राजनीति विज्ञान / Political Science

तृतीय विश्व से आप क्या समझते हैं? इसकी विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

तृतीय विश्व से आप क्या समझते हैं?
तृतीय विश्व से आप क्या समझते हैं?

तृतीय विश्व से आप क्या समझते हैं? इसकी विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

तृतीय विश्व का सबसे पहले प्रयोग अल्जीरिया के एक लेखक फ्राटस फैनन ने किया था। उसने ‘धरती के कुचले हुए लोग’ नामक अपनी पुस्तक में उन नए सम्प्रभु राज्यों की ओर संकेत किया जो साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद के युग से बाहर निकलकर अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में स्वतंत्र तथा सक्रिय कार्यकर्ता बनने का प्रयत्न कर रहे थे। फैनन ने यह तर्क दिया कि पूँजीवादी तथा समाजवादी विश्व के बीच तीसरे विश्व में एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमरीका के वे नये राज्य आते हैं जो साम्राज्यवादी देशों तथा नव उपनिवेशवाद के बंधनों से मुक्त होने का प्रयास कर रहे हैं।

एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमरीका के देशों के लिए फैनन द्वारा प्रयुक्त किये गए तृतीय विश्व का प्रयोग अब उन राष्ट्रों के लिए किया जाता है, जो निर्धन तथा अल्प विकसित हैं। इससे वे राष्ट्र शामिल हैं जो अभी-अभी उपनिवेशीय अतीत से उभरे हैं जो अपना विकास करना चाह रहे हैं तथा जिनकी विकास सम्बन्धी समस्याएं एक जैसी हैं। “उनका निर्धन, नया, अश्वेत तथा दुर्बल होना ही तृतीय विश्व के इन राज्यों को अन्तर्राष्ट्रीय समाज के सदस्यों के समूह के रूप में उन्हें साझी पहचान प्रदान करता है।”

तीसरी दुनिया- सामान्य विशेषताएं

तीसरी दुनिया के देशों की विशेषताएं लगभग सामान्य दृष्टिगोचर होती हैं जिसका वर्णन निम्नलिखित हैं-

1. गरीब तथा अमीर देशों के बीच गहरा अन्तर- विकसित देशों के लोगों तथा कम-विकसित तथा विकासशील देशों के लोगों के बीच एक चौड़ी खाई है। विकसित देश, जिनकी जनसंख्या 30% से कुछ कम ही है, समस्त विश्व की सम्पत्ति तथा आय के 70% से अधिक पर नियंत्रण रखते हैं जबकि कम विकसित देशों के पास जिनकी जनसंख्या 70% है केवल 30% साधन तथा आय है।

2. विकसित तथा कम विकसित देशों के बीच बढ़ रहा आर्थिक अन्तर- विकसित तथा कम विकसित देशों के बीच जो अन्तर है, वह निरन्तर भयानक दर से बढ़ रहा है। विकसित तथा धनी देश और धनी हो रहे हैं तथा कम विकसित तथा विकासशील राष्ट्र, विशेष रूप से 1970 के ऊर्जा संकट के बाद अधिक निर्धन हो रहे हैं। तकनीकी रूप से विकसित तथा औद्योगिक रूप से विकसित होने के कारण धनी राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर अपना नियंत्रण बढ़ा रहे हैं। WTO आदि संगठन भी धनी तथा निर्धन देशों के बीच निरन्तर बढ़ रहे अन्तर को
रोकने में सफल प्रतीत नहीं हो रहे हैं।

3. गरीब देशों के ऊपर विदेशी कर्जे का भारी बोझ तथा भुगतान की समस्या – तीसरी दुनिया के गरीब देश अपनी प्राथमिक आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अमीर देशों से ऋण लेते रहे हैं। ऐसे ऋण का भार अब बहुत बढ़ गया है। 1981 में तीसरे विश्व के देशों पर 751 खरब डालर का ऋण जो 1991 में बढ़कर 1351 खरब डालर हो गया। आर्थिक विकास के निम्न प्रगति के कारण गरीब देश इस ऋण को उतारने के योग्य नहीं हुए हैं। अब इस ऋण को उतारने के लिए और ऋण ले रहे हैं तथा उसकी अर्थ व्यवस्था ऋण के चंगुल में फंस गई है या फिर फंस रही है। अमीर देशों द्वारा गरीब देशों को दी गई विदेशी सहायता की भूमिका भी काफी निराशाजनक तथा हानिकारक हो रही है।

4. गरीब राष्ट्रों पर अमीर राष्ट्रों का नव उपनिवेशीय नियंत्रण- व्यापक अन्तः निर्भरता तथा अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के सभी सदस्यों का समान सम्प्रभु स्तर होने पर भी गरीब विकासशील राज्य अभी नव-उपनिवेशवादी नियंत्रण के अधीन रह रहे हैं। घोर निर्धनता के कारण तथा आवश्यक वस्तुओं की कमी के कारण वे विदेशी सहायता के लिए विकसित राष्ट्रों पर निर्भर रहते हैं।

अमीर देशों का गरीब देशों पर नव-उपनिवेशीय नियंत्रण आज तक समकालीन अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध एक क्रूर वास्तविकता बना हुआ है। विदेशी सहायता, सैन्य सहायता, अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थाएँ, संधियों की भागीदारी, हस्तक्षेप, बहुराष्ट्रीय कार्पोरेशन सुरक्षा व्यापार आदि जैसे साधनों द्वारा विकसित देश विकासशील देशों की विकासशील अर्थव्यवस्था तथा नीतियों पर गहण नियंत्रण बनाए हुए हैं।

5. नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की समस्या- तृतीय विश्व के देश नीओ (NEO) को समकालीन समय की अनिवार्य आवश्यकता मानते हैं क्योंकि केवल यही उनकी तेजी से गिरती अर्थ व्यवस्थाओं को सम्भाल सकती है। व्यापक अन्तः निर्भरता के इस युग में कम विकसित देशों के साधनों तथा मण्डियों का और अधिक शोषण तथा ह्रास बहुत अधिक हानिकारक होगा तथा विकसित राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था के लिए भी विध्वंसक सिद्ध होगा। इसलिए नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था विकसित तथा कम विकसित राष्ट्रों के लिए बहुत अधिक सहायक तथा उपयोगी सिद्ध हो सकती है। कम विकसित देश इस बात की वकालत करते हैं कि नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का निर्माण करने के लिए विकसित राष्ट्र इस विषय पर बातचीत करने के लिए आगे आये। वे इस उद्देश्य के लिए उत्तर-दक्षिण में अविलम्ब गम्भीर वार्ता की वकालत करते हैं। वे यह विश्वास करते हैं कि न तो संयुक्त राष्ट्र और न ही दूसरी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएं वास्तविक रूप में नीओ के निर्माण में सहायक हो सकती हैं क्योंकि इनमें विकसित राष्ट्रों का प्राधान्य है।

दूसरी तरफ विकसित राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में न तो अपनी वर्तमान आर्थिक को त्यागने के लिए तथा न ही अपने नियंत्रण को छोड़ने के लिए तैयार हैं। विद्यमान व्यवस्था, कम-विकसित राष्ट्रों की नीतियों तथा अर्थव्यवस्थाओं उनके आर्थिक तथा राजनीतिक नियंत्रण को बनाये रखने में सहायक हैं। वे अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश तथा विश्व बैंक जैसी अन्य आर्थिक संस्थाओं में अपनी प्रमुख स्थिति को छोड़ना नहीं चाहते। वे इस बात की वकालत करते हैं कि विद्यमान अर्थव्यवस्था तथा इसकी संस्थाओं में बातचीत तथा सामंजस्य द्वारा संशोधन द्वारा तृतीय विश्व की कुछ माँगों को इसमें शामिल किया जा सकता है। इसलिए वे नीओ के विषय पर उत्तर-दक्षिण वार्ती के लिए न तो गम्भीर हैं तथा न ही इसमें उन्हें कोई रुचि है।

निष्कर्ष- अमीर तथा विकसित एवं कम विकसित राष्ट्रों के बीच सम्बन्ध आज भी तनाव पूर्ण तथा असमान हैं। विकसित राष्ट्र विशेष रूप से आर्थिक तथा व्यापारिक सम्बन्धों में, विकासशील देशों पर कठोर तथा आर्थिक तथा शोषणात्मक नियंत्रण रखे हुए हैं। भयानक अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक स्थिति, ऊर्जा संकट, निरन्तर बनी रहने वाली अनुत्पादक तथा हानिकारक शस्त्र दौड़ GATT तथा UNCTAD की सफलता उत्तर दक्षिण की नीओ (NIEO) के विषय पर समझ की कमी, अपना उत्तरदायित्व निभा सकने में संयुक्त राष्ट्र संघ की असफलता आदि सभी ने मिलकर एक भयानक स्थिति पैदा कर दी है जिसमें विकासशील राष्ट्र विकसित राष्ट्रों पर निर्भरता तथा निर्धरता के कारण अपने आप को हानि की स्थिति में पाते हैं।

पिछले तीन दशकों में अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के निष्पक्ष विश्लेषण से पता चलता है कि राज्यों के बीच विशेषतया विकसित तथा विकाशील राज्यों के बीच गहरे असंतुलन तथा असमानाएं हैं। सारे अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय की भलाई को प्रभावित करने की शक्ति आज भी विकसित राष्ट्रों के पास है। परिणामस्वरू अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करने की विकासशील राष्ट्रों की क्षमता बुरी तरह सीमित है। इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं है। उपेक्षा तथा अन्याय के तीन दशकों से विकासशील देशों से निरन्तर निराशा बढ़ रही है क्योंकि उन्हें व्यापारिक सहायता राशि, उचित तकनीकी ज्ञान की प्राप्ति तथा वैज्ञानिक ज्ञान, ऋण तथा आर्थिक समस्याओं के सम्बन्ध में, जो किसी न किसी रूप में एक दूसरे से जुड़ी हुई है। समाधान को प्राप्त करने में निराशा का मुख देखना पड़ रहा है।

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