आपदा का अर्थ (Meaning of Disaster)
प्रकृति की वे सभी घटनाएँ जो प्राकृतिक रूप से घटित होकर व्यापक क्षेत्र में विनाश करती हैं, प्राकृतिक आपदायें कहलाती हैं। इनके लिए अंग्रेजी भाषा Natural Hazard, Calamity या Disaster जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। हिन्दी भाषा में इन्हें दैवी प्रकोप, विपत्ति, प्राकृतिक प्रकोप, चरण घटना आदि समानार्थी शब्दों से सम्बोधित किया जाता है, इनसे जैव जगत् तबाह हो जाता है। दैवी विपत्तियाँ अथवा प्राकृतिक आपदायें क्षण भर मात्र में पृथ्वी पर बहुत अधिक विनाश कर देती हैं। इनके प्रतिकूल प्रभाव से मानव व वन्य जीव तबाह हो जाते हैं। सूखा (Drought), बाढ़ (Flood), प्रचण्ड तूफान ( टाइफून, हरीकेन, टारनेडो), भूकम्प, ज्वालामुखी, भू-स्खलन, वनाग्नि, भू-क्षरण, मरुस्थलीकरण, महामारियों तथा जलवायुविक व्यतिक्रम आदि ऐसी ही विपदायें हैं। प्राकृतिक आपदाओं से धन-जन की अपूरणीय क्षति होती है। अतः प्राकृतिक प्रकोपों को पर्यावरणीय प्रकोप (Environmental Hazards) भी कहा जा सकता है। पर्यावरण प्रकोप वह प्राकृतिक या मानवजनति घटना है जो प्राकृतिक पर्यावरण के जैविक एवं अजैविक घटकों की सहनशीलता को तोड़कर अपना प्रभाव डालती है। उसके द्वारा उत्पन्न परिवर्तनों के साथ समायोजन (Adjustment) कठिन हो जाता है। इस प्रलय से भारी तबाही होती है और धन-जन की अपूर्णीय क्षति होती है।
प्राकृतिक आपदायें मनुष्य के घमण्ड को क्षण भर में चूर कर देती हैं। सारे वैज्ञानिक और प्राविधिक विकास के बावजूद मानव इसके सामने बौना साबित होता है। इन प्राकृतिक आपदाओं का सीधा सम्बन्ध पर्यावरण से है। इन प्रकोपों का सिलसिला अनादिकाल से चला आ रहा है। आधुनिक काल में इनकी उत्पत्ति सम्बन्धी मान्यताओं में पर्याप्त मतभेद है। मानव सहित अन्य जीवों पर भी प्राकृतिक आपदाओं का प्रभाव पड़ता है। मानव संख्या और समृद्धि में अधिक वृद्धि के कारण इनका प्रभाव अधिक हानिकारक महसूस होने लगा है। पहले प्राकृतिक आपदाओं से कम धन-जन की हानि होती थी, क्योंकि पहले जनसंख्या कम थी और मनुष्य के पास इतने भौतिक व आर्थिक संसाधन नहीं थे।
यूनाइटेड नेशन्स डिजास्टर रिलीफ कोआर्डिनेटर (UNDRO) की एक रिपोर्ट के अनुसार, “दुनिया में घटित होने वाले प्राकृतिक प्रकोपों का 90% तीसरी दुनिया के देशों में मिलता है। प्राकृतिक प्रकोप राजनीतिक सीमाओं से परे होते हैं वे किसी समय कहीं पर घटित हो सकते हैं।
हाशीज्यूम (Hashizume) के अनुसार विकासशील देश दैवी प्रकोपों से प्रायः पीड़ित रहते हैं। वस्तुतः वे प्रकोपों के साथ रहते हैं। प्राकृतिक आपदाओं से विकासशील देशों में इतने अधिक आर्थिक हानि होती है कि विकासशील परियोजनाओं के अनुकूल परिणाम भी परिलक्षित नहीं हो पाते हैं बल्कि ये मटियामेट हो जाते हैं। इस शताब्दी के छठे दशक से नौवें दशक तक की अवधि में सर्वाधिक तबाही एवं विनाश भूकम्पों द्वारा हुआ है।
प्राकृतिक आपदाओं के प्रकार (Types of Natural Disaster)
प्राकृतिक आपदाओं को निम्न दो बड़े वर्गों में बाँटा जा सकता है-
आपदा प्रबन्धन एवं नियन्त्रण (Disaster Management and Control)
पूरे विश्व में प्राकृतिक आपदाओं से प्रतिवर्ष जानमाल की भारी क्षति होती है। संयुक्त राष्ट्र संघ के आँकड़ों के अनुसार विगत दो दशकों में तीन लाख लोग प्राकृतिक आपदाओं के कारण के मौत के शिकार हुए हैं और लाखों लोग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। इतना ही नहीं भारत में लगभग छह हजार किलोमीटर समुद्री तटवर्ती इलाकों में रहने वाले लोग प्रतिवर्ष कम-से-कम चार बार छोटे-बड़े तूफानी चक्रवातों का संकट झेलते हैं इससे इन लोगों की जिन्दगी तबाह हो जाती है। इसी प्रकार उत्तरी भारत में भी आने वाले भूकम्प से जान-माल की भारी तबाही होती है। हालांकि प्राकृतिक आपदाओं को टाला नहीं जा सकता है न ही कोई भविष्यवाणी की जा सकती है किन्तु कुछ उपायों को अपनाकर जानमाल के नुकसान को कम करने और तत्कालीन राहत संस्थाओं ने आपदा प्रबन्धन को गम्भीरता से लिया है। जिन देशों में आपदाओं की पूर्व सूचना देने वाले प्राकृतिक तंत्र और राहत कार्यक्रम मौजूद हैं वहाँ इनके कारण होने वाली तबाही कम हो जाती है लेकिन जिन देशों में तैयारी कम होती है और राहत कार्यक्रम काफी नहीं होते। वहाँ प्राकृतिक आपदाओं से बहुत विनाश होता है। विश्व बैंक के एक अनुमान के अनुसार भारत में प्राकृतिक आपदाओं के कारण जानमाल का नुकसान काफी ज्यादा होता है। विश्व बैंक के एक अनुमान के अनुसार भारत में प्राकृतिक आपदाओं के चलते देश के सकल घरेलू उत्पाद के दो प्रतिशत के बराबर नुकसान होता है। उससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन आपदाओं का प्रभाव गरीबों पर उनके अनुपात से ज्यादा पड़ता है।
प्राकृतिक प्रकोप तथा आपदा की दशा में विश्व के व्यापक परिवर्तनों का मापन तथा मानीटरिंग, प्रकोप तथा आपदा प्रबन्धन के अत्यधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं। इस कार्य के अन्तर्गत प्रकोप से प्रभावित होने वाले क्षेत्रों का विभिन्न स्तरों (विश्व स्तर, प्रादेशिक स्तर, स्थानीय स्तर) पर गहन अध्ययन किया जाता है तथा कई अन्य संगठनों ने प्राकृतिक प्रकोपों के अध्ययन के लिए कई शोध कार्यक्रम प्रारम्भ किए हैं। इन कार्यक्रम के अन्तर्गत प्राकृतिक प्रकोपों तथा आपदाओं की उत्पत्ति की क्रियाविधि, उनकी मानीटरिंग तथा उनके प्रभावों को कम करने के लिए उपयुक्त उपायों तथा तरीकों का अध्ययन किया जाता है। प्रकोपों तथा आपदाओं के शोध से, आपदाओं से उत्पन्न प्रभावों को कम करने के लिए चलाये गये निम्नलिखित कार्यक्रम हैं-
1. आई.जी. बी. पी. ने अन्तर्राष्ट्रीय शोध कार्यक्रम का अभियान चलाया। इस शोध कार्यक्रम के अन्तर्गत भौतिक पर्यावरण के स्थल मण्डलीय, सागरीय एवं वायु मण्डलीय संघटकों के अध्ययन पर अधिक बल दिया जाता है।
2. संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रमुख प्राकृतिक प्रकोपों तथा आपदाओं के अध्ययन तथा उनके मानव समाज पर पड़ने वाले विनाशकारी प्रभावों को कम करने के लिए उपायों एवं तरीकों का पता करने के लिए 1990-2000 दशक को घोषित किया है। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत भूकम्प, ज्वालामुखी, उद्भेदन, भू-स्खलन, सुनामी, बाढ़, चक्रवात, वनों में अग्निकाण्ड, टिड्डियों के झुण्ड का जनन तथा सूखे के अध्ययन को सम्मिलित किया गया।
3. पर्यावरणीय समस्याओं एवं प्राकृतिक प्रकोपों के अध्ययन के लिए सामाजिक वैज्ञानिकों ने एच.डी. जी.सी. नाम समानान्तर शोध कार्यक्रम चलाया। इस कार्यक्रम को आई.एस.एस.सी. नामक संगठनों से सहायता प्राप्त होती है।
4. आई.सी.एस.यू. ने सन् 1969 में स्कोप नामक समिति का निम्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए स्थापना की- (अ) पर्यावरण पर मनुष्य के तथा मनुष्यों पर पर्यावरण के प्रभावों से सम्बन्धित जानकारी में वृद्धि करना, (ब) सरकारी तथा गैर-सरकारी संगठनों को पर्यावरणीय समस्याओं से सम्बन्धित वैज्ञानिक सूचनायें एवं राय देना।
संयुक्त राष्ट्रसंघ की एजेंसी संयुक्त राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय आपदा न्यूनीकरण नीति (यूएनआईएसडीआर) ने 2005 में प्राकृतिक आपदाओं से सम्बन्धित ह्यूगो कार्यवाही रूपरेखा तैयार की जिस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किये हैं। इसमें आपदा जोखिम कम करने के लिए सामाजिक आर्थिक विकास नियोजन और 5 प्रकार की प्रक्रियाएँ अपनाने की पैरवी की गई है। ये प्रक्रियाएँ निम्नलिखित हैं-
1. राजनीतिक प्रक्रिया- इसके अन्तर्गत सभी देशों को ऐसी नीतियाँ और कानून तथा संस्थान विकसित करने हैं जो आपदा जोखिम कम करने में सहायक हों। इस कार्य के लिए संसाधन निर्धारित करें और राहत पहुँचाने की तैयारी करें।
2. तकनीकी प्रक्रिया- इसके अन्तर्गत प्राकृतिक आपदा से होने वाली तबाही के आकलन, पहचान और मॉनीटरिंग के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किया जाए और पूर्व सूचनातन्त्र विकसित किया जाए।
3. सामाजिक शैक्षणिक प्रक्रिया- इसका उद्देश्य नागरिकों में समझदारी और हर स्तर पर लचीलापन और सुरक्षा की भावना विकसित करना है।
4. विकास प्रक्रिया- इसका उद्देश्य विकास के हर सम्बद्ध क्षेत्र में आपदा जोखिम का एकीकरण और विकास के साथ नियोजन तथा कार्यक्रम बनाना है।
5. मानवीय प्रक्रिया- इसके अन्तर्गत आपदा के समय कार्यवाही एवं बचाव का काम करना शामिल है। भारत सरकार ने अगस्त 1999 से ही इनमें से कुछ पर तब काम शुरू कर दिया था जब जे. सी. पंत (भारत सरकार के पूर्व कृषि सचिव) तथा कुछ विशेषज्ञों एवं अधिकारियों को मिलाकर एक आपदा प्रबन्धन उच्चाधिकार प्राप्त समिति गठित की गई थी। इसे आपदा प्रबन्धन के क्षेत्र में संस्थागत सुधार के उपाय सुझाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। भारत के संघीय ढाँचे को ध्यान में रखते हुए इस समिति को यह अधिकार भी दिया गया कि वह राष्ट्रीय राज्य एवं जिला स्तरों पर व्यापक योजनाएँ तैयार करे। इनके गठन के कुछ ही समय पश्चात् समिति के कार्य क्षेत्र में वृद्धि की गई और इसमें मानवकृत आपदायें भी शामिल कर ली गई। इसमें रासायनिक, औद्योगिक, परमाणु और अन्य प्रकार की आपदायें शामिल हैं।
आपदा जोखिम घटाने के उपायों को स्कूलों एवं कॉलेजों के पाठ्यक्रमों में भी शामिल किया जाना चाहिए ताकि बच्चों में सुरक्षा की संस्कृति एवं निवारक उपायों के प्रति जागरुकता बढ़ाई जा सके। इसके अतिरिक्त में उपग्रह व्यवस्था बहुत सहायक सिद्ध होने लगी है। इसके माध्यम
से आपदा से पहले और बाढ़ की स्थिति का आकलन किया जा सकता है। इन क्षमताओं को ठीक समय पर उपर्युक्त फैसले करके और प्रभावशाली बनाया जा सकता है। इसलिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी, भू-विज्ञान और अन्तरिक्ष तथा आईएमडी, आईएनसीओआईएस, एनआरएससी और एसओआई जैसे संगठनों को आधुनिक उपकरणों और मानव कौशल से लैस करने की आवश्यकता है ताकि वे आपदाओं की सटीक जानकारी दे सकें। आपदा के समय परम्परागत रूप से हम राहत और बचाव के लिए तदर्थ आधार पर तुरन्त कदम उठाते हैं। राहत और बचाव के कार्य तदर्थ कार्यवाही नहीं कर सकते अपितु इनकी सोच-समझकर योजना बनाने की आवश्यकता है तथा विभिन्न घटनाओं का सामना करने के लिए मानक संचालन प्रक्रियाओं को ध्यान में रखना होगा जिनमें यह तय कर दिया गया हो कि एक विशेष परिस्थिति में किसको किस तरह का योगदान करना होगा। अगर राष्ट्रीय, राज्य, जिला, नगरपालिका और पंचायत स्तरों पर प्रभावशाली तन्त्र मौजूदा हो तो बड़े पैमाने पर जान-माल की सुरक्षा की जा सकती है और नुकसान कम किया जा सकता । आपदा प्रबन्धन के लिए एक और बात आवश्यक है। वह है आपदाओं के साथ जीने की कला का विकास। जापान के लोग आपदाओं के साथ जीने का अभ्यास करते हैं। सब जानते हैं कि जापान सबसे ज्यादा भूकम्प प्रभावित क्षेत्र है। विशेषकर जापान के इन इलाकों में भी लोग पूरे उत्साह से जीवन व्यतीत करते हैं जहाँ लगभग प्रत्येक वर्ष भूकम्प के झटके आते हैं।
प्राकृतिक प्रकोप और शिक्षा
मानव समुदाय द्वारा प्राकृतिक प्रकोपों और आपदाओं के साथ समायोजन के अन्तर्गत निम्नलिखित शैक्षिक कार्यों पर बल देना चाहिए-
1. प्राकृतिक प्रकोपों और आपदाओं के प्रति आम जनता की जागरुकता में वृद्धि।
2. प्राकृतिक प्रकोपों एवं आपदाओं की समय रहते चेतावनी की व्यवस्था।
3. प्राकृतिक प्रकोपों एवं आपदाओं के विषय में व्यक्तियों, मानव समाज संस्थाओं की मनःस्थिति प्रत्यक्षीकरण एवं बोध में परिवर्तन।
4. प्राकृतिक प्रकोपों तथा आपदाओं के संकट से निपटाने के लिए तैयारी की व्यवस्था आदि ।
5. भूमि उपयोग नियोजन, यथा-प्रकोप, प्रभावित क्षेत्रों का अभिनिर्धारण तथा सीमांकन करना एवं लोगों को उन क्षेत्रों में बसने के लिए निरुत्साहित करना।
6. बेहतर पुनर्वास और पुनर्निर्माण की व्यवस्था करना।
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