राजनीति विज्ञान / Political Science

प्लेटो के आदर्श राज्य की विशेषताएँ  तथा आलोचना| Characteristics of Platonic Ideal State in Hindi

प्लेटो के आदर्श राज्य की विशेषताएँ
प्लेटो के आदर्श राज्य की विशेषताएँ

प्लेटो के आदर्श राज्य की विशेषताएँ की विवेचना कीजिए।

परिचय–प्लेटो का जन्म 428 ई. पू. एथेन्स नगर में हुआ। इनके पिता का नाम एरिस्टन तथा माता का नाम परिविटयनी था। उसका वास्तविक नाम एरिस्टोक्वीन (Aristocles) था, किन्तु वह राजनीति दर्शन के इतिहास में प्लेटो या अफलातून के नाम से विख्यात हुआ। अपने गुरु सुकरात की मृत्यु ने इसे राजनीति से दूर कर दिया, वह दार्शनिक बन गया। प्लेटो की मृत्यु 347 ई.पू. हुई। राजनीतिक चिन्तन की दृष्टि से प्लेटो के तीन प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं-

1. दि रिपब्लिक, 2. दि स्टेट्समैन, 3. दि लॉज

प्लेटो की आदर्श राज्य सम्बन्धी अवधारणा–प्लेटो के समय एथेन्स में जो अव्यवस्था, अराजकता एवं असन्तोष का दम घोटने वाला वातावरण था उसे प्लेटो दूर करना चाहता था। वह तत्कालीन राज्य के सम्पूर्ण दोषों को दूर करके एक आदर्श राज्य की स्थापना करना चाहता था।

प्लेटो ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘रिपब्लिक’ में एक आदर्श राज्य की स्थापना की बात कही है। यद्यपि कुछ विचारकों ने उसके इस आदर्श राज्य को काल्पनिक बताया है, तथापि अन्य विचारक उसके व्यावहारिक पक्ष को महत्त्व देते हैं।

प्लेटो का आदर्श राज्य मनोवैज्ञानिकता पर आधारित है। प्लेटो के कथनानुसार राज्य व्यक्ति की विशेषताओं के विराट् रूप का प्रतिनिधित्व करता है। उसका कहना है कि संसार में विचार या आदर्श ही सार तत्त्व है, इसके अतिरिक्त जो कुछ भी अन्य दृष्टिगोचर होता है, वह उस आदर्श की अपूर्ण अनुकृति है। व्यक्ति सम्बन्धी कल्पना की सादृश्यता को स्थापित करने में प्लेटो ने राज्य और व्यक्ति के मध्य अनैक समान बातें बताई हैं। उसने कहा कि सद्गुणों के द्वारा नागरिकों के जीवन में परिवर्तन हो सकता है। आदर्श नागरिक के द्वारा आदर्श राज्य की सम्भावना है। उसने सुकरात के मूल सिद्धान्त Virtue is knowledge’ को पकड़ा। उसका आदर्श राज्य अच्छाई के विचार (Idea of the good) पर आधारित है। प्लेटो ने अपने आदर्श राज्य की कल्पना एक ऐसे चित्रकार से की है जो अपने मस्तिष्क से से सुन्दर चित्र बनाता है, भले ही वह इतना व्यवहारिक न हो।

प्लेटो के आदर्श राज्य की विशेषताएँ (Characteristics of Platonic Ideal State)

प्लेटो के आदर्श राज्य की कतिपय मुख्य विशेषतायें निम्नलिखित हैं—

1. आदर्श राज्य में न्याय

प्लेटो ने आदर्श राज्य में न्याय को अत्यधिक महत्त्व दिया है। उसने न्याय शब्द को आधुनिक अर्थों में न लेकर विस्तृत अर्थों में प्रयुक्त किया है। यह न्याय शब्द आधुनिक शब्द नैतिकता (Morality) से मिलता-जुलता है, न्याय से उसका अर्थ है कि व्यक्ति अपने-अपने कर्त्तव्य का ठीक पालन करें अथवा दूसरों के कार्यों में हस्तक्षेप न करे। उसके अनुसार न्याय उन सबमें सामंजस्य बनाये रखता है। न्याय पर आधारित राज्य में ही मनुष्य समाज और राज्य के सद्गुणों की उत्पत्ति होती है।

उसका न्याय व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों प्रकार का है। व्यक्तिगत रूप से मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन करता रहे तथा सामाजिक रूप से दूसरों के कार्यों में हस्तक्षेप न करे तो आदर्श राज्य स्थापित हो सकेगा।

2. राज्य के तीन वर्ग

प्लेटो अपने आदर्श राज्य में मनुष्य की प्रवृत्ति के अनुसार तीन भागों में विभाजित करता है जो निम्न प्रकार से है- (1) कृषक वर्ग तथा उत्पादक वर्ग, (2) सैनिक वर्ग, (3) शासक वर्ग।

पहला वर्ग समाज की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा। दूसरा वर्ग राज्य की सुरक्षा एवं विस्तार करेगा। तीसरा वर्ग शासक को ठीक प्रकार से चलायेगा। बाद के दो वर्ग समाज के संरक्षक होंगे। पहले वर्ग में कृषक, मजदूर एवं अन्य काम करने वाले लोग होंगे।

3. सम्पत्ति एवं परिवार का साम्यवाद

प्लेटो का साम्यवाद भी उसकी एक महत्त्वपूर्ण देन है। उसका राज्य आध्यात्मिकता पर आधारित है। जब तक शासक वर्ग सोने, चाँदी या स्त्रियों के मोह में रहेगा तब तक वह सद्गुणी नहीं होगा, व्यक्तिगत सम्पत्ति और परिवार उसको निःस्वार्थी बनाने में बाधक होंगे। अतः उसने शासक वर्ग के लिये सम्पत्ति पत्नियों के साम्यवाद का सिद्धान्त रखा है। जिसके अनुसार शासक वर्ग की कोई व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं होगी बल्कि उत्पादक वर्ग की ओर से उनका वेतन निश्चित होगा। राज्य में उत्तम सन्तान पैदा करने की दृष्टि से स्थायी विवाह न होंगे। सन्तानों को माता-पिता का ज्ञान नहीं होगा। अतः उनके विकास में सबकी ही रुचि होगी।

4. शिक्षा का सिद्धान्त

प्लेटो ने अपने ग्रन्थ रिपब्लिक में शिक्षा को सर्वाधिक उच्च स्थान दिया है। सैबाइन ने इस ग्रन्थ को एक विश्वविद्यालय कहा है। रूसो ने शिक्षा पर इसे सर्वोत्तम कृति ‘Finest treatise on education’ कहा है। उसके अनुसार सद्गुण शिक्षा के द्वारा सिखलाये जा सकते हैं। अतः उसने बचपन से 35 वर्ष तक की आयु के लिए सामान्य शिक्षा योजना प्रस्तुत की है। उसकी शिक्षा मनोवैज्ञानिक एवं दार्शनिक आधार पर स्थित है। व्यक्ति को अपने कर्तव्य का योग्य ज्ञान शिक्षा के द्वारा ही सम्भव है। शिक्षा योजना राज्य द्वारा संचालित होगी जो प्रारम्भिक अवस्था में स्पार्टा की तरह से अनिवार्य होगी। शिक्षा योजना में स्त्री पुरुषों को समान अधिकार दिया गया है।

प्लेटो की यह शिक्षा योजना भी केवल दो वर्ग सैनिक एवं शासक वर्ग के लिए ही है। उत्पादक वर्ग के लिये इसमें कोई स्थान नहीं है।

5. दार्शनिक शासक

आदर्श राज्य की स्थापना में सर्वोच्च स्थान दार्शनिक शासक प्लेटो को यह लगता था कि शासन सत्ता अज्ञानियों के पास होने से ही शासन में अव्यवस्था उत्पन्न होती है। दार्शनिक राज्य भावनाओं से ऊपर उठकर सद्गुणों एवं ज्ञान पर आधारित होगा। दार्शनिक शासक प्रत्यक्ष में ‘कर्मवीर’ या गीता ‘कर्मयोगी’ का होगा।

प्लेटो इस विश्वास के साथ आगे बढ़ता है कि शासन कार्य के लिए आवश्यकता तथा पर्याप्त योग्यता आचार की श्रेष्ठता है। यह गुण कुछ थोड़े से व्यक्तियों में ही पाया जाता है। अतएव शासन का कार्य कतिपय चुने गये विशिष्ट विशेषज्ञों के हाथों में ही होना चाहिए। प्लेटो के शब्दों में, “जब तक दार्शनिक राज्य नहीं होते अथवा इस संसार के राजाओं में दर्शनशास्त्र के प्रति भावना पूर्ण आस्था जागृत नहीं होती और राजनीतिक महानता तथा बुद्धिमत्ता एक ही व्यक्ति में नहीं मिलती और वे साधारण मनुष्य जो इनमें से केवल एक गुण को दूसरों की पूर्ण अवहेलना करते हुए प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं, अलग हट जाने के लिए विवश नहीं कर दिये जाते तब तक नगर राज्य बुराइयों से मुक्त नहीं हो सकते और न ही सम्पूर्ण तनाव से मानव जाति को शान्ति प्राप्त हो सकती है। उसने आदर्श राज्य की स्थापना के लिए यह दो बातें आवश्यक मानी हैं प्रथम, यह कि ऐसे दार्शनिक शासक मिलते रहें, जो शिक्षा के द्वारा सम्भव हैं। दूसरे, वह उसके लिये दो वर्गों को उचित मानता है जिससे आदर्श शासक मिलेंगे।”

6. विशेष कार्य के सिद्धान्त

प्लेटो ने विशेष कार्य के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया है जिसके अनुसार उसने श्रम विभाजन को रखा है। उसने भारतीय वर्ण व्यवस्था की भाँति कामों का बंटवारा समाज के लिए आवश्यक माना है। उसके अनुसार आदर्श राज्य के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्य का पालन पूर्ण योग्यता से करे। प्रत्येक व्यक्ति वहीं कार्य करेगा जिसके लिए वह उपयुक्त होगा।

7. कला एवं साहित्य पर प्रतिबन्ध

प्लेटो की शिक्षा योजना में कला एवं साहित्य पर राज्य का कड़ा नियन्त्रण रहेगा। इस प्रकार उसने उस अश्लील साहित्य एवं कलाकृतियों का विरोध किया है जो नवयुवकों पर उल्टे संस्कार डालें। कला एवं साहित्य पर राज्य की ओर से कड़ा अनुशासन आवश्यक है ताकि नवयुवकों का नैतिक पतन न हो। उपयोगी साहित्य एवं कलाकृतियों का अध्ययन होना चाहिये।

क्या प्लेटो का राज्य व्यवहारिक है?

कुछ राजनीतिक विचारकों ने प्लेटो के आदर्श राज्य की आलोचना की है। सैबाइन ने भी उसकी कटु आलोचना की है तथा उसे काल्पनिक ‘Utopian’ कहा है। बार्कर ने इस आलोचना का उत्तर दिया है। इसके विपरीत कतिपय विद्वानों के अनुसार प्लेटो का आदर्श राज्य काल्पनिक न होकर पूर्णरूपेण व्यवहारिक है तथा इसे स्थापित किया जा सकता है। मुख्य तर्क इस प्रकार प्रस्तुत किये जाते हैं-

1. प्लेटो कोरा आदर्शवादी नहीं जो बादलों के नगर में रहता है। वस्तुतः उसके पाँव धरती पर हैं। वह एक राजनीतिक यथार्थवादी है।

2. प्लेटो के यथार्थवाद का पहला उदाहरण उस काल के एथेन्स व यूनान के अन्य देशों का वर्णन है। उसने यूनान की तत्कालीन अवस्था और उसके दोषों को हमारे सम्मुख प्रस्तुत किया है। उसका आदर्श समाज यूनान की परिस्थितियों के गम्भीर अध्ययन की देन है। उसका समाज का । वर्गीकरण शिक्षा, साम्यवाद आदि का सिद्धान्त वस्तुतः उस काल की परिस्थितियों की देन है।

3. उसका अध्ययन काल्पनिक न होने का दूसरा प्रमाण यह है कि यह उस काल के जीवन में क्रान्तिकारी सुधार करना चाहता था। सिसली की दो बार यात्रा वहाँ के शासक को आदर्श शासक बनाने के लिये की गई। यद्यपि इस कार्य में उसे सफलता न मिली थी। उसकी योजना ऐसी न थी कि असम्भव हो। हाँ, कठिन अवश्य थी। उसका साम्यवाद एवं शिक्षा योजना केवल दो वर्गों के लिये ही थी जो ज्यादा व्यवहारिक थी।

4. निःसन्देह कोई व्यक्ति इस सत्य को असत्य नहीं कर सकता है कि जब तक शासक वर्ग निःस्वार्थी न होगा, कामिनी कांचन के मोह से दूर न होगा तब तक वह अपनी जनता की भलाई नहीं कर सकता। प्लेटो स्त्री-पुरुषों के लिए अनिवार्य तथा समान शिक्षा पद्धति की चर्चा करता है जो आज सभी जगह प्रचलित है। वह अपनी शिक्षा में व्यायाम एवं संगीत को बड़ा महत्त्व देता है जो आज भी शिक्षा के प्रमुख अंग के रूप में माने जाते हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि रिपब्लिक का आदर्श राज्य भले ही काल्पनिक हो, पर इसके सिद्धान्त शाश्वत हैं। ये किसी भी राज्य के लिये मार्गदर्शक हो सकते हैं।

आदर्श राज्य की आलोचना

आलोचकों ने प्लेटो के आदर्श राज्य की आलोचना विभिन्न आधारों पर की है। इस सिद्धान्त की कतिपय मुख्य आलोचनायें इस प्रकार हैं-

1. आदर्श राज्य समाज को दो वर्गों में विभक्त कर देता है

बार्कर ने अरस्तू के इस आरोप को सत्य माना है कि प्लेटो के आदर्श राज्य में समाज के दो टुकड़े हो जाते हैं—अभिभावक वर्ग तथा उत्पादक वर्ग। प्रथम वर्ग उदासीन, रंक तथा बिना परिवार का है जबकि वर्ग सम्पत्ति और ऐश्वर्य से पूर्ण भौतिकवादी है। इस सम्बन्ध में वेपर ने कहा है कि निम्नतम वर्ग बिना किसी आपत्ति के शासकों की आज्ञा का पालन करते हैं ताकि निकृष्ट मनुष्यों की इच्छायें थोड़े से सुसंस्कृत व्यक्तियों की इच्छाओं और बुद्धि द्वारा नियन्त्रित हो जाये और वह सुसंस्कृत व्यक्तियों से अपने समस्त व्यक्तिगत हितों का राज्य के लिये परित्याग कराता है।

2. सिद्धान्तों की अव्यवहारिकता

कुछ आलोचकों के अनुसार प्लेटो का आदर्श राज्य काल्पनिक है। आदर्श राज्य के प्रमुख तत्त्व जैसे; परिवार एवं सम्पत्ति का साम्यवाद, शिक्षा योजना एवं दार्शनिक शासक का राज्य सभी व्यवहारिक नहीं है।

3. प्रवृत्तियों के आधार पर वर्गीकरण की अमान्यता

प्लेटो ने राज्य एवं व्यक्ति की समानता को आवश्यकता से अधिक महत्त्व दिया है। उसने मनुष्य की तीन प्रवृत्तियों क्षुधा, साहस एवं विवेक के आधार पर समाज को भी तीन वर्ग-उत्पादक वर्ग, सैनिक वर्ग एवं शासक वर्ग में बाँटा है, जो उपयुक्त नहीं है। व्यवहार में प्रत्येक व्यक्ति में तीन प्रवृत्तियों का सन्तुलन बदलता रहता है। अतः किसी को किसी निश्चित वर्ग में नहीं रखा जा सकता।

4. वर्गों का अवैज्ञानिक वर्गीकरण

कुछ आलोचकों के अनुसार प्लेटो के आदर्श राज्य में विभाजन हो? एक व्यक्ति में एक साथ कई प्रवृत्तियों प्रमुख हो सकती हैं, वह एक अच्छा विजेता व तीन वर्गों में विभाजन वैज्ञानिक नहीं है। यह आवश्यक नहीं है कि इन तीन प्रवृत्तियों के द्वारा ही वर्ग शासक भी हो सकता है, यह भी आवश्यक नहीं है कि मनुष्य की तीन प्रवृत्तियों द्वारा ही चलता हो। यह भी आवश्यक नहीं कि एक ही प्रवृत्ति का आधिक्य जीवन भर बना रहे। अतः यह अवैज्ञानिक है।

5. दास प्रथा का समर्थन

प्राचीन यूनान राज्य में सभी स्थानों पर दास प्रथा थी। प्लेटो ने इस प्रथा की कहीं भी भर्त्सना नहीं की। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उनकी व्यवस्था में वह किसी प्रकार के परिवर्तन के पक्ष में नहीं है। न्याय के अग्रदूत द्वारा दास प्रथा का मौन समर्थन न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता।

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