राजनीति विज्ञान / Political Science

लोक प्रशासन का आर्थिक परिवेश की विवेचना भारतीय आर्थिक परिवेश के सन्दर्भ में कीजिए।

लोक प्रशासन का आर्थिक परिवेश
लोक प्रशासन का आर्थिक परिवेश

लोक प्रशासन का आर्थिक परिवेश

आर्थिक परिवेश भी एक महत्वपूर्ण घटक है जो कि लोक प्रशासन के साथ अन्तरक्रिया करता है। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था एवं आर्थिक नीतियां प्रशासन को प्रभावित करती हैं। निम्न आर्थिक विकास सामान्य रूप से घटिया प्रशासनिक व्यवस्था का परिणाम होता है। इसीलिए विकासशील देशों में प्रशासनिक सुधारों को आर्थिक विकास की तीव्रता और आधुनिकरण के लिए आवश्यक माना गया है।

भारतीय अर्थव्यवस्था के ‘आर्थिक परिवेश’ को निम्न विशेषताओं के सन्दर्भ में समझा जा सकता है-

कृषि की प्रधानता

भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रमुख विशेषता कृषि व्यवसाय की प्रधानता है। 1991 की जनगणना के अनुसार यहां की कुल कार्यशील जनसंख्या का 68 प्रतिशत कृषि व्यवसाय में (जबकि) ब्रिटेन में 2 प्रतिशत, अमरीका में 3 प्रतिशत व कनाडा में 4 प्रतिशत जनसंख्या कृषि व्यवसाय में लगी है। तथा शेष 32 प्रतिशत उद्योग व सेवाओं में लगा हुआ है। कृषि व्यवसाय की प्रधानता इस तथ्य में भी प्रतिबिम्बित होती है कि भारत की अधिकतर जनसंख्या का निवास गांवों में है।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था 

भारतीय अर्थव्यवस्था ग्रामीण है। यहां लगभग 6,05, 224 गांव व लगभग 3,949 नगर व शहर हैं। यहां की 74.3 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में निवास करती है। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक 4 व्यक्तियों में से 1 शहर में रहता है यह प्रतिशत अन्य देशों की तुलना में बहुत ही कम है। उदाहरण के लिए यूगोस्लाविया में 56 प्रतिशत, चीन में 56 प्रतिशत, अमरीका में 75 प्रतिशत, जापान में 77 प्रतिशत, ब्रिटेन में 80 प्रतिशत व्यक्ति शहर में रहते हैं।

प्रति व्यक्ति निम्न आय 

भारतीय अर्थव्यवस्था की एक विशेषता यह है कि यहां प्रति व्यक्ति आय (विश्व के कुछ देशों को छोड़कर) बहुत ही निम्न है जो कि केवल 2,2227 रु. वार्षिक आर्थिक मात्र 186 रुपये मासिक है। इस प्रकार तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाये तो भारत की प्रति व्यक्ति आय जहां 330 डालर है वहां स्विट्जरलैण्ड की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 33,610 डालर, जापान की 23,810 डालर, अमरीका की 22,240 डालर तथा इंग्लैण्ड की 14,610 डालर है।

भारत में प्रति व्यक्ति आय कम होने से गरीबी व्याप्त है, लेकिन यह गरीबी और भी अधिक है क्योंकि एक अनुमान के अनुसार 20 प्रतिशत जनसंख्या को केवल एक ही समय भोजन मिल पाता है व 37.4 प्रतिशत जनसंख्या को कम पौष्टिक भोजन मिलता है।

व्यापक बेरोजगारी 

भारत में व्यापक बेरोजगारी है और इसमें निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। अगस्त 1990 के अन्त में देश के रोजगार कार्यालयों में 3 करोड़ 42 लाख 86 हजार व्यक्तियों के नाम बेरोजगार के रूप में पंजीकृत थे, लेकिन योजना आयोग के अनुसार आठवीं योजना के अन्त में बेरोजगारों की संख्या 5 करोड़ 80 लाख हो गई। व्यापक बेरोजगारी के साथ-साथ यहां पर अर्द्ध-रोजगार भी पाया जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो लोग यहां पर कार्य कर रहे हैं उनको भी पूरे समय कार्य करने के लिए काम की कमी है।

एकाधिकारी घरानों का विकास

स्वाधीनता के बाद मिश्रित अर्थव्यवस्था अपनायी गई। मिश्रित अर्थव्यवस्था में बहुत से उद्योग और व्यवसाय निजी हाथों में होते हैं। इन उद्योगों पर सरकारी नियन्त्रण न्यूनतम होता है और कीमतें मांग एवं पूर्ति के नियमों के अधीन निर्धारित होती हैं। उद्योगपतियों के बीच जो प्रतियोगिता चलती है, उसकी वजह से कोई भी उत्पादक अपनी इच्छा से बाजार कीमत को प्रभावित नहीं कर सकता, पर यदि अर्थव्यवस्था पर उचित सरकारी । नियन्त्रण न रहे तो ‘एकाधिकार’ की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है। भारत में एकाधिकारी। औद्योगिक घराने 1950 के दशक ही उभरने लगे थे।

एकाधिकारी घरानों ने भारत की समस्त ‘आर्थिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं को प्रभावित किया है। आर्थिक दृष्टि से एकाधिकार का सबसे बड़ा दोष ‘जनसाधारण का शोषण’ है। चूंकि एकाधिकार में कीमत उस स्तर पर निर्धारित होगी जहां उद्योगपति का लाभ अधिकतम हो। एकाधिकारी घराने समाज को और कई तरीकों से हानि पहुंचाते हैं, जैसे वस्तुओं की जमाखोरी करके उनका कृत्रिम अभाव पैदा करना तथा छोटे उद्यमियों को दबाना जिससे प्रतियोगी न उत्पन्न हो सके।

असन्तुलित आर्थिक विकास

असन्तुलित आर्थिक विकास भारत की आर्थिक नीतियों का नकारात्मक परिणाम है। आजादी के बाद देश के सन्तुलित क्षेत्रीय विकास की आवश्यकता महसूस की गई, फिर भी भारी क्षेत्रीय विषमताएं विद्यमान हैं। आर्थिक असन्तुलन के कतिपय उदाहरण इस प्रकार है।

(1) विकास योजनाओं का लक्ष्य उत्पादन और रोजगार में वृद्धि लाना था, पर जैसा कि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री दंतवाला ने कहा है, “योजनाओं के अधिकार लाभ राजनीतिक प्रभाव रखने वाले समृद्ध किसानों के पक्ष में मोड़ दिए गए और इन्होंने इन लाभों को हथिया लिया।”

(2) भारत में योजनाबद्ध आर्थिक विकास का मूल लक्ष्य यह था कि देश का सर्वांगीण विकास किया जाए। लेकिन असम और पूर्वोत्तर क्षेत्र की जनता की असली पीड़ा यह है कि पिछले 55 वर्षों में उनकी घोर उपेक्षा की गई है। 1980 के अन्तर तक औद्योगिक विकास बैंक ने विभिन्न प्रदेशों को 5,391 करोड़ रु की सहायता दी। इस राशि का केवल एक प्रतिशत भाग पुर्वोत्तर प्रदेशों के हिस्से में आया। दूसरी ओर महाराष्ट्र और गुजरात, इन दो राज्यों को कुल का 32 प्रतिशत भाग मिला। बिहार में गरीबी रेखा से नीचे जी रहे लोगों की संख्या 54.96 राशि प्रतिशत है। भारत में वयस्क साक्षरता दर केरल में 90.92 प्रतिशत है तो राजस्थान में 61.03 प्रतिशत है। नागालैण्ड में बांस का उत्पादन भारी मात्रा में किया जाता है, किन्तु वहां 100 टन की क्षमता वाला सिर्फ एक कागज का कारखाना स्थापित हुआ है।

भारत के आर्थिक परिवेश में प्रशासन की रचनात्मक और सृजनात्मक भूमिका में वृद्धि होना स्वाभाविक है। प्रशासन को भूमि सुधार कार्यक्रमों को तेजी से लागू करना, ग्रामीण विकास के कार्यक्रमों का सफलतापूर्वक क्रियान्वयन करना है, क्षेत्रीय आर्थिक असन्तुलन को दूर करना है, सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार करते हुए सामाजिक परिवर्तन के उपकरण के रूप में महान दायित्व का निर्वाह करना है।

संक्षेप में, भारत में प्रचलित पूंजीवादी-समाजवादी मिश्रित अर्थव्यवस्था में कोटा-परमिट, लाइसेंस राज की स्थापना होती है जिसमें प्रशासकों को ऐसी स्वविवेकी शक्तियों के प्रयोग का अधिकार मिलता है जिसकी परिणति भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी में होती है।

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