राजनीति विज्ञान / Political Science

संगठन का अर्थ एवं परिभाषा | संगठन के मुख्य सिद्धान्त

संगठन का अर्थ एवं परिभाषा
संगठन का अर्थ एवं परिभाषा

संगठन का अर्थ एवं परिभाषा

सामान्य अर्थ में किसी कार्य को योजनाबद्ध ढंग से करना ही संगठन है। कार्य आरम्भ करने से पहले उसको भली प्रकार से नियोजन कर लिया जाये, इसी को संगठन कहते हैं। प्रशासनिक अर्थ में संगठन का अभिप्राय कर्मचारी वर्ग के कार्यों तथा उत्तरदायित्वों की ऐसी व्यवस्था से है, जिसमें उन सामान्य और निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति हो सके, जिनके लिए वे परस्पर साथ-साथ काम करने के लिए एकत्रित हुए थे। किन्हीं भी उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए योजनाबद्ध ढंग से कार्य किया जाता है। कार्यों और साधनों की इस पूर्वयोजना को ही संगठन कहा जाता है।

संगठन की कुछ प्रमुख विद्वानों ने निम्नलिखित परिभाषाएँ की हैं-

1. एल. व्हाइट (L. White)–“संगठन का अर्थ कर्मचारियों की उस व्यवस्था से है, जो निश्चित किये हुए विषयों की प्राप्ति के लिए कार्यों एवं उत्तरदायित्वों को विभाजित करके की जाती है।”

2. लूथर गुलिक (Luther Gullick)– “संगठन एक औपचारिक ढाँचा है, जिसके किसी निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विभागीय कार्यों को क्रमबद्ध किया जाता है और उनका द्वारा समन्वय किया जाता है।”

3. एम. मार्क (M. Mark) “संगठन उस ढाँचे से सम्बन्धित है, जो सरकार में प्रमुख कार्यपालिका एवं उसके प्रशासकीय अधीनस्थों तक विकसित है।”

4. उरविक (Urwick)– “संगठन का अर्थ उन क्रियाओं का निर्धारण करना है, जो किसी भी कार्य अथवा योजना के लिए आवश्यक हो और उनको ऐसे वर्गों में क्रमबद्ध करना है। कि वे विभिन्न व्यक्तियों को सौंपे जा सके।”

संगठन के मुख्य सिद्धान्त

लोक प्रशासन का सारा ढाँचा ही सक्षम, सक्रिय और कुशल संगठन पर टिका हुआ है। अच्छे संगठन को स्थापित करने के लिए विभिन्न सिद्धान्त विद्वानों ने दिये हैं। प्रशासकीय संगठन के सिद्धान्तों के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। विद्वानों ने अपने मतानुसार विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। प्रसिद्ध विद्वान् पिफनर ने अपने मतानुसार संगठन के निम्नलिखित सिद्धान्त बतलाये हैं-

1. पदसोपान या क्रमिक प्रक्रिया का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार संगठन में सबसे ऊपर एक प्रधान होना चाहिये तथा सबसे नीचे संगठन का एक विस्तृत आधार होना चाहिये।

2. उत्तरदायित्व का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार संगठन के प्रत्येक व्यक्ति को संगठन के उच्च अधिकारी के प्रति उत्तरदायी होना चाहिये।

3. सामान्य उद्देश्यों का सिद्धान्त– संगठन में विभागों की संख्या कम होनी चाहिये, जिससे वह सुचारू रूप से नियन्त्रित हो सके।

4. नियन्त्रित क्षेत्र का सिद्धान्त– संगठन में विभागों की संख्या कम होनी चाहिए। जिससे वह सुचारू रूप से नियन्त्रित हो सके।

5. पूर्णता का सिद्धान्त- प्रत्येक विभाग को स्वयं में पूर्ण होना चाहिये, जिससे वह समन्वय की आवश्यकताओं में हस्तक्षेप न कर सके।

6. कर्मचारियों की सेवा का सिद्धान्त- समन्वय एवं प्रबन्ध को सुविधाजनक बनाने के लिए सामान्य तथा सहायक स्टॉफ होना चाहिए।

7. विभिन्न क्रियाओं का सम्बन्ध- संगठन की सफलता के लिए संगठन कर्मचारी तथा वित्त से सम्बन्धित कुछ सहायक क्रियाएँ प्रत्यक्ष रूप से मुख्य प्रशासकीय अधिकारी के अधीन होने चाहिये।

8. परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन- संगठन तभी सफल होगा, जब वह ऐसा हो कि समय तथा आवश्यकतानुसार परिवर्तित हो सके।

संगठन के अन्य सिद्धान्त

कुछ विद्वानों ने कुछ अन्य सिद्धान्तों का वर्णन किया है। ये सिद्धान्त पिफनर के सिद्धान्तों से ही मिलते-जुलते हैं। ये अन्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

1. पद-सोपान का सिद्धान्त यह सिद्धान्त इस बात पर निर्भर है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने से एकदम ऊपर के कर्मचारी के प्रति उत्तरदायी होता है और उसके माध्यम से ही वह शिखर के उच्च कर्मचारियों के प्रति उत्तरदायी होता है। इसका दूसरा नाम ‘क्रमिक प्रक्रिया का सिद्धान्त’ भी है।

2. आदेश की एकता का सिद्धान्त- इसके अनुसार प्रत्येक को यह पता होना चाहिये कि उसे किसके अधीन होकर आदेशों का पालन करना होगा। अतः एक व्यक्ति को एक ही व्यक्ति के अधीन होना चाहिये।

सिद्धान्त के गुण—(1) इससे कार्य सम्पादन करने में सुविधा रहती है,

(2) कर्मचारी के कार्य का निरीक्षण पूर्ण नीति से किया जा सकता है।

3. नियन्त्रण का क्षेत्र- संगठन में नियन्त्रण के क्षेत्र से तात्पर्य है कि एक उच्च अधिकारी के अधीन कितने कर्मचारी होने चाहिये, जिन पर वह आसानी से नियन्त्रण कर सके।

नियन्त्रण के सामान्य तत्त्व- कुछ विद्वानों के अनुसार इसके तत्त्व अधीनस्थ कर्मचारी न होकर कुछ और तत्त्व हैं। लूथर गुलिक ने नियन्त्रण के तीन तत्त्व बतलाये हैं-(1) कार्य (Function), (2) समय (Time), (3) स्थान (Space) इसके अलावा नियन्त्रण के क्षेत्र में एक और तत्त्व भी बताया गया है, वह है कार्यक्षमता (Energy) यह निरीक्षण की कार्यक्षमता है। अतः निरीक्षक जितना कार्यक्षमता वाला होगा, उतना ही अच्छा वह नियन्त्रण कर सकेगा। व्यक्तित्व भी इस क्षेत्र का ही तत्त्व माना गया है।

4. उत्तरदायित्व एवं सत्ता का सिद्धान्त- विद्वानों के अनुसार संगठन के सफल संचालन के लिए सत्ता एवं उत्तरदायित्व में मेल होना अति आवश्यक है। इसका अर्थ है कि जिस व्यक्ति को किसी विशिष्ट कार्य के लिए लगाया जाये, उस व्यक्ति को उसी कार्य के अनुरूप सत्ता भी मिलनी चाहिये, जिससे वह अपने उत्तरदायित्व को पूर्ण कर सके।

5. एकीकृत व्यवस्था बनाम स्वतन्त्र व्यवस्था सिद्धान्त– संगठन एकीकृत अथवा विभागीय हो सकता है। दोनों का वर्णन निम्नलिखित है-

एकीकृत व्यवस्था- इस व्यवस्था में समान सेवाएँ सम्पन्न करने वाले अधिकारियों का विभागों में वर्गीकरण किया जाता है और विभिन्न विभागों को आपस में सम्बन्धित कर दिया जाता है। इन सभी विभागों की देख-रेख के लिए एक मुख्य निष्पादक की नियुक्ति की जाती है। भारत की व्यवस्था एकीकृत व्यवस्था का ही उदाहरण है।

स्वतन्त्र व्यवस्था- प्रशासन की वह व्यवस्था, जिसमें सत्ता अनेक स्वतन्त्र कार्यालयों तथा आयोगों में निहित रहती है, यह स्वतन्त्र अथवा संगठित व्यवस्था कहलाती है। इसकी निम्नलिखित बातें उल्लेखनीय हैं-

(i) इस व्यवस्था में सभी कार्यालय तथा आयोग एक-दूसरे से स्वतन्त्र होते हैं।

(ii) इस व्यवस्था में प्रत्येक सेवा एक स्वतन्त्र इकाई मानी जाती है।

(iii) इस व्यवस्था में सत्ता सूत्र सीधे चालित सेवा के मुख्य निष्पादक तक जाता है और निष्पादक उस सेवा पर नियन्त्रण करता है।

6. पुनर्गठन का सिद्धान्त — इसके अनुसार निश्चित अवधि के पश्चात् समाज की परिस्थितियों के अनुसार प्रशासकीय विभाग के पुनर्गठन अवश्य किया जाता है। समय-समय पर पुनर्गठन आयोगों की नियुक्ति की जाती है। अमेरिका में ‘हूबर आयोग’, भारत में एन. गोपाल स्वामी आयगर तथा ए.डी. गोरवाला आदि की रिपोर्ट पुनर्गठन की दृष्टि से ही प्रस्तुत की गयी थी।

7. समन्वय का सिद्धान्त- इसके अनुसार विभाग के संचालन का यह कर्त्तव्य होना चाहिये कि वह विभाग के अनेक बड़े सम-भागों के कर्मचारी वर्ग तथा कार्यों में समन्वय स्थापित करे। श्री मुने ने समन्वय को संगठन का प्रथम सिद्धान्त बताया। संगठन की सफलता विभिन्न विभागों के पारस्परिक सहयोग पर निर्भर है।

8. प्रत्यायोजन का सिद्धान्त- उच्चस्थ अधिकारी द्वारा अधिकारों को अधीनस्थ कर्मचारियों को सौंपने का अर्थ प्रत्यायोजन हैं। प्रत्यायोजन की व्यवस्था में संगठन के लिए आवश्यक है, क्योंकि अकेला उच्च अधिकारी सारे कार्य नहीं कर सकता।

9. केन्द्रीयकरण बनाम विकेन्द्रीयकरण- संगठन के इन दोनों सिद्धान्तों का वर्णन निम्नलिखित है-

(i) विकेन्द्रीयकरण- इसके विपरीत इस विकेन्द्रीयकरण में अधीनस्थ कर्मचारियों को उनके विवेक के अनुसार कार्य करने का अधिक-से-अधिक अवसर दिया जाता है। शासन का कार्य स्थानीय इकाइयों में बाँट दिया जाता है। इसके अतिरिक्त प्रशासन में जनता का बहुत सहयोग हो, इसलिए केन्द्र को बहुत थोड़ा-सा कार्य करना पड़ता है।

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