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संचार का अर्थ एवं परिभाषाएं | प्रशासन में संचार का महत्व

संचार का अर्थ एवं परिभाषाएं
संचार का अर्थ एवं परिभाषाएं

संचार का अर्थ एवं परिभाषाएं

संचार को संवहन या सन्देशवाहन के नाम से भी पुकारा जा सकता है। अंग्रेजी शब्द कम्युनिकेशन की उत्पत्ति लेटिन भाषा के ‘कम्यूनिस’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है ‘सामान्य’ (Common) प्रेषक अपने प्रापक के साथ सामान्य समझ स्थापित करना चाहता है।

‘संचार’ शब्द में विचारों का आदान-प्रदान, विचारों की साझेदारी तथा भांग लेने की भावना सम्मिलित है। थियो हेमेन के अनुसार, “संचार एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को सूचनाएं एवं समझ हस्तान्तरित करने की प्रक्रिया है।” न्यूमैन एवं समर के अनुसार, ‘संचार दो या दो से अधिक व्यक्तियों के तथ्यों, विचारों, सम्पत्तियों अथवा भावनाओं का पारस्परिक आदान-प्रदान है।’ एफ़ जी. मेयर के शब्दों में, ‘मानवीय विचारों और सम्पत्तियों को शब्दों, पत्रों एवं सन्देशों के माध्यम से आदान-प्रदान ही संचार है।’ लुई ए. ऐलन के अनुसार, ‘संचार एक व्यक्ति के मस्तिष्क को दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क से जोड़ने वाला पुल है। इसके अन्तर्गत कहने, सुनने तथा समझने की एक व्यवस्थित एवं अनवरत प्रक्रिया सम्मिलित है।’ संक्षेप में, ‘संचार एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को सन्देश देने एवं पारस्परिक समझ उत्पन्न करने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया लिखित एवं मौखिक शब्दों द्वारा ही सन्देश एवं समझ का विनिमय नहीं करती है, अपितु संकेतों, हाव भावों तथा मौन द्वारा ही विनिमय करती है।’ संचार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, चेतन एवं अचेतन रूप से सम्प्रेषित भावनाओं, प्रवृत्तियों व इच्छाओं का योग है।

संचार प्रणाली

संचार प्रणाली अथवा यन्त्र में मुख्यतः निम्नलिखित पक्षों पर विचार करते हैं, जो कि इसका निर्माण करते हैं: (1) संचार की विषय-सामग्री, (2) संचार की विधि, और (3) संचार प्रक्रिया।

( 1 ) संचार की विषय सामग्री- संचार की विषय-सामग्री में इस बात पर विचार जाता है कि किसका संचार किया जाना है अर्थात् सन्देश क्या है जिसे प्रेषित करना है। प्रशासन में जिन उद्देश्यों अथवा कार्यों को ध्यान में रखकर संचार कार्य किया जाता है, वे हैं: (i) निदेश तथा आदेश, (ii) सूचना तथा विचार, (iii) तथ्य एवं सम्मतियां, (iv) मनोवृत्तियां तथा भावनाएं।

( 2 ) संचार की विधि – संचार की विधि के अन्तर्गत इस बात का निश्चय किया • जाता है कि संचार कैसे किया जाये। संचार की विधियों में सामान्यतः निम्न चार विधियों को सम्मिलित किया जा सकता है: (i) बोलना या कहना, (ii) लिखना, (iii) आचरण करना, (iv) सुनना।

( 3 ) संचार प्रक्रिया – संचार प्रक्रिया में इस बात पर विचार किया जाता है कि संचार की प्रक्रिया कैसी हो और उस प्रक्रिया में भाग लेने वाले व्यक्ति सन्देश के प्रेषक में कौन से कार्य करें? संचार प्रक्रिया के प्रमुख तत्व हैं: (i) प्रेषक, (ii) संकेतीकरण, (iii) संदेश, (iv) माध्यम, (v) प्रापक, (vi) संकेताथीरकरण, तथा (vii) सन्देश प्राप्ति।

(1) प्रेषक – संचार की शुरूआत प्रेषक से होती है। वह संचार का पहलकर्ता है। उसे संवाद का स्रोत भी कहा जा सकता है। प्रेषक के पास विचार, सूचनाएं, मनोवृत्तियां, मूल्य आदि होते हैं जिसे वह प्रापक के साथ साझा करना चाहता है।

(2) संकेतीकरण- इस प्रक्रिया में अगला कदम संकेतीकरण है। इसका आशय प्रेषक द्वारा सन्देशों को प्रतीकों में बदलना है। प्रेषक अपने विचारों को शब्दों, चित्रों, रेखाचित्रों, आकृतियों अथवा संकेतों में व्यक्त कर सकता है। संकेतीकरण या कूटाभिव्यक्ति इसलिए आवश्यक है कि सिर्फ प्रतीकों के द्वारा ही सूचनाओं का विनिभय हो सकता है।

(3) सन्देश – कूटाभिव्यक्ति की प्रक्रिया का परिणाम सन्देश होता है। सन्देश मौखिक या अमौखिक हो सकता है। सन्देश उस रूप में हो सकता है जिस रूप में प्रापक उसे समझ सके।

(4) माध्यम- माध्यम सन्देश का वाहक होता है। प्रबन्धक के सम्मुख विभिन्न प्रकार के के माध्यम उपलब्ध होते हैं, जैसे आमने-सामने, टेलीफोन, आदेश, नीति वक्तव्य, पुरस्कार प्रणाली, समूह बैठक, आदि।

(5) संकेतार्थीकरण- जब सन्देश प्रापक के पास पहुंच जाता है तब वह इसका संकेतार्थीकरण या कूटानुवाद करता है। वह इसका भाष्य करता है, इसका अर्थ लगाता है और इसके उद्देश्य को समझता है। यदि प्रापक सन्देश को उसी अर्थ में समझ लेता है जो प्रेषक का है तो यह कहा जा सकता है कि संचार की प्रक्रिया प्रभावी है।

(6) सन्देश प्राप्ति या प्रतिपुष्टि- सन्देश प्राप्ति की पुष्टि या प्रतिपुष्टि से पता चलता है कि प्रेषित सन्देश का प्रापक पर क्या प्रभाव पड़ा है। प्रतिपुष्टि संचार प्रक्रिया का विलोम होता है। इसमें प्रापक प्रेषक बन जाता है। उपर्युक्त सभी तत्व मिलकर संचार प्रक्रिया को निर्मित करते हैं।

प्रशासन में संचार का महत्व

प्रशासन द्विमार्गीय यायायात के समान है और प्रभावी संचार आवश्यकता अनुभव करता है। प्रभावी संचार के अभाव में प्रबन्ध की कल्पना तक नहीं की जा सकती। प्रशासन में संचार के महत्व को स्वीकारते हुए एल्विन डाड लिखते हैं कि ‘संचार प्रबन्ध की मुख्य समस्या है।’ थियो हेमेन का कहना है कि ‘प्रबन्धकीय कार्यों की सफलता कुशल संचार पर निर्भर करती है।” जॉर्ज आर टेरी के शब्दों में, संचार उस चिकने पदार्थ का कार्य करता है जिससे प्रबन्ध प्रक्रिया सुगम हो जाती है। हैण्डरसन सुओजानिन के अनुसार, ‘अच्छा संचार प्रबन्ध के एकीकृत दृष्टिकोण हेतु बहुत महत्वपूर्ण है।’ ‘संचार संगठन को बांधे रखता है।’ ‘सम्प्रेषण के अभाव में कोई संगठन नहीं हो सकता।’ प्रशासन में संचार के महत्व को निम्न बिन्दुओं के सन्दर्भ में भली प्रकार आंका जा सकता है।

1. नियोजन एवं संचार- नियोजन प्रशासन का अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं प्राथमिक कार्य है। प्रशासन की सफलता कुशल नियोजन के प्रभावी क्रियान्वयन पर निर्भर करती है। ‘संचार’ योजना के निर्माण एवं उसके क्रियान्वयन दोनों के लिए अनिवार्य है। कुशल नियोजन हेतु अनेक प्रकार की आवश्यकता एवं उपयोगी सूचनाओं, तथ्यों एवं आंकड़ों और कुशल क्रियान्वयन हेतु आदेश, निदेश एवं मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है।

2. संगठन एवं संचार – प्रशासन का दूसरा प्रमुख कार्य संगठन है। अधिकार एवं दायित्वों का निर्धारण एवं प्रत्यायोजन करना और कर्मचारियों को उनसे अवगत कराना संगठन के क्षेत्र में आते हैं। ये कार्य भी बिना संचार के असम्भव हैं। चेस्टर आई. बर्नार्ड के शब्दों में, “संचार की एक सुनिश्चित प्रणाली की आवश्यकता संगठनकर्ता का प्रथम कार्य है।”

3. उत्प्रेरण एवं संचार – प्रबन्धकों द्वारा कर्मचारियों को अभिप्रेरित किया जाता है। इसके लिए भी संचार की आवश्यकता पड़ती है। पीटर एफ, ड्रकर के शब्दों में, ‘सूचनाएं प्रबन्ध का एक विशेष अस्त्र है। प्रबन्धक व्यक्तियों को हांकने का कार्य नहीं करता वरन् वह उनको अभिप्रेरित, निर्देशित और संगठित करता है। ये सभी कार्य करने हेतु मौलिक अथवा लिखित शब्द अथवा अंकों की भाषा की उसका एकमात्र औजार होती है।’

4. समन्वय एवं संचार- समन्वय एक समूह द्वारा किये जाने वाले प्रयासों को एक निश्चित दिशा प्रदान करने हेतु आवश्यक होता है। न्यूमैन के “अच्छा संचार समन्वय अनुसार, में सहायक होता है।” मेरी कुशिंग नाइल्स लिखती है कि ‘समन्वय हेतु अच्छा संचार अनिवार्यता है।’ चेस्टर आई, बर्नार्ड के शब्दों में, ‘संचार वह साधन है जिसके द्वारा किसी संगठन में व्यक्तियों को एकसमान उद्देश्य की प्राप्ति हेतु परस्पर संयोजित किया जा सकता है।’

5. नियन्त्रण एवं संचार- नियन्त्रण द्वारा प्रबन्धक यह जानने का प्रयास करता है कि कार्य पूर्व-निश्चित योजनानुसार हो रहा है अथवा नहीं? इसके अतिरिक्त, वह त्रुटियों एवं विचलनों को ज्ञात कर यथाशीघ्र ठीक करने और उनकी पुनरावृत्ति को रोकने का प्रयास करता है। ये सभी कार्य बिना कुशल संचार प्रणाली के असम्भव हैं।

6. निर्णयन एवं संचार- सही निर्णय लेने हेतु प्रबन्धकों को सही समय पर सही एवं पर्याप्त सूचनाओं, तथ्यों एवं आंकड़ों का ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य होता है। यह कार्य भी बिना प्रभावी संचार प्रणाली के सम्भव नहीं होता।

7. प्रभावशीलता– प्रभावी सेवाएं उपलब्ध करने के लिए जरूरी है कि स्टाफ के सदस्यों के बीच विचारों का मुक्त आदान-प्रदान बना रहे। किसी संगठन की प्रभावशीलता इसी बात पर निर्भर होती है कि वहां के कर्मचारी आपस में विचारों का कितना आदान-प्रदान करते हैं और वे एक-दूसरे की बात कितनी समझते हैं।

8. न्यूनतम व्यय पर अधिकतम उत्पादन- समस्त विवेकशील प्रबन्धकों का लक्ष्य अधिकतम, श्रेष्ठतम व सस्ता उत्पादन करना होता है। पुराने जमाने में छोटे पैमाने पर उत्पादन होता था। उस समय कर्ता बड़ी आसानी से कार्य करने वालों को आदेश व निदेश दे सकता था। किन्तु बड़े पैमाने पर उत्पादन करने वाले आधुनिक संगठनों में काम करने वालों तथा काम लेने वालों के मध्य यह घनिष्ठता नहीं है। श्रमिकों, स्वामियों तथा प्रबन्धकों के बीच आजकल गहरी खाई है जिसको पाटने में ‘सन्देशवाहन’ बहुत सहायक सिद्ध हुआ है।

संगठन का कोई भी स्वरूप हो- विभागीय अथवा क्रियात्मक- आजकल सूचनाएं त्र आदेश विभिन्न कर्मचारियों द्वारा होकर श्रमिकों तक पहुंचते हैं, अतः प्रत्येक स्तर पर यह आशंका बनी रहती है कि सूचनाओं को समझने में कहीं भ्रम न हो जाये । उत्पादनकता को बढ़ाने के लिए यह भी आवश्यक है कि कर्मचारियों में किसी प्रकार का भ्रम अथवा मतभेद न हो, सभी में परस्पर सद्भाव होना चाहिए। केवल श्रेष्ठतम मानव, मशीन व माल के समूह से उत्पादकता बढ़ नहीं सकती। उत्पादकता की वृद्धि हेतु कर्मचारियों को यह स्पष्ट बता देना चाहिए कि प्रत्येक को क्या कार्य करना है एवं कार्य के निष्पादन के लिए उन्हें आवश्यक निदेश भी देने चाहिए। इस कार्य में सन्देशवाहन ही सहायक होता है जो अधिक से अधिक महत्वपूर्ण होना चाहिए।

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