राजनीति विज्ञान / Political Science

एक राजनीतिक शक्ति के रूप में राष्ट्रवाद के गुण और दोष

एक राजनीतिक शक्ति के रूप में राष्ट्रवाद के गुण और दोष
एक राजनीतिक शक्ति के रूप में राष्ट्रवाद के गुण और दोष

एक राजनीतिक शक्ति के रूप में राष्ट्रवाद के गुण और दोष अथवा “राष्ट्रवाद सभ्यता के लिए विभीषका है।” क्या आप इस विचार से सहमत हैं?

हंस कोहन ने लिखा है, “राष्ट्रवाद एक विचार है, एक विचार शक्ति है जो मनुष्य के मस्तिष्क और हृदय को नए विचारों और मनोभावों से भर देती है और उसे अपनी चेतना को संगठित क्रिया के कार्यों में परिवर्तित करने की प्रेरणा देती है।”

वर्तमान समय में राष्ट्रवाद को विश्व का नया धर्म कहा जाता है। राष्ट्रवाद सोलहवी शताब्दी में पुष्पित एवं फलित हुआ। उस समय राष्ट्रवाद को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती थी क्योंकि इसने मानव जाति को स्वतन्त्रता और प्रजातन्त्रीय व्यवस्थाओं के लिए प्रोत्साहित किया। राष्ट्रवाद का जन्म मनुष्य की सामाजिक और स्वशासन की भावना पर आधारित है। इटली के राष्ट्रवाद संघर्ष के साथ जनतन्त्र के स्थापित करने की भावना मिली हुई थी। राष्ट्रवाद के प्रादुर्भाव के कारण ही एक के बाद एक टर्की और आस्ट्रेलिया तथा हंगरी के साम्राज्य छिन्न-भिन्न हुए और उनके भग्नावशेषों पर यूरोप के आधुनिक राष्ट्रीय राज्यों का विकास हुआ। भारतवर्ष में भी राष्ट्रवादी संघर्ष की स्वशासन की माँग पर ही केन्द्रित था। एशिया और अफ्रीका के भिन्न-भिन्न देशों में राष्ट्रों की स्वाशासन की भावना से ही प्रेरणा मिल रही है। राष्ट्रवाद के इसी प्रश्न को दृष्टिगत करके ‘हेज’ कहता है, “राष्ट्रवाद में जातीयता राष्ट्रीय राज्य तथा राष्ट्रीय देश भक्ति का सम्मिश्रण है।”

राष्ट्रवाद का नैतिक आधार पर भी समर्थन किया जाता है। व्यक्ति और परिवार में जो सम्बन्ध है वही राष्ट्र और विश्व में है जिस प्रकार एक परिवार के अनेक सदस्य होते हैं उसी प्रकार संसार रूपी कुटुम्ब के अनेक राष्ट्र सदस्य हैं जिस प्रकार परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने विशेष गुणों को समुन्नत करके विश्व जीवन को अधिक सुन्दर, सुखी एवं संस्कृति को इच्छानुसार विकसित करने की निर्बाध स्वतन्त्रता प्राप्त हो। ‘जोसेफ’ आदि विचारकों के मत में “राष्ट्रवाद व्यक्तिगत मनुष्य तथा मानव समाज रूपी श्रृंखलाओं को जोड़ने वाली एक कड़ी है।” राष्ट्रवाद इन विचारकों की दृष्टि में, “आध्यात्मिक शान्ति का साधन और अन्तर्राष्ट्रीवाद की प्रथम सीढ़ी है। इन विद्वानों का कथन है कि एक व्यक्ति जितना ही राष्ट्रीय विचारों से ओत प्रोत होगा उतना ही अधिक वह अन्य जातियों के राष्ट्रीयता के भागों का अनुभव कर सकेगा। जर्मन के शब्दों में राष्ट्रवाद सामूहिक विचार, सामूहिक भावना तथा सामूहिक जीवन-यापन की एक प्रणाली है।”

परन्तु राष्ट्रवाद जहाँ एक ओर एक राष्ट्र के सदस्यों में घनिष्ठ प्रेम तथा अटूट सम्बन्धों को प्रोत्साहित करता है वहीं साथ ही साथ दूसरी ओर अन्य मनुष्यों या जातियों से सर्वथा पृथक्-पृथक् समझने की भावना अधिक बलवती होती जाती है तथा राष्ट्रवाद उतना ही अधिक भयानक एवं उग्र होता जाता है। आज के संसार में राष्ट्रवाद संसार की सभ्यता के लिए खतरा बन गया है। विश्व शान्ति के लिए भयानक राष्ट्रवाद को हेज ने कृत्रिम राष्ट्रवाद की संज्ञा दी है जो विशुद्ध राष्ट्रवाद से भिन्न हैं। कृत्रिम राष्ट्रवाद यूरोप की व्यावसायिक क्रान्ति से बहुत अधिक प्रभावित है। व्यावसायिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप यूरोप के देशों में मशीनों से अपना माल पैदा किया जाने लगा जिसकी उन देशों में खपत नहीं हो सकती थी अतः अविकसित एवं अर्द्धविकसित देशों में उसके अतिरिक्त माल खपाने के लिए बाजार बनाने की होड़ सी लग गयी। राष्ट्रवाद ने इस प्रकार साम्राज्य का रूप धारण करके अविकसित देशों का शोषण करना आरम्भ कर दिया। राष्ट्रवाद के इसी को व्यापारिक तथा आर्थिक संगठन” कहा गया। व्यावसायिक क्रान्ति से उत्साहित और उत्तेजित राष्ट्रवाद के कारण ही संसार बीसवीं शताब्दी में दो बार खून की होली खेल चुके है। बहुधा राष्ट्रवाद अवांछनीय जातिवाद का रूप धारण कर लेता है। कुछ जातियाँ अपने को अन्य जातियों की अपेक्षा उच्चतर समझने लगती हैं और यह विचार करने लगती हैं कि असभ्य जातियों को सभ्य एवं विकसित करने का भार परमात्मा ने उनके कंधों पर लादा है। ” श्वेत मनुष्यों के भार” एक ऐसा विचार था । जापानी अपने को सूर्य पुत्र कहते थे और चीन को सभ्य, सुखी और समृद्ध बनाना अपना कर्तव्य मानते थे । जर्मनी में हिटलर ने प्रचार किया कि केवल जर्मन जाति में ही शुद्ध आर्य हैं और ईश्वर ने उनको संसार पर शासन करने का दायित्व दिया है। राष्ट्रवाद का यह युद्ध प्रिय रूप है जिसके कारण मानव समाज में भय, अविश्वास, घृणा, ईर्ष्या और वैमनस्य की वृद्धि होती है जो सामयिक महायुद्धों का कारण बन जाते हैं। ‘शिलिटो’ का कथन है कि “राष्ट्रवाद मनुष्य का दूसरा धर्म बन गया है उसके अपने निजी देवता, गुरु, महन्त, पूजा, रीति-रिवाज और त्यौहार हैं जो भावुक आवेशपूर्ण और अन्तः प्रेरणा युक्त हैं। उसके अनुयायी उसके अन्ध भक्त हैं इन राष्ट्रवादियों का एक ध्येय है। वह ध्येय है अन्य राष्ट्रों पर विजय प्राप्त करना, उन पर अत्याचार करना और उनका शोषण करना।” वास्तव में राष्ट्रवाद सैनिकवाद है। इस प्रकार राष्ट्रवाद को संकेत करते हुए हेज ने कहा है कि “ऐसा राष्ट्रवाद स्वजाति के प्रति व्यक्तिगत मिथ्या अहंकार की चित्तवृत्ति से पैदा होता है। इसके आधार पर अन्य राष्ट्रों में द्वेष पैदा किया जाता है।” एक अन्य स्थान पर ‘हेज’ लिखता है “राष्ट्रवाद सैनिकवाद का सहयोगी है। राष्ट्रवाद एक न एक दिन शोषण साम्राज्यवाद का एक रूप धारण कर लेता है। राष्ट्रवाद सिखाता है कि, “मेरा देश भला या बुरा, मेरा देश है।” कोरिया, मलाया, इन्डोचाइना, दक्षिणी अफ्रीका में जो हो रहा है वह इसी अन्धराष्ट्रवाद का परिणाम है। लार्डह्यू सेसली के शब्दों में राष्ट्रवाद आलोचना को चकनाचूर करने वाली आतातायी की गदा है।

परन्तु राष्ट्रवाद एक कोरी बुराई नहीं है। राष्ट्रवाद मनुष्य की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति का परिणाम है। आवश्यकता इस बात की है कि इनके उग्र रूप का अन्त किया जाए। राष्ट्रवाद से सैनिकवाद का गठबन्धन तोड़कर मानव प्रेम और अन्तर्राष्ट्रीयता की यदि पुष्टि की जाए तो राष्ट्रवाद अवश्य ही अभिशाप न होकर वरदान सिद्ध हो सकता है। ‘हेज’ के शब्दों में “जिस समय राष्ट्रवाद पवित्रतम् देशप्रेम का पर्यायवाची हो जायेगा उस समय यह मानवता और संसार के लिए एक वरदान सिद्ध होगा।”

30 वर्ष के भीतर भयंकर महायुद्धों से त्रस्त आज जब मानव फिर विश्व आकाश को प्रलयंकारी युद्धों के काले बादलों में आच्छन्न होता हुआ देखता है तो उसका सरल हृदय प्रकम्पित है कि उग्र राष्ट्रीय राज्यों के स्थान पर एक शक्तिशाली विश्वव्यवसथा का आयोजन होना चाहिए। हो उठता है। अतः आज चारों ओर से विश्व शान्ति को सुरक्षित करने के लिए आवाज आने लगी जिस प्रकार मनुष्यों की अराजकता पर भी अन्तर्राष्ट्रीय संगठन करके प्रतिबन्ध लगाया जाता है। उसी प्रकार राष्ट्रों की अराजकता पर भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का संगठन करके लगाम लगाई जा सकती है। आज का संसार उत्तम हो और जिसमें जीव ऊँच-नीच, काला-गोरा, आदि का भेदभाव न और जिसमें एक सबके लिए और सब एक के लिए हो।” कुछ लेखकों का विचार है कि देशभक्ति अथवा राष्ट्रवाद अपने शुद्ध रूप में अन्तर्राष्ट्रीयवाद की और जा सकता है जैसे परिवार ग्राम आदि के प्रतिनिष्ठा और देशभक्ति में कोई विरोध नहीं होता वैसे ही आशा की जा सकती है। कि अच्छे राष्ट्रवाद अथवा विश्व व्यवस्था के प्रति निष्ठा होना जरूरी नहीं है।

निष्कर्ष – इस प्रकार राष्ट्रवाद विकास विनाश दोनों के बीच में निहित है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अपने विशुद्ध रूप में राष्ट्रवाद मानव जाति का सबसे बड़ा मित्र है किन्तु उग्र राष्ट्रवाद का परिणाम सैन्यवाद और युद्ध होता है जो अन्तर्राष्ट्रीयता के नितान्त विरोधी है। जैसा कि ‘प्रोफेसर हेज’ ने कहा कि जब राष्ट्रवाद पवित्र देशभक्ति का पर्यायवाची बन जाता है उस समय वह विश्व तथा मानव जाति के लिए एक असाधारण वरदान सिद्ध हो सकता है।

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