पर्यावरणीय घटकों की सान्द्रता में होने वाला परिवर्तन ही प्रदूषण है। वातावरणीय प्रदूषण, आधुनिक सभ्यता, जो भौतिक प्रगति पर आश्रित है, का नतीजा है। प्रकृति के मूलभूत नियमों की अवहेलना, वातावरण का दुरुपयोग, अतिशीघ्र उन्नति के विभिन्न घटकों के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में होने वाले अवांछनीय परिवर्तन हैं जो जैवमण्डल को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते हैं।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि मनुष्य वातावरण क्षय के लिए स्वयं जिम्मेदार है। उसने के द्वारा पृथ्वी तथा पर्यावरण के स्वरूप को हर क्षेत्र में परिवर्तित कर दिया है। मनुष्य अपने प्रदूषण भावी पीढ़ियों के लिए पर्यावरण को तभी संरक्षित रख सकता है जबकि वह पर्यावरण से सहयोग करे। मनुष्य ऐसा कर सकता है क्योंकि प्रकृति ने उसे एक विस्तृत मस्तिष्क वरदानस्वरूप दिया है। अगर वह पर्यावरण का सही उपयोग नहीं कर सका तो अपने ही हाथों स्वयं तथा प्रकृति का विनाश कर लेगा।
पर्यावरणीय प्रदूषण का अर्थ एवं परिभाषा
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मानव पर्यावरण सम्मेलन में पर्यावरणीय प्रदूषण को इस प्रकार परिभाषित किया गया – “प्रदूषक वे पदार्थ हैं जो अनुचित स्थान पर, अनुचित समय पर, अनुचित मात्रा में मानव द्वारा विसर्जित किये जाते हैं। इनसे प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से मानव के स्वास्थ्य और उसके संसाधनों को हानि होती है। प्रदूषण मानव की वांछित गतिविधियों का अवांछित प्रभाव है।”
लॉर्ड केनेट के अनसार, “पर्यावरण में उन तत्त्वों या ऊर्जा की उपस्थिति को प्रदूषण कहते हैं, जो मनुष्य द्वारा बिना चाहे उत्साहित किये गये हों जिनके उत्पादन का उद्देश्य अकथनीय हानिकारक प्रभाव पड़ता हो ।”
दासमान के मतानुसार, “उस दशा या स्थिति को प्रदूषण कहते हैं, जब मानव द्वारा पर्यावरण में विभिन्न तत्त्वों एवं ऊर्जा का इतनी अधिक मात्रा में संचय हो जाता है कि वे पारितन्त्र द्वारा आत्मसात करने की क्षमता से अधिक हो जाते हैं।”
“वस्तुओं के उत्पादन एवं उपभोग के प्रत्येक चरण में अवशिष्ट पदार्थों का जनन होता है। ये अपशिष्ट पदार्थ उस समय प्रदूषक का पर्यावरणीय समस्या होते हैं जबकि उनका वायुमण्डलीय, महासागरीय या पार्थिव पर्यावरण पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है।” — Massachusatts Institute of Technology (MIT), 1970
“मनुष्य के क्रिया-कलापों से उत्पन्न अपशिष्ट उत्पादों के रूप में पदार्थों एवं ऊर्जा के विमोचन से प्राकृतिक पर्यावरण में होने वाले हानिकारक परिवर्तनों को प्रदूषण कहते हैं।” —National Environmental Research Institute (NERI), 1976
ओडम के अनुसार, “प्रदूषण हवा, जल एवं मिट्टी के भौतिक, रासायनिक एवं जैविकीय गुणों में एक ऐसा अवांछनीय परिवर्तन है, जिससे कि मानव जीवन, औद्योगिक प्रक्रियाएँ, जीवन दशाएँ तथा सांस्कृतिक तत्त्वों की हानि होती है अथवा हमारे कच्चे माल की गुणवत्ता घटती है।”
एम.डी. डेकन के मतानुसार, “प्रदूषण के अन्तर्गत मनुष्य एवं उसके पालतू मवेशियों के उन समस्त इच्छित एवं अनिश्चित कार्यों तथा उनसे उत्पन्न प्रभावों एवं परिणामों को सम्मिलित किया जाता है जो मनुष्य को अपने पर्यावरण से आनन्द एवं पूर्ण लाभ प्राप्त करने की क्षमता को कम करते हैं।”
प्रदूषक- वे कारक जो प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं, प्रदूषक कहलाते हैं। वास्तव में प्रदूषक विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हमारे द्वारा बनाये गये, प्रयोग में लाये गये और फेंके गए अनेक पदार्थों के वे अवशेष हैं जो वातावरण को किसी न किसी रूप में प्रदूषित करते हैं। प्रदूषकों को उनकी प्रवृत्ति के आधार पर निम्न दो भागों में बाँटा गया है-
1. निम्नकरणीय प्रदूषक – वे प्रदूषक जिन्हें सूक्ष्म जीवों द्वारा अपेक्षाकृत कम हानिकारक या अहानिकारक पदार्थों में अपघटित किया जा सकता है, निम्नकरणीय प्रदूषक कहलाते हैं। इस श्रेणी में कार्बनिक पदार्थ जैसे— लकड़ी, मलमूत्र, कूड़ा-करकट इत्यादि आते हैं।
2. अनिम्नकरणीय प्रदूषक- ये वे प्रदूषक हैं जिनका अपघटन सूक्ष्म जीवों द्वारा नहीं हो पाता है। यदि अपघटन होता भी है तो बहुत कम मात्रा में। इस श्रेणी में अकार्बनिक पदार्थ आते हैं जैसे—प्लास्टिक, एल्यूमिनियम, काँच, कीटनाशकों व कवकनाशकों के अवशेष इत्यादि।
कुछ प्रमुख प्रदूषक निम्नलिखित हैं
1. सल्फर ऑक्साइड
2. फ्लोरीन ऑक्साइड
3. क्लोराइड, ब्रोमाइड एवं आयोडीन।
4. सल्फ्यूरिक अम्ल।
5. एकत्र त्याज्य सामग्री कालिख, धुआँ, टांर, धूल।
6. कार्बन मोनो ऑक्साइड गैस।
7. हाइड्रोजन सल्फाइड
8. कार्बनिक प्रदूषक–बेन्जाइन, बेन्जप, ऐसीटिक अम्ल आदि।
9. धातु — काँसा, लोहा, जिंक, क्रोमियम, एस्बेस्टस के कण ।
10. कीटनाशक, शाकनाशक, फंगस इत्यादि।
11. प्रकाश जनित रसायन- ऑक्सीकारक, फोटो कैमिकल स्मोग
ओजोन, पेराऑक्सीसेटाइल नाइट्रेट्स, नाइट्रोजन ऑक्साइड, अल्डेहाइड्स आदि ।
जीवमण्डल एक विशाल एवं जटिल ईकोतन्त्र है जिसमें अनेक छोटे-छोटे ईकोतन्त्र पाये जाते हैं। ईकोतन्त्र में जीवों तथा पर्यावरण के बीच सन्तुलन रहता है। कुछ सीमा तक पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों को तुरन्त स्थिर करने की क्षमता ईकोतन्त्र में होती है परन्तु जब कोई जीव विशेष अपनी सुख-सुविधाओं के लिए पर्यावरण के किसी विशेष घटक का अधिक उपभोग कर उसे असन्तुलित रूप में रूपान्तरित कर देता है जिससे पूरा पर्यावरण प्रभावित होता है इसको प्रदूषण कहा जाता है। एक मत के अनुसार, “प्रदूषण जीवों के चारों तरफ की वायु, जल तथा पृथ्वी के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक लक्षणों में होने वाला ऐसा अवांछनीय परिवर्तन है, जो मानव जीवन पर, औद्योगिक प्रगति पर, आवास के हालात पर तथा सांस्कृतिक मूल्यों पर दूषित प्रभाव डाल रहा है।”
“मनुष्य पर्यावरण का सबसे बड़ा शत्रु है। इसके क्रिया-कलापों द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण में होने वाले प्रतिकूल फेर-बदल को प्रदूषण कहते हैं।”
प्रदूषकों के मुख्य प्रभाव
1. पर्यावरण में असन्तुलन से जीवों जैविक क्रियाओं में कठिनाई होना।
2. प्राकृतिक विपदाओं का होना।
3. मानव के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव होना।
4. प्रदूषण नियन्त्रण, रोग नियन्त्रण आदि पर धन का अपव्यय होना।
5. पर्यावरण के असन्तुलन से मानव उपयोगी इमारतें, धातु, कपड़ा आदि की हानि होना।
6. जीवन का असुरक्षित होना।
7. मृत्यु दर में वृद्धि होना।
8. प्राकृतिक असन्तुलन-जीवों के लिए जल, वायु, भूमि आदि में हानिकारक परिवर्तन होना।
9. जीव उपयोगी पदार्थों के स्रोतों की हानि ।
10. भोज्य पदार्थ देने वाली फसलों की हानि होना ।
11. प्राकृतिक चक्र के असन्तुलित होने से वर्षा, गर्मी तथा सर्दी की ऋतुओं तथा समय चक्र में परिवर्तन होना।
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