विद्यालयों में पर्यावरण जागरूकता कार्यक्रम
शिक्षा संस्थाएँ पर्यावरण सुरक्षा में कार्यशाला के रूप में कार्य करती हैं क्योंकि मानव जीवन में बाल्यावस्था अर्थात् स्कूली शिक्षा का विशेष महत्त्व है। बालक सर्वप्रथम घर के बाद विद्यालयों से ही सीखता है। यदि बालक के प्रारम्भिक जीवन में उसके समुचित विकास की ओर उसके माता-पिता तथा अध्यापक उचित ध्यान दें तो वह एक प्रगतिशील एवं समाजोपयोगी नागरिक के रूप में विकसित हो सकता है। अध्यापक के इस उत्तरदायित्व को निभाने के लिए बालक के सर्वांगीण स्वास्थ्य के विकास का विद्यालयी वातावरण में अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले समस्त तत्त्वों का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए। विद्यालय ही भविष्य के निर्माण की कर्मस्थली होते हैं। विद्यालय में ही बालक में व्यवहार, आचरण, रुचियाँ आदि विकसित होती हैं तथा उन्हें एक दिशा मिलती है। अतः विद्यालयी कार्यक्रम पर्यावरणपरक होने चाहिए। बालकों में पर्यावरण शिक्षा के ज्ञान, कौशल तथा मूल्यों और अभिवृत्तियों के विकास में शिक्षकों की भी प्रभावी भूमिका होती है।
विद्यालयों में पर्यावरण जागरूकता के लिए बालक/विद्यार्थी और शिक्षक दोनों को निम्नलिखित का प्रशिक्षण बोध कराया जाना चाहिए-
(1) पर्यावरण क्या है?
(2) पर्यावरण की समस्याएँ।
(3) पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान।
(4) पर्यावरण संरक्षण का महत्त्व।
(5) पर्यावरण प्रदूषण और उसकी रोकथाम के उपाय।
शिक्षा संस्थाओं में पर्यावरण शिक्षा का कार्यक्रम छात्रों के स्तर के अनुसार निर्धारित किया जाना चाहिए। प्राथमिक, माध्यमिक और स्नातक स्तर पर पाठ्यक्रम निर्धारित किये जाने चाहिए।
प्राथमिक स्तर – प्राथमिक स्तर पर पर्यावरण सन्तुलन एवं संरक्षण की शिक्षा दी जानी चाहिए। बालकों को ऐसे ढंग से प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि वे अपने आस-पास के वृक्षों, फूलों, पशु-पक्षियों, नदी और पहाड़ियों को साधारण न समझें। उनके महत्त्व को जानते हुए उन्हें सुरक्षित रखने में अपना सहयोग दें। पर्यावरण संरक्षण की अभिवृत्तियों का विकास उनके संस्कारों में आरोपित करना होगा।
प्राथमिक स्तर पर पाठ्यवस्तु में भाषा, गणित और सामाजिक विषयों के माध्यम से पास-पड़ोस के पर्यावरण का ज्ञान दिया जाना चाहिए। विभिन्न जीव-जन्तुओं, पेड़, नदी, तालाब तथा मिट्टी की जानकारी देनी चाहिए।
उच्च प्राथमिक स्तर पर प्राकृतिक सन्तुलन क्या है? प्रकृति और मानव के बीच अनुकूलन स्थापित करना, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण, मनुष्य का भोजन, स्वास्थ्य और पर्यावरण का उस पर प्रभाव, जनसंख्या और पर्यावरण संकट और समाधान, हमारी फसलें, पेड़-पौधे, पृथ्वी, जल, वायु आदि के महत्त्व की जानकारी दी जानी चाहिए।
माध्यमिक स्तर – माध्यमिक स्तर पर पर्यावरणीय शिक्षा के लिए भारत सरकार ने पाठ्य पुस्तकों का निर्माण कराया है। इस स्तर के पाठ्यक्रम में निम्नलिखित प्रकरणों को शामिल किया गया है—
(1) जैविक और अजैविक पर्यावरण,
(2) पारिस्थितिक तन्त्र और उसकी समस्याएँ
(3) प्राकृतिक संसाधन-संरक्षण और उपयोग;
(4) कृषि उत्पाद;
(5) जनसंख्या वृद्धि और आर्थिक विकास;
(6) जल, वायु, मृदा, ध्वनि प्रदूषण;
(7) कुपोषण और अल्पपोषण से होने वाले रोग,
(8) सामाजिक वानिकी;
(9) पर्यावरण संरक्षण और सुरक्षा।
इनके अतिरिक्त माध्यमिक स्तर पर अन्य विषयों तथा जीव विज्ञान, भूगोल, नागरिकशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि विषयों के साथ भी पर्यावरण शिक्षा को जोड़ा गया है।
स्नातक स्तर- स्नातक स्तर पर भारत के विश्वविद्यालयों तथा कॉलेजों में पर्यावरण एवं पारिस्थितिकीय विषयों को शामिल किया गया है। रसायनशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, अभियान्त्रिकी, भूगोल, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र आदि विषयों के प्रश्न-पत्रों के रूप में पढ़ाया जाता है। भारत में सर्वप्रथम काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के वनस्पतिशास्त्र विभाग ने पर्यावरण विज्ञान की शिक्षा प्रारम्भ की। वर्तमान में कई विश्वविद्यालयों में पर्यावरण शिक्षा दी जा रही है।
इस समय देश में 20 इंजीनियरिंग कॉलेजों में पर्यावरण स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है। इसकी पाठ्यचर्या में पर्यावरण विज्ञान, पर्यावरण शिक्षा, प्रदूषण नियन्त्रण, पारिस्थितिकीय तथा प्रकृति के स्रोतों की जानकारी आदि प्रमुख विषयों का समावेश किया गया है।
इस प्रकार शिक्षा संस्थाओं में पर्यावरण जागरूकता के लिए शिक्षण को पर्यावरण उन्मुखी बनाया गया है।
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