पर्यावरण चेतना में शिक्षक की भूमिका
पर्यावरण चेतना का प्रारम्भिक स्वरूप उसके उपयोग तक सीमित था लेकिन अब यह वर्तमान शताब्दी के उत्तरार्द्ध से प्रारम्भ होकर पर्यावरण चेतना के विभिन्न रूपों के अध्ययन से सम्बन्धित है। यह विश्वव्यापी अभियान के रूप में सिद्ध किये जाने की संकल्पना का रूप ले रही है। पर्यावरण के प्रति जागरूक बनाने वाले कार्यक्रमों में समाज में अधिकांश वर्ग के लोगों को पर्यावरण के सकारात्मक एवं नकारात्मक पक्षों के प्रति संवेदनशील बनाना प्रमुख अधिकार होना चाहिए। वास्तविकता यह है कि आबादी के अधिकतर पढ़े-लिखे लोग भी पर्यावरण को पूर्ण रूप से नहीं समझते हैं। वे पर्यावरण में पारिस्थितिकी असन्तुलन एवं प्रदूषण की परिस्थितियों से अपरिचित हैं तथा इनसे सम्बन्धित समस्याओं की जानकारी नहीं रखते हैं। जो लोग इन समस्याओं से परिचित हैं, वे इनके स्वरूप एवं गम्भीरता को भली-भाँति समझने की कोशिश नहीं करते। अतः पर्यावरण चेतना का सम्बन्ध संवेदनशीलता से है। जिसमें पर्यावरण के प्रति हमारी धारणा अर्थात् पर्यावरण को किस रूप में देखते हैं, पर्यावरण के प्रति कितने सचेष्ट हैं? इसकी जानकारी ज्ञात होती है। यह व्यक्ति के पर्यावरण के प्रति मानसिक अनुभूति का परिणाम है। अतः यह स्थायी न होकर परिवर्तित होती रहती है जिसके लिए उचित मार्गदर्शन प्रदान करना अत्यन्त आवश्यक होता है।
पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति जागृति एवं संवेदनशीलता के विकास से ही पर्यावरण चेतना का विकास किया जा सकता है जिसके लिए शिक्षक की अहम् भूमिका हो सकती है-
(1) पर्यावरण की आज की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए शिक्षक अपनी कक्षाओं द्वारा आयोजित शिक्षक के तहत् या पाठ्य सहगामी क्रियाओं के आयोजन की अवधि में पर्याप्त भूमिका निभा सकता है।
(2) पर्यावरण चेतना सम्बन्धी फिल्मों, निबन्धों, लेखों एवं रिपोर्टों को सूक्ष्मतापूर्वक जानने में वह छात्रों की सहायता कर सकता है।
(3) पर्यावरण चेतना में प्रदूषण एवं विकृतियों के रूपों को विश्लेषित एवं मूल्यांकन करने में शिक्षक का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।
(4) पर्यावरण चेतना गाँवों एवं शहरों में अभिभावकों तथा सामान्य लोगों के मध्य जाकर शिक्षक पर्यावरण चेतना उत्पन्न कर सकता है।
(5) अपने पर्यावरण के सकारात्मक एवं नकारात्मक पक्षों का गहन अध्ययन करने की दृष्टि से छात्र को विशेष सहायता अपने सम्बन्धित विषयों के शिक्षकों से हो सकती है।
(6) पर्यावरण चेतना में विशेष स्थानों के दृष्टान्तों का साक्षात्कार कराने में शिक्षक की अहम् भूमिका होती है।
भारत में पर्यावरण चेतना विकसित करने के लिए लगातार वृद्धि हुई है। अतः इसको एक जन आन्दोलन बनाना अत्यन्त आवश्यक है। पर्यावरण विषय को उचित जानकारी शिक्षकों द्वारा दी जा सकती है जिसका निराकरण निरक्षर लोगों में कराया जा सकता है।
इस दिशा में सरकारी और गैर-सरकारी प्रयासों को तीव्र करने की अत्यन्त आवश्यकता है। इसके साथ ही विषय को एक आन्दोलन के रूप में चलाया जाए। आधुनिक तकनीकी में दूरदर्शन जो जनसंचार का सशक्त साधन के रूप में उभरा है, उसके द्वारा पर्यावरण चेतना जागृति के लिए कार्यक्रम चलाये जायें तथा प्रचार-प्रसार के तरीकों में पर्यावरण की जागरूकता को ज्यादा महत्त्व दें जिससे यह जनमानस पर प्रभाव डाल सके एवं संवेदनशीलता विकसित की जा सके। अध्यापक शिक्षक का रूप अत्यधिक व्यापक होना चाहिए। पूर्व सेवा या सेवारत शिक्षकों को पर्यावरण चेतना एवं व्यावहारिकता का विकास किया जाये। औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा के कार्यक्रमों में पर्यावरण शिक्षा को सम्मिलित किया जाये।
संचार माध्यमों तथा दूरवर्ती शिक्षा का पर्यावरण शिक्षा में महत्त्वपूर्ण योगदान है। दूरवर्ती शिक्षा का एक शिक्षा के विकल्प के रूप में विकास हुआ है, जो अपेक्षाकृत मितव्ययी वैकल्पिक पद्धति है। इस प्रणाली को शिक्षक प्रशिक्षण में पर्यावरण शिक्षा को अनिवार्य पाठ्यक्रम के रूप में सम्मिलित किया जाये तथा सतत् शिक्षा के क्षेत्र में भी पर्यावरण की पाठ्य-वस्तु के महत्त्व को भी स्थान दिया जाना चाहिए।
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