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शिक्षा मनोविज्ञान का विषय-क्षेत्र | Scope of Educational Psychology in Hindi

शिक्षा मनोविज्ञान का विषय-क्षेत्र
शिक्षा मनोविज्ञान का विषय-क्षेत्र

शिक्षा मनोविज्ञान का विषय-क्षेत्र (Scope of Educational Psychology)

“”शिक्षा मनोविज्ञान मानव व्यवहार का शैक्षणिक परिस्थितियों में अध्ययन करता है। इसका सम्बन्ध उन मानव व्यवहारों और व्यक्तियों के अध्ययन से है जिनका उत्थान, विकास एवं  मार्गदर्शन शिक्षा की प्रक्रिया द्वारा होता है।” विभिन्न विद्वानों ने शिक्षा मनोविज्ञान की विषय-सामग्री के सम्बन्ध में उल्लेख किया है। यहाँ कुछ विद्वानों के विचार प्रस्तुत किए जा रहे हैं-

(1) गैरीसन एवं अन्य-“शिक्षा मनोविज्ञान की विषय-सामग्री का नियोजन दो दृष्टिकोणों से किया जाता है-

(i) शिक्षार्थी के जीवन को समृद्ध तथा विकसित करना और

(ii) शिक्षकों को अपने शिक्षण में गुणात्मक उन्नति करने में सहायता हेतु ज्ञान प्रदान करना।”

(2) डगलस एवं हालैण्ड– “शिक्षा मनोविज्ञान की विषय सामग्री, शिक्षा की प्रक्रियाओं में भाग लेने वाले व्यक्ति की प्रकृति, मानसिक जीवन और व्यवहार है।”

(3) क्रो एवं क्रो-“शिक्षा मनोविज्ञान की विषय-सामग्री का सम्बन्ध अधिगम को प्रभावित करने वाली दशाओं से है।” शिक्षण सामग्री के अन्तर्गत जिन विषयों का मुख्यरूप से अध्ययन होता है उन पर यहाँ प्रकाश डाला जा रहा है

(1) शैक्षिक परिस्थितियों से सम्बन्धित अध्ययन – शिक्षा में परिस्थितियों और वातावरण का अत्यधिक महत्त्व है। शिक्षा हेतु शैक्षिक परिस्थिति का निर्माण नियोजित रूप से होता है। यदि उचित वातावरण नहीं प्राप्त होता तो शैक्षिक प्रयास असफल हो जाते हैं। मनोविज्ञान में वातावरण का भी अध्ययन किया जाता है क्योंकि व्यवहार को जन्म देने वाले तत्त्व वातावरण के अन्तर्गत निहित होते हैं। बालक की सफल शिक्षा हेतु प्रभावकारी वातावरण का निर्माण किया जाना चाहिए। यदि शिक्षा की अपेक्षा की दृष्टि से वातावरण नियोजित और नियन्त्रित नहीं किया जाता तो शिक्षण और अधिगम सफलतापूर्वक निष्पादित नहीं किए जा सकते। अतएव शिक्षा मनोविज्ञान के अन्तर्गत पर्यावरण और वातावरण का शिक्षण, अधिगम, वैयक्तिक भिन्नता, व्यक्तित्व निर्माण, समायोजन एवं स्वास्थ्य वृद्धि एवं विकास पर प्रभाव आदि विषयों का विस्तृत अध्ययन किया जाता है।

(2) शिक्षार्थी से सम्बन्धित अध्ययन- आधुनिक शिक्षा मनोविज्ञान विद्यार्थी अथवा सीखने वाले को शिक्षा प्रक्रिया का केन्द्रबिन्दु मानता है। शिक्षा प्रक्रिया आरम्भ होते ही प्रमुख प्रश्न यह उठता है कि हम किसे शिक्षा दे रहे हैं? निश्चित रूप से इसका उत्तर होगा बालक को अथवा अधिक व्यापक रूप में कहें तो सीखने वाले को आधुनिक युग में इस प्रमुख प्रश्न पर ही शिक्षा जगत में विशेष रूप से विचार होता है और यही कारण है कि शिक्षा मनोविज्ञान ने बालक अथवा विद्यार्थी को शिक्षा केन्द्र बिन्दु माना है, जो शिक्षा इस केन्द्र के चारों ओर घूमती है उसी को बाल केन्द्रित शिक्षा अथवा मनोविज्ञान कहा जाता है। यह विचारधारा उस मनोवैज्ञानिक आन्दोलन का परिणाम है जिसका सूत्रपात रूसो और पेस्तालॉजी ने किया था और आज सभी व्यक्तियों द्वारा इसे समर्थन प्राप्त हो रहा है। इस सम्बन्ध में शिक्षार्थी से सम्बन्धित निम्न बातों का अध्ययन आवश्यक है-

(अ) वंशानुक्रम एवं वातावरण का अध्ययन- बालक की शिक्षा पर वंशानुक्रम से प्राप्त गुणों और वातावरण का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। शिक्षा मनोविज्ञान के अन्तर्गत दोनों का अध्ययन किया जाता है और यह जानने का प्रयास किया जाता है कि शिक्षा पर वंशानुक्रम का अधिक प्रभाव पड़ता है अथवा वातावरण का।

(ब) बाल-विकास की विभिन्न अवस्थाओं का अध्ययन- इसके अन्तर्गत विकास के सिद्धान्त और बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं शैशव, बाल्य और किशोरावस्था का अध्ययन किया जाता है तथा इन अवस्थाओं में पायी जाने वाली शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक एवं सामाजिक विशेषताओं के अनुसार शिक्षा का स्वरूप निर्धारित किया जाता है।

(i) शारीरिक विकास शारीरिक विकास के अन्तर्गत बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं-शैशवावस्था, बाल्यावस्था और किशोरावस्था की शारीरिक विशेषताओं का अध्ययन होता है।

(ii) मानसिक विकास- इसके अन्तर्गत संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, निरीक्षण, ध्यान, रुचि, सीखना, प्रेरणा, कल्पना, चिन्तन, तर्क, निर्णय, स्मृति और विस्मृति आदि का अध्ययन किया जाता है और विभिन्न प्रयोगों द्वारा इस बात का अध्ययन किया जाता है कि बालक में इनका विकास किन विधियों द्वारा कराया जाय।

(iii) संवेगात्मक विकास- इसके अन्तर्गत भावों, संवेगों, स्थायीभावों, मनोभावों, मनोग्रन्थियों, मूलप्रवृत्तियों, सहज प्रवृत्तियों आदि का अध्ययन होता है। बालक की शिक्षा में संवेग कभी तो सहायक होता है और कभी बाधक शिक्षा मनोविज्ञान के अध्ययन के अन्तर्गत यह ज्ञात करने का प्रयास किया जाता है कि किस तरह संवेग बालक की शिक्षा में सहायक हो सकते हैं।

(iv) सामाजिक एवं चारित्रिक विकास- इसके अन्तर्गत सामाजिक क्रियाओं, खेल, सामूहिक निर्णय की क्रियाओं और पाठ्य-विषयान्तर क्रियाओं, जिनसे सामाजिक एवं चारित्रिक विकास में सहायता प्राप्त होती है, इन सब बातों का अध्ययन होता है।

(स) बालक के मानसिक स्वास्थ्य का अध्ययन- शिक्षा मनोविज्ञान के अन्तर्गत मानसिक स्वास्थ्य के सिद्धान्त, बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर बाधा डालने वाले तत्वों और उन्नति करने वाले कारकों का अध्ययन होता है।

(द) बालक की व्यक्तिगत भिन्नताओं का अध्ययन- शिक्षा मनोविज्ञान तीव्र, सामान्य, मन्दबुद्धि, समस्यात्मक और असाधारण मानसिक रोगग्रस्त और विभिन्न प्रकार के विकृति वाले बालकों का अध्ययन करता है तथा यह निश्चित करता है कि किस तरह के बालकों को किस तरह की और किन प्रणालियों से शिक्षा प्रदान की जाय।

(य) बालक के व्यवहार और समायोजन सम्बन्धी समस्याओं का अध्ययन- शिक्षा मनोविज्ञान के अन्तर्गत बालक के व्यवहार एवं समायोजन सम्बन्धी समस्याओं का अध्ययन और उसे निर्देशन देने का कार्य भी किया जाता है जिससे कि उसका समुचित विकास हो सके।

(3) सीखने की प्रक्रिया का अध्ययन- सीखने का जीवन में काफी महत्त्व है। शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य व्यक्ति को सिखाना है। सीखना उत्तेजन-अनुक्रिया का परिणाम है। वातावरण के अन्तर्गत जो उत्तेजनाएँ होती हैं उसके प्रति प्रारम्भ से ही बालक अनुक्रिया करने लगता है जो कि मूल-प्रवृत्यात्मक होती हैं। अपने अनुभव द्वारा वह इन अनुक्रियाओं में परिवर्तन और परिमार्जन करता है और फिर शनैः शनैः समायोजन, प्रत्यक्षीकरण प्रक्रियाएँ करना सीखता जाता है।

(4) सीखने के परिणाम (उत्पाद) का अध्ययन- शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र के अन्तर्गत सीखने को प्रभावित करने वाली क्रियाएँ एवं दशाएँ आती हैं। सीखने के परिणामस्वरूप व्यक्ति कुछ ज्ञान प्राप्त करता है। सीखना मानसिक क्रियाओं की मदद से उत्पन्न होता है। सीखने के फलस्वरूप व्यक्ति जो कुछ ग्रहण कर लेता है उसे शैक्षिक उपलब्धि, शैक्षिक-परिणाम अथवा शैक्षिक-उत्पाद कहा जाता है। सीखने के उत्पाद को जानने हेतु निम्न बातों पर ध्यान दिया जाता है-

(i) शिक्षा में चिन्तन, क्रिया, प्रत्यय, निर्माण, तर्क एवं समस्या समाधान का विशेष महत्व है। बौद्धिक और मानसिक विकास अथवा सीखने की प्रक्रिया को संचालित करने हेतु इनका विकास अत्यन्त आवश्यक है।

(ii) बालक में सृजनात्मक प्रवृत्ति का विकास भी आवश्यक है। शैक्षिक दृष्टि से इस प्रवृत्ति का उपयोग करके रचनात्मक कार्यों के माध्यम से शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए।

(iii) विद्यालय में सामूहिक भावना के माध्यम से विद्यार्थियों के आन्तरिक गुणों का विकास सम्भव है। इसके हेतु विभिन्न समूहों के साथ सामाजिक अन्तःक्रिया (Social interaction) का होना आवश्यक है। समूह भावना और नेतृत्व की शिक्षा हेतु समूह मनोविज्ञान काफी उपयोगी सिद्ध हुआ है।

(5) मापन एवं मूल्यांकन सम्बन्धी अध्ययन- इसमें शैक्षिक उपलब्धि और विषय योग्यता का मापन और बुद्धि, चरित्र, व्यक्तित्व, सम्बन्धी माप हेतु विभिन्न सिद्धान्तों, विधियों, परीक्षणों एवं सांख्यिकीय कार्यों का प्रयोग किया जाता है। सीखने की प्रक्रिया के अन्तर्गत शिक्षकों को बालक की बुद्धि, व्यक्तित्व एवं विभिन्न योग्यताओं का ज्ञान होना आवश्यक है। इन सब की माप करना शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र के अन्तर्गत आता है।

(6) शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन सम्बन्धी अध्ययन- मापन एवं मूल्यांकन के परिणामों के आधार पर बालकों को शिक्षा सम्बन्धी निर्देशन और व्यवसाय सम्बन्धी निर्देशन दिया जाता है।

(7) शिक्षक सम्बन्धी अध्ययन- शिक्षक शिक्षण प्रक्रिया का एक प्रमुख अंग होता है। सीखने की प्रक्रिया में परिस्थितियों का निर्माण करने, सीखने को नियन्त्रित एवं नियोजित करने में शिक्षक विशेष रूप सहायक होता है। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के अन्तर्गत शिक्षार्थी और शिक्षक के मध्य जो अन्तःक्रिया होती है उससे शिक्षण कार्य और अधिगम कार्य में सहायता प्राप्त होती है। बालक के अधिगम में शिक्षक ही महत्त्वपूर्ण कारक है। शिक्षक का व्यक्तित्व एवं कृतित्व बालक के विकास पर काफी प्रभाव डालता है। अतएव शिक्षा मनोविज्ञान में शिक्षक के व्यक्तित्व, उसके प्रशिक्षण और उसके शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य आदि का व्यापक रूप से अध्ययन होता है।

उपर्युक्त तथ्य शिक्षा मनोविज्ञान के अध्ययन क्षेत्र में व्यापक रूप से आते हैं। यह बात अलग है कि आवश्यकतानुसार शिक्षा मनोविज्ञान की पुस्तकों के अन्तर्गत किस बात पर अधिक बल दिया गया है और किस बात पर कम। प्रो. सी. एल. कुण्डू ने शिक्षा मनोविज्ञान के अध्ययन क्षेत्र में पाँच अध्ययन विषयों को स्थान दिया है-

(1) मानव अभिवृद्धि और विकास,

(2) अधिगम,

(3) व्यक्तित्व और समायोजन,

(4) मापन और मूल्यांकन तथा

(5) शिक्षा मनोविज्ञान में तकनीक एवं प्रविधियाँ

उन्होंने लिखा है- “संक्षेप में, जो कुछ हो सकता है अथवा जो कुछ बालक की उसकी कक्षा में व्यवहार को छूता है, शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र के अन्तर्गत आता है।”

कक्षा-कक्ष परिस्थितियों में शिक्षा मनोविज्ञान का महत्त्व (Implication of Educational Psychology in Classroom Situation)

शिक्षा मनोविज्ञान का ज्ञान क्षेत्र वैज्ञानिक शोधों और अवलोकनों एवं उनके निष्कर्षों से परिपूर्ण है। इस तरह शिक्षा मनोविज्ञान का अध्ययन विज्ञानपरक है। इसके निष्कर्षों का शिक्षा में महत्त्वपूर्ण स्थान होने के फलस्वरूप शिक्षा का अध्ययन भी विज्ञानपरक हो जाता है। अतएव शैक्षिक क्रियाओं एवं अपेक्षाओं में विश्वसनीय सफलता प्राप्त करने में शिक्षा मनोविज्ञान का महत्त्व काफी बढ़ जाता है, क्योंकि यह ज्ञान एवं तकनीकों का वह आधार प्रदान करता है जो शैक्षिक उद्देश्यों को पूर्ण करने के लिए तथ्यों को समझने, सिद्धान्तों को सुनियोजित करने, सक्रियता बनाने और अपेक्षित परिणाम प्राप्त करने में सहायता प्रदान करता है। यहाँ शिक्षा में मनोविज्ञान के महत्त्व को स्पष्ट करने वाले बिन्दुओं को प्रस्तुत किया जा रहा है

(1) शैक्षिक उद्देश्यों एवं लक्ष्यों का ज्ञान- शिक्षा मनोविज्ञान शैक्षिक उद्देश्यों और लक्ष्यों के निर्धारण और उन्हें क्रियान्वित करने का ज्ञान प्रदान करता है। उत्प्रेरणा के रूप में उद्देश्यों एवं शैक्षिक तत्परता हेतु लक्ष्यों को वस्तुपरक स्वरूप प्रदान करने में शिक्षा मनोविज्ञान सहायक होता है। वास्तव में शैक्षिक उद्देश्यों और लक्ष्यों का निर्धारण मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुरूप ही होना चाहिए क्योंकि उनका सम्बन्ध मानवीय व्यवहार में परिवर्तन अथवा परिमार्जन से होता है। शैक्षिक उद्देश्यों और लक्ष्यों का बालक के मन में जितना अधिक स्पष्ट चित्र बन जायेगा वह शैक्षिक प्रभावों को आत्मनिष्ठ करने में उतना ही अधिक अपने व्यवहार में परिवर्तन और परिमार्जन करेगा। शिक्षा मनोविज्ञान इस कार्य को साकार करने में सहायता प्रदान करता है और इस दृष्टि से शिक्षा मनोविज्ञान का अत्यधिक महत्त्व है।

(2) बालक अथवा अधिगमी (Learner) सम्बन्धी ज्ञान- बालक, शिक्षार्थी अथवा अधिगमी शिक्षा का केन्द्र होता है। इसी के हेतु शिक्षा की व्यवस्था बनाई जाती है और उसमें शैक्षिक प्रक्रियाएँ उत्पन्न कर बालक के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाये जाने का प्रयास किया जाता है। शिक्षा के इस केन्द्रीय अथवा निरन्तरणीय विषय का पूर्ण ज्ञान आवश्यक है। अध्यापक को जहाँ एक ओर अपने विषय का ज्ञान होना चाहिए वहीं उसे बालक अथवा अधिगमी का भी ज्ञान होना चाहिए। दूसरी तरफ बालक को भी आत्मज्ञान होना आवश्यक है। बालक को स्वयं के व्यक्तित्व का ज्ञान और अध्यापक को बालक के व्यक्तित्व का ज्ञान प्राप्त करने में शिक्षा मनोविज्ञान अत्यधिक सहायता करता है। बालक के व्यक्तित्व के विकास की सम्भावनाओं का पता लगाने के लिए शिक्षा मनोविज्ञान अपने मापों और विधियों का प्रयोग करता है। यह कहा जाता है कि शिक्षा बालक की अन्तर्निहित शक्तियों का विकास है। अन्तरनिहित शक्तियों की पहचान और उनके विकास की सम्भावनाओं का ज्ञान शिक्षा मनोविज्ञान के अध्ययन से ही प्राप्त किया जा सकता है।

इस तरह स्पष्ट है कि शिक्षा मनोविज्ञान बालकों की वास्तविक पहचान दूसरों को तो कराता ही है साथ ही बालकों को स्वयं भी अपनी पहचान कराने में सहायता प्रदान करता है। शिक्षा प्रक्रिया के अन्तर्गत बालक को भी ऐसे कार्य करने होते हैं जो उसके विकास में सहायक होते हैं। शिक्षा चाहे सामूहिक हो अथवा वैयक्तिक, उसमें बालक अथवा अधिगमी सम्बन्धी ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है और इस दृष्टि से शिक्षा मनोविज्ञान का महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है।

(3) अधिगम सम्बन्धी ज्ञान- शिक्षा की प्रक्रिया में अधिगम प्रक्रिया का विशेष महत्त्व है। अधिगम प्रक्रिया के बिना शिक्षा का परिणाम ज्ञात नहीं हो सकता। बालक जिसे हम अधिगम क्रिया करने वाला (अधिगमी) कह सकते हैं, एक निष्क्रिय विषय न होकर स्वयं में विकास की स्थिति उत्पन्न करने हेतु क्रिया करने वाला होता है, अतएव उसे पता होना चाहिए कि अधिगम की प्रकृति क्या है ? अधिगम की क्रिया कैसे सम्पन्न होती है, और अधिगम कितने प्रकार का होता है? इस सम्बन्ध में कौन-कौन से सिद्धान्त और नियम हैं ? प्रभावशाली अधिगम के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए? शिक्षा मनोविज्ञान का ज्ञान प्राप्त करके अधिगमी अधिगम को सरल, सुगम और प्रभावशाली बना सकता है। शिक्षा मनोविज्ञान के अन्तर्गत अधिगम का विशद अध्ययन किया जाता है। शैक्षिक दृष्टि से शैक्षिक परिस्थितियों कक्षा-कक्ष आदि में अधिगम के विभिन्न प्रारूपों की प्रस्तावनाओं के अनुरूप बालक ठीक प्रकार से अधिगम कर सकता है।

(4) अध्यापकीय कार्य में सहायक- शिक्षा मनोविज्ञान अध्यापन कार्य में भी विशेष सहयोग प्रदान करता है। अध्यापन कार्य करने वाले व्यक्ति का एक विशिष्ट व्यक्तित्व होता है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव बालक के व्यक्तित्व पर पड़ता है। शिक्षा मनोविज्ञान सर्वप्रथम अध्यापक को स्वयं के व्यक्तित्व की पहचान कराता है और उसको व्यक्तित्व निर्माण की वह दिशा प्रदान करता है जिससे वह एक सफल अध्यापक बन सके। शिक्षा मनोविज्ञान अध्यापक को स्वयं के मानसिक स्वास्थ्य को जानने और सन्तुलित रखने एवं सामान्य रूप से बालकों के साथ सामंजस्य बनाने का ज्ञान प्रदान करता है। अध्यापक को विषय का ज्ञान रखना, विषय ज्ञान का संप्रेषण करना और बालकों को पहचानने का कार्य करना होता है। इन कार्यों को सफलतापूर्वक सम्पन्न करके वह अपनी व्यावसायिक कुशलता का परिचय देता है। इस कार्य में भी शिक्षा मनोविज्ञान बहुत अधिक सहायता प्रदान करता है। स्पष्ट है कि अध्यापकीय व्यक्तित्व और कृतृत्व के सम्बन्ध में शिक्षा मनोविज्ञान का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि शिक्षा मनोविज्ञान एक ओर जहाँ अध्यापक को आत्म ज्ञान प्रदान करता है वहीं वह उसमें व्यावसायिक कुशलता का विकास भी करता है और शिक्षण कार्य के साथ ही अन्य विद्यालयीय कार्य को सफलतापूर्वक सम्पादित करने के लिए मार्गदर्शन भी करता है।

(5) शिक्षण सम्बन्धी ज्ञान- शिक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है जो शिक्षक द्वारा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रयोग में लायी जाती है। वास्तव में शिक्षण की प्रक्रिया संगठित और नियोजित करके और उसका साविधिक रूप निर्धारित करते हुए अध्यापक अथवा सिखाने वाला व्यक्ति अथवा उसका माध्यम क्षेत्र और अधिगमी को प्रभावित करता है जिससे उसमें अपेक्षित परिवर्तन हो सके। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु शिक्षा मनोविज्ञान में अनेक प्रयोगों, शोधों और नवाचारों के द्वारा शिक्षण विधियों का विकास किया गया है। बालक के स्वरूप और विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न शिक्षण विधियों की आवश्यकता होती है। शिक्षा मनोविज्ञान जहाँ एक ओर उपयुक्त शिक्षण विधियों को प्रस्तुत करता है, वहीं दूसरी ओर आवश्यकतानुसार उसकी उपयुक्तता-अभिकल्पों की जाँच भी करता है तथा नवीन शिक्षण विधियाँ प्रस्तावित करता रहता है।

शिक्षा कार्य को अधिक प्रभावशाली बनाने हेतु निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति हेतु शिक्षा मनोविज्ञान में सहायक शिक्षण सामग्रियों और उनकी आवश्यकता पर प्रकाश डाला जाता है। शिक्षा मनोविज्ञान के इस सम्बन्ध में किए गए प्रयासों से जहाँ शिक्षण सामग्रियों की सहायता का प्रचलन शैक्षिक कार्यों में बढ़ा है वहाँ नये-नये शैक्षिक उपकरणों का विकास किया जा रहा है। शैक्षिक अध्ययन के क्षेत्र में शैक्षिक तकनीकी का विकास इस बात का परिणाम है। आधुनिक युग में कक्षा शिक्षण कार्य में दृश्य-श्रव्य उपकरणों के प्रयोग पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा है। इस तरह स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप बालकों को प्रभावित करना, अधिगम को सुदृढ़ करना, शिक्षण विधियों की उपयोगिता की जाँच करना। इस सम्बन्ध में शोधपूर्ण ज्ञान एवं नवाचार प्रस्तुत करना, सहायक शिक्षण सामग्रियों के प्रयोग पर बल देना, अनुदेश और अभ्यास कार्य को प्रभावशाली बनाना और निर्देश एवं निर्देशित कार्यों आदि का ज्ञान शिक्षा मनोविज्ञान के अध्ययन से प्राप्त होता है। इस प्रकार इस दृष्टि से भी शिक्षा मनोविज्ञान का अत्यधिक महत्व है। शिक्षण सम्बन्धी ज्ञान के हेतु शिक्षाशास्त्रियों को शिक्षा मनोविज्ञान पर निर्भर रहना पड़ता है।

(6) शैक्षिक मूल्यांकन सम्बन्धी ज्ञान- शिक्षा में मूल्यांकन का कार्य बहुआयामी होता है। बालक की योग्यता और क्षमता का शिक्षा पूर्व मूल्यांकन, बालक की शिक्षा में अवरोध उत्पन्न करने वाले तत्त्वों का मूल्यांकन, निर्माणकारी मूल्यांकन और शिक्षा प्रक्रिया, शिक्षण अधिगम के पश्चात् मूल्यांकन आदि अनेक दृष्टिकोणों से सम्बोधित किए जाते हैं। शिक्षा-मनोविज्ञान के ज्ञान के विस्तार के साथ ही मूल्यांकन के आयामों का विस्तार हुआ है क्योंकि इससे बालक के विकास के सम्बन्ध में यथेष्ठ ज्ञान प्राप्त होता है।

शिक्षा-मनोविज्ञान जहाँ एक ओर मूल्यांकन विधियाँ प्रस्तावित करता है, वहीं दूसरी ओर उनकी वैज्ञानिकता और उपयुक्तता को सुनिश्चित करने का ज्ञान भी प्रदान करता है। शिक्षा मनोविज्ञान से ही उन अवधारणाओं का ज्ञान प्राप्त किया जाता है जिन गुणों का मूल्यांकन होना है। बालक की मानसिक शक्तियों, व्यक्तित्व के गुणों, उपलब्धियों, समस्याओं और विकारों आदि में मापनीय तत्त्वों की पहचान और उनका मापन विधि शिक्षा मनोविज्ञान ही बतलाता है। यही नहीं शिक्षा मनोविज्ञान मूल्यांकन हेतु उपयुक्त परीक्षणों के निर्माण के सम्बन्ध में भी सहयोग प्रदान करता है। अतः शिक्षा की अवधारणा में शिक्षा के परिणाम (Outcome) के ज्ञान, दक्षता और अभिवृत्ति में विकास को सम्मिलित किया जाता है। रूप में कुछ विद्वान इस विकास को ही शिक्षा की संज्ञा देते हैं। यहाँ यह स्पष्ट करना अत्यन्त आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है कि विकास मापनीय होता है। विकास के मापन हेतु परीक्षणों की आवश्यकता होती है। शिक्षा मनोविज्ञान मापनीय तत्वों, मापकों और परीक्षणों की विस्तृत व्याख्या करता है। शैक्षिक मूल्यांकन के अभाव में औपचारिक अथवा औपचारिकेत्तर शिक्षा का कार्य अपूर्ण रहता है।

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