पर्यावरणीय शिक्षा की आवश्यकता
जनसंख्या की अधिकता गरीबी को बुलावा देती है और गरीबी जन्मदाता है प्रदूषण का। इस बात की सच्चाई का पता हम अपने आस-पास बसने वाले निवासियों के बारे में जानकारी प्राप्त कर लगा सकते हैं दो चार ऐसे परिवार का पता लगायें कि उनके परिवार में कितने लोग हैं। उनकी आर्थिक स्थिति कैसी है? अगर हम गहराई में जाते हैं तो पता चलता है कि जिस परिवार में बच्चों की संख्या ज्यादा है वहाँ गरीबी है। गरीबी की हालत वाले लोग सामान्यतः झुग्गी-झोंपड़ी एवं ऐसी जगह रहते हैं जहाँ गंदगी का साम्राज्य रहता है। ऐसी जगह में न बच्चों की देखभाल की जाती है न ही आसपास की सफाई की जाती है। वहाँ खुलेआम गंदगी फैलाई जाती है जिससे विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ फैलती हैं जिससे बच्चों की मृत्यु तक हो जाती है पर अशिक्षा एवं अज्ञानता की वजह से महिलाएँ आपस में एक-दूसरे पर दोषारोपण करती हैं कि मेरे बच्चों को नजर लगा दी, इत्यादि ।
इसी प्रकार से अगर हम स्थानीय पर्यावरण या परिवार से लेकर विश्व के गरीब देशों को भी देखें तो पता चलता है कि गरीबी विभिन्न प्रकार की समस्याओं को जन्म देती हैं। इन समस्याओं की वजह से आज विश्व में सभी तरफ हाहाकार मचा हुआ है। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण और सबसे बढ़कर नैतिक प्रदूषण ने जीना हराम कर दिया है। आज हम चोरी, डकैती, भ्रष्टाचार, व्यभिचार एवं आतंकवाद जैसी बुराइयों से इस कदर घिर गये हैं कि इससे मुक्ति पाना असंभव लग रहा है। पर्यावरण के जैविक एवं अजैविक घटकों के बीच असंतुलन की इस स्थिति में सुखी जीवन की कल्पना * मुश्किल है। सुखी और स्वस्थ जीवन के लिए आज पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो गई है जिसके माध्यम से हम जनसामान्य इस बात के लिए प्रेरित कर सकते हैं कि वो न सिर्फ स्थानीय बल्कि विश्व स्तर पर पर्यावरण के घटकों, उसकी समस्याओं और उसके समाधान के लिए प्रयास करें। इस संदर्भ में पर्यावरण शिक्षा देने की महती आवश्यकता है, जिसे हम निम्न बिन्दुओं के माध्यम से समझ सकते हैं-
जनसंख्या विस्फोट की वजह से प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ता जा रहा है और ये प्राकृतिक से संसाधन पर्यावरण का ही हिस्सा हैं। अतः जहाँ प्राकृतिक संसाधनों का विनाश हो रहा है वहीं पर्यावरण भी प्रभावित हो रहा है। परिणामस्वरूप पर्यावरण के जैविक एवं अजैविक घटकों के बीच असंतुलन बढ़ता जा रहा है जिससे हम मनुष्यों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। जनसंख्या की आवश्यकता की पूर्ति के लिए-
(i) वनों का विनाश हो रहा है क्योंकि वनों को काटकर आवास के लिए गाँवों एवं शहरों का विस्तार किया जा रहा है।
(ii) रेल मार्ग, सड़क मार्ग एवं हवाई मार्ग का निर्माण किया जा रहा है।
(iii) लकड़ियों के लिए वनों के वृक्षों को काटा जा रहा है।
(iv) लोगों को रोजगार दिलाने के नाम पर एवं विकास और प्रगति के लिए औद्योगिक क्षेत्रों में वृद्धि की जा रही है, औद्योगिकी इकाइयों की स्थापना की जा रही है जिससे न सिर्फ वायु प्रदूषित हो रही है बल्कि औद्योगिक अपशिष्टों की वजह से जल यानि गंगा, यमुना जैसी नदियाँ भी प्रदूषित हो रही हैं।
(v) खनिजों के नाम पर खनन कार्यों को बढ़ावा दिया जा रहा है जिससे पर्यावरण के अजैविक तत्त्व का विघटन हो रहा है और खनन कार्य में प्रयुक्त उपकरणों एवं विस्फोटक पदार्थों से पर्यावरण प्रदूषित हो रही है।
(vi) विकास एवं प्रगति के नाम से हमने पर्यावरण के सभी घटकों के संतुलन को बिगाड़ कर रख दिया है। आज हर जगह कचरा, औद्योगिक अपशिष्ट, वाहनों का धुंआ, रेडियोधर्मी पदार्थ, नाभिकीय अस्त्र की निशानी के रूप में हमारे अस्तित्व के विनाशक के रूप में उपस्थित हैं।
(vii) ऊर्जा के स्रोत जो हमारी मूलभूत आवश्यकताएँ हैं, समाप्ति के कगार पर हैं।
(vii) जीवनदायिनी नदियाँ प्रदूषण तले अपना अस्तित्व खोती जा रही हैं।
(ix) संवेदनाओं के स्थान पर मशीनों का बोलबाला हो रहा है। फलतः लोगों की संवेदनशीलता खो रही है जिससे नैतिक प्रदूषण जैसे भ्रष्टाचार, पक्षपात, आतंकवाद, हत्या इत्यादि विश्वस्तर की समस्या बन चुकी है।
(x) वनस्पति जगत् के अंधाधुन्ध विनाश से जैविक विविधता संकट में है जो प्रकृति के चक्र को संतुलित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। वर्षा की मात्रा में निरन्तर कमी आ रही है। भूमि क्षरण में वृद्धि हो रही है। प्राणवायु की कमी से जनजीवन विभिन्न प्रकार की व्याधियों से ग्रस्त हो रहा है। ग्रीन हाउस प्रभाव में निरन्तर वृद्धि हो रही है। जलवायु परिवर्तित हो रही है
जनसंख्या वृद्धि की वजह से पृथ्वी जो सौरमण्डल का एक अनोखा ग्रह है जिस पर जीवन संभव है, उसके नष्ट होने की संभावना बलवती होती जा रही है। अतः जरूरी है कि पृथ्वी और इस पर निवास करने वाली मानवीय सभ्यता और संस्कृति को बचाने के लिए प्रयास किये जायें क्योंकि हमें ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि पर्यावरण का सही ज्ञान एवं समझ न होने की वजह से पहले भी अनेक सभ्यतायें एवं संस्कृतियाँ हमेशा के लिए नष्ट हो गयी थीं। ऐसा विश्वास है कि बाढ़ की विभीषिका से हड़प्पाकालीन सभ्यता को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचा था। बेबीलोन, ह्वांगहो एवं सिन्धु आदि नदी घाटी सभ्यताओं को भी बाढ़ से ही हानि पहुँची थीं। सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ जहाँ हमने अपने जीवन को सुखमय बनाने के लिए सुख-सुविधाओं को अपने चरणों की दासी बनाया, वहीं हमने उस पर्यावरण को, जिस पर हम निवास करते हैं, बुरी तरह विघटित किया है। विघटन की वजह से उत्पन्न समस्याओं की वजह से पर्यावरण को जानने-समझने की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। आज विश्व के सभी देश अपने देशवासियों को पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ाने में व्यस्त हैं। पर्यावरण जागरूकता के इसी क्रम में हमारे देश भारत में परम्पराओं और रीति-रिवाजों के माध्यम से पर्यावरण के विभिन्न तत्त्वों को देवी-देवताओं से सम्बन्धित कर दिया गया था। जैसे—प्रकृति के कण कण में परमात्मा का निवास है, प्रत्येक जीवों में ईश्वर का निवास होता है। तरु देवो भवः, वरुण (वर्षा के देव) देवता, अग्नि देवता, वायु देवता, धरती माता, सूर्य देव, चन्द्र देव इत्यादि पर्यावरण प्रेम की परिचायक हैं। वर्तमान समय में दिन-प्रतिदिन बढ़ते प्राकृतिक प्रकोप से बचने के लिए, पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान के लिए और पर्यावरण संरक्षण के लिए पर्यावरण शिक्षा की महती आवश्यकता है।
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