रिया अक्सर मस्तिष्क में विद्यमान किसी ऊपरी नियन्त्रण, किसी इच्छा अथवा प्रणोदन (Drive) अथवा प्रयोजन अथवा प्राणी के तात्कालिक सक्रिय ‘स्व’ के तन्त्रिका सम्बन्धी आधार से उद्भूत होती प्रतीत होती है। यह ऊपरी नियन्त्रण संकुचित और विशिष्ट हो सकता है, जैसे कि एक द्रव पदार्थ का घूँट प्यास को सन्तुष्ट करता है। यह बहुत व्यापक भी हो सकता है, जैसे कि वह समय जब तक व्यक्ति का प्रयोजन अच्छा खेल खिलाना, जीवन और आनन्द से समय बिताना होता है। यह स्वतन्त्रता भोजन साथीपन जैसे भरपूर संवेदी संतोषक से अथवा अधिगम के एक प्रयोग में ठीक की घोषणा सांकेतिक संतोषक से, उपस्थित कारक प्रतिक्रिया को आगे भेजने के लिए उत्पन्न हो सकता है। “
प्रभाव का नियम और कक्षा
थार्नडाइक के प्रभाव के नियम को अधिगम का आधार माना गया है। सामान्य रूप से विद्यालयों में प्रभाव के नियम का उपयोग इस तरह किया जा सकता है-
(i) छात्रों को प्रोत्साहन (Incentive to Students ) – थार्नडाइक ने प्रभाव के नियम को जिस ढंग से प्रस्तुत किया है उसका आधार प्रोत्साहन अथवा प्रेरणा है। जब तक अध्यापक किसी कार्य को सीखने के लिए छात्रों को प्रेरणा नहीं देता छात्र सीखी जाने वाली क्रिया से प्रभावित नहीं होते। क्रिया की सम्पन्नता के पश्चात् अध्यापक को यह चाहिए कि प्रभाव को स्थायी बनाने हेतु पुरस्कार अथवा दण्ड की व्यवस्था करे। पुरस्कार एवं दण्ड से प्रभाव स्थायी हो जाते हैं।
(ii) मानसिक स्तर (Mental Level)- अध्यापक को यह चाहिए कि वह जो भी क्रिया छात्रों से कराये वह उनके मानसिक स्तर के अनुकूल हो । प्रायः यह देखा जाता है कि विद्यालयों में वैयक्तिक भेदों को ध्यान में नहीं रखा जाता। इसके फलस्वरूप अधिगम सफल नहीं होता। अनुभव के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है कि जो क्रियाएँ छात्रों के मानसिक स्तर के अनुकूल होती हैं उनमें ही छात्रों को सफलता प्राप्त होती है।
(iii) शिक्षण विधि (Methods of Teaching) – शिक्षण विधि का प्रभाव भी अत्यन्त व्यापक होता है। छात्र अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि अमुक अध्यापक गणित अच्छा पढ़ाता है और अमुक अध्यापक विज्ञान, अमुक अध्यापक की कक्षा में तो बैठने की इच्छा ही नहीं होती। इसकी सीधी सी व्याख्या यह है कि अध्यापक को नवीन ज्ञान देने हेतु उचित शिक्षण विधि को अपनाना चाहिए। नवीनता, रोचकता आदि उत्पन्न करने हेतु यह आवश्यक है कि वह शिक्षण विधि की अनुकूलता पर विचार करे।
(iv) सन्तोषप्रद अनुभव (Satisfactory Experiments)- अध्यापक को विद्यालयों में ऐसी विधियों को अपनाना चाहिए जिससे छात्रों को सन्तोषप्रद अनुभव प्राप्त हो सके। छात्रों को भला-बुरा नहीं कहा जाना चाहिए। ऐसा करने पर उनमें अध्यापक के प्रति ग्रन्थियाँ उत्पन्न होती हैं जिन्हें खोलना कठिन हो जाता है। अध्यापक को सदैव यही प्रयास करना चाहिए कि वह छात्रों को सन्तोषप्रद अनुभव प्रदान करे।
(3) अभ्यास का नियम (Law of Exercise)
अभ्यास के नियम के सम्बन्ध में थार्नडाइक ने कहा है कि जब एक परिवर्तनीय संयोग एक स्थिति एवं अनुक्रिया के मध्य बनता है तो अन्य सभी बातें समान होने पर उस संयोग की शक्ति बढ़ जाती है। उसने यह भी कहा है कि जब कुछ समय तक स्थिति एवं अनुक्रिया के मध्य एक परिवर्तनीय संयोग बनता है तो उस संयोग की शक्ति घट जाती है।
इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिस कार्य को हम बार-बार करते हैं उसके चिन्ह मस्तिष्क में दृढ़ हो जाते हैं। इस नियम के अन्तर्गत दो उप-नियम हैं-
(i) उपयोग का नियम (Law of use) जो इस बात पर बल देता है कि मनुष्य उस कार्य को बार-बार करता है जिसकी वह उपयोगिता समझता है और
(ii) अनुपयोग का नियम (Law of Disuse) जिसके अन्तर्गत अन्य उपयोगी बातें समान होने पर भी यदि क्रिया अनुपयोगी होती है तो संयोगों के निर्धारण में वह क्षीण हो जाती है।
कुछ मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जब कोई कार्य बार-बार किया जाता है तो स्नायु सन्धियाँ (Synapse) दृढ़ हो जाती हैं, परन्तु जिस क्रिया का अभ्यास नहीं किया जाता, स्नायु सन्धियों के निर्बल हो जाने के फलस्वरूप वह विस्मृत हो जाती है। उदाहरण हेतु रेखागणित और बीजगणित का व्यावहारिक जीवन में प्रयोग न होने के फलस्वरूप परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् छात्र इन्हें भूल जाते हैं।
अभ्यास का नियम एवं कक्षा
अन्य नियमों की तरह अभ्यास का नियम भी इस तथ्य पर बल देता है कि बच्चों को सिखलाई जाने वाली क्रिया को दृढ़ करने के हेतु उन्हें पर्याप्त अभ्यास कराया जाना चाहिए इस हेतु अध्यापक को निम्न कार्यों पर बल देना चाहिए-
(i) मौखिक अभ्यास (Verbal Practice) – अध्यापक को यह चाहिए कि वह जो कुछ भी पढ़ाये उसका मौखिक अभ्यास अवश्य करावे। मौखिक अभ्यास के फलस्वरूप पढ़ी गयी सामग्री की पुनरावृत्ति होती है तथा अधिगम को बल मिलता है।
(ii) पुनर्निरीक्षण (Reobservation) – जो पाठ छात्रों को पढ़ाये जायें उनका समय समय पर पुनर्निरीक्षण अवश्य किया जाय। इसके फलस्वरूप छात्रों का मानसिक ज्ञान सचेष्ट बना रहता है और उन्हें पाठ्य सामग्री को दोहराने का अवसर प्राप्त होता है।
(iii) वाद-विवाद (Discussion)- अध्यापक को विषय के सम्बन्ध में छात्रों से वाद-विवाद भी कराना चाहिए। वाद-विवाद के फलस्वरूप अभ्यास तो होता ही है, तर्क समर्थन-विमर्थन आदि से विषय को पूर्ण रूप से प्रस्तुत करने में वे और भी अच्छी तरह से सीख जाते हैं।
अधिगम के गौण नियम (Subsidiary Laws of Learning)
थार्नडाइक ने अधिगम के तीन प्रमुख नियमों के साथ ही कुछ उप-नियमों का भी निर्माण किया। ये उप-नियम किसी-न-किसी रूप में मुख्य नियमों की सहायता करते हैं। इन नियमों का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है-
(1) बहुविधि अनुक्रिया (Multiple Response) – थार्नडाइक द्वारा प्रतिपादित गौण नियमों में पहला नियम है बहुविधि अनुक्रिया। अधिगम के उद्दीपन के फलस्वरूप अनेक अनुक्रियाएँ (Responses) अथवा प्रतिक्रियाएँ (Reactions) होती हैं। जब भी अनुक्रिया का फल प्राप्त होता है, इस तरह की अनुक्रियाएँ प्रकट होती हैं। जब भी सीखने वाले के समक्ष समस्या आती है वह एक के पश्चात् दूसरा प्रयास उसे हल करने हेतु करता है, जब वांछित व्यवहार उत्पन्न हो जाता है सफलता प्राप्त हो जाती है और अधिगम सम्भव हो जाता है। प्राणी अनुक्रिया की विभिन्न क्रियाएँ करने की क्षमता रखता है। इसके अभाव में वह समस्या के हल तक नहीं पहुँच पाता। यह भी पाया जाता है कि जब किसी दी गयी परिस्थिति के प्रति अनुक्रिया की जाती है तो उसका कुछ-न-कुछ परिणाम अवश्य होता है। इस अनुक्रिया का जो भी फल प्राप्त होता है, उसका मूल्य सापेक्ष होता है, अर्थात् यह कम भी लग सकता है और अधिक भी।
इस नियम का मूल अभ्यास का नियम ही है। अध्यापक छात्रों से दी गयी परिस्थिति अथवा उद्दीपन से अनेक प्रकार की अनुक्रियाएँ प्राप्त करता है तथा सही अनुक्रिया का चयन करता है। किसी विषय को प्रारम्भ करने से पहले छात्रों से प्रश्न किये जाते हैं। ये प्रश्न समस्या से सम्बन्धित होते हैं। छात्रों द्वारा उनका उत्तर दिया जाता है। छात्र अध्यापक की सहायता से सही उत्तर देने लगते हैं। इसके फलस्वरूप शिक्षक द्वारा छात्रों का मार्ग प्रदर्शन किया जाता है।
(2) रुझान अथवा मनोवृत्ति (Set or Attitude) – थार्नडाइक द्वारा प्रतिपादित यह दूसरा गौण नियम है। इस नियम के अनुसार व्यक्ति अथवा प्राणी की (इच्छा शक्ति) मनोवृत्ति अथवा रुझान से निर्धारित होती है। किसी परिस्थिति, सांस्कृतिक वातावरण आदि के साथ किये गये से समायोजन में अधिगम की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। रुझान अथवा मनोवृत्ति के द्वारा केवल यही निर्धारित नहीं होता कि व्यक्ति किस परिस्थिति में क्या करेगा, बल्कि यह भी पता चलता है कि किन बातों से उसे आनन्द प्राप्त होगा और किनसे असन्तोष। इसी आधार पर थार्नडाइक ने आकांक्षाओं के स्तर (Level of aspiration) की धारणा पर कार्य किया जो कालान्तर में व्यक्तित्व सिद्धान्त ( Personality Theory) हेतु महत्त्वपूर्ण हो गया।
इस नियम का सम्बन्ध अधिगम की मानसिक स्थिति से है और यह नियम प्रस्तुतता के नियम का अंश है। यदि छात्र मानसिक रूप से किसी क्रिया को सीखने हेतु तैयार नहीं है तो वह नवीन कार्य और तत्सम्बन्धी क्रिया को नहीं सीख सकेंगे। शिक्षक को नवीन ज्ञान प्रदान करते समय छात्रों को मानसिक और संवेगात्मक रूप से तैयार अवश्य कर लेना चाहिए जिससे कि अधिगम की प्रक्रिया सफलतापूर्वक सम्पन्न हो सके।
(3) तत्त्वों की पूर्व सामर्थ्य (Prepotency of Elements)- अधिगम का तृतीय गौण नियम तत्त्वों की पूर्ण सामर्थ्य है। सीखने वाला अधिगम अथवा समस्या के विभिन्न तत्त्वों में से वास्तविक तथ्यों का चयन करने में समर्थ होता है। व्यक्ति किसी भी समस्या को हल करने हेतु आवश्यक पदों को चुनता है और अनुक्रिया करता है। इस नियम के द्वारा अधिगम की क्रिया को जीवन के साथ जोड़ा गया है।
(4) सादृश्यता द्वारा अनुक्रिया (Response by Analogy)– अधिगम का एक अन्य गौण नियम सादृश्यता द्वारा अनुक्रिया है। नवीन परिस्थितियों की सादृश्यता की तुलना पूर्व परिस्थितियों से की जाती है। व्यक्ति नवीन परिस्थितियों का ज्ञान पूर्व अर्जित ज्ञान अनुभव के आधार पर ही प्राप्त करता है। इस नियम का आधार पूर्वानुभव और पूर्व ज्ञान है। शिक्षण कार्य करते समय विषय की समानता तथा असमानता का जीवन सम्बन्ध बताना अत्यन्त आवश्यक है। पढ़ाये जाने वाले विषयों का सम्बन्ध दैनिक जीवन की क्रियाओं से जुड़ने के फलस्वरूप पाठ का सात्मीकरण हो जाता है तथा बालक उसे अच्छी तरह से सीख लेता है।
(5) साहचर्य परिवर्तन ( Associative Shifting)- इस नियम में प्राप्त ज्ञान का उपयोग अ य परिस्थितियों में किया जाता है। यह तभी होगा जब अध्यापक छात्रों के समक्ष उस परिवर्तन की श्रृंखला के सम्पर्क में रखा जाता है तो उससे पूरी तरह से नवीन उद्दीपन तरह की परिस्थिति रखेगा। यदि किसी अनुक्रिया को उद्दीप्त (Stimulated) परिस्थिति में (Stimulation) का जन्म होता है। थार्नडाइक द्वारा बिल्ली को मछली के टुकड़े के साथ साहचर्य कर खड़ा होना सिखाया गया। अपने दैनिक जीवन में भी हम चुटकी बजाकर किसी पालतू कुत्ते को खड़ा होना सिखा देते हैं। किसी व्यक्ति की मोटर साईकिल की आवाज सुनकर उसके घर में पली हुई बिल्ली घर से निकलकर गली में आ जाती है।
अधिगम के नियमों में कक्षागत परिस्थितियों में शिक्षक तीन बातों पर विचार करता है
(अ) संयोग के निर्माण अथवा ध्वंस होने की पहचान,
(ब) पहचान की प्रत्येक स्थिति में सन्तोष अथवा असन्तोष की प्राप्ति और
(स) परिस्थिति से प्राप्त सन्दर्भों से सन्तोष अथवा असन्तोष का विनियोग।
अतएव शिक्षक एवं विद्यार्थियों को चाहिए कि अभ्यास के द्वारा निष्पत्ति को उत्तम स्वरूप देने का प्रयास करें। त्रुटियों को पहचान कर उन्हें दूर करें जिससे शक्ति और समय की बचत हो तथा अधिगम सफलतापूर्वक सम्पन्न हो । थार्नडाइक द्वारा रुचि के विकास पर विशेष बल दिया गया। शिक्षकों से आग्रह करते हुए उसने इन तत्त्वों पर बल दिया-
(i) कार्य में रुचि,
(ii) निष्पत्ति सुधार और विकास में रुचि,
(iii) छात्रों में लक्ष्य प्राप्ति हेतु पाठ का महत्त्व,
(iv) पाठ याद करने में सन्तुष्टि अथवा समस्या के प्रति मनोवृत्ति,
(v) कार्य के प्रति ध्यान ।
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