राजनीति विज्ञान / Political Science

अरस्तू के संविधानों का वर्गीकरण | Aristotle’s Classification of Constitution in Hindi

अरस्तू के संविधानों का वर्गीकरण
अरस्तू के संविधानों का वर्गीकरण

अरस्तू के संविधानों का वर्गीकरण

संविधान का अर्थ एवं परिभाषा

संविधान के लिए अरस्तू द्वारा प्रयोग किया जाने वाला यूनानी शब्द है ‘पॉलिटिया’ (Politia)। इसका अंग्रेजी रूपान्तर है Constitution or from the Government. संविधान या सरकार का स्वरूप बॉर्कर (Barker) के अनुसार, ये दोनों अंग्रेजी रूपान्तर ‘पॉलिटिया’ शब्द में निहित वास्तविक भाव को व्यक्त नहीं करते हैं। इसका कारण यह है कि अरस्तू ने इस शब्द का प्रयोग अति व्यापक अर्थ में किया है। इस अर्थ पर प्रकाश डालते हुए बार्कर ने लिखा है- “संविधान का अर्थ है जीवन का ढंग या सामाजिक सदाचार की रीति एवं राजनीतिक पदों को प्रदान करने की विधि।”

अरस्तू ने अपने ग्रन्थ ‘पॉलिटिक्स’ में संविधान की परिभाषा दो स्थलों पर दी है। ये दोनों परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

पहली परिभाषा–“संविधान की परिभाषा सामान्य रूपेण राज्य के शासन-पदों और विशेषतया प्रभु-पद के संगठन के रूप में की जा सकती है।”

दूसरी परिभाषा–“संविधान की परिभाषा किसी राज्य के अन्तर्गत शासन पदों के संगठन के रूप में की जा सकती है, जिसके द्वारा उन पदों के वितरण की विधि निश्चित की जा सकती है, सर्वोच्च सत्ता का निर्णय किया जाता है, और राज्य एवं उसके सब सदस्यों द्वारा अनुसरण किये जाने वाले लक्ष्य को निर्धारित किया जाता है।”

अरस्तू की संविधान की धारणा

अरस्तू का कहना है कि संविधान का सारभूत मुख्य विषय विभिन्न शासन पदों के अधिकारों, कर्त्तव्यों और सीमाओं का निर्धारण करना है। राज्य की सर्वोच्च शक्ति, नागरिकों के उस समूह में निहित रहती है, जो शासनारूढ़ होता है। अरस्तू के शब्दों में, “शासनारूढ़ नागरिक जनसमूह ही संविधान है।”

अरस्तू की संविधान की धारणा, आधुनिक समय में हमारी धारणा से काफी अधिक विस्तृत है। अरस्तू का संविधान सरकार के स्वरूप को निर्धारित करके और सब नागरिकों के लिए जीवन की विधि का निर्णय करके राज्य के स्वरूप को निश्चित करता है। इस संविधान का आधार केवल राजनीतिक और कानूनी ही नहीं है, वरन् नैतिक भी है। इसका सम्बन्ध केवल प्रशासन पदों की व्यवस्था से ही नहीं है, वरन् अच्छे जीवन से भी है।

संविधानों का वर्गीकरण

राज्यों सरकारों या संविधानों का वर्गीकरण करने वाला पहला व्यक्ति अरस्तू नहीं था। उससे पहले पिंजर, हेरोडोट्स, क्यूरिडाइट्स और प्लेटो-एक व्यक्ति, कुछ व्यक्तियों तथा अनेक व्यक्तियों के शासन में पाये जाने वाले अन्तर को बता चुके थे। इनके वर्गीकरण पर आधारित होने के बावजूद भी, अरस्तू का वर्गीकरण अधिक महत्त्वपूर्ण है।

अरस्तू का संविधानों का वर्गीकरण मुख्यतः परिणाम और गुण पर आश्रित है। अरस्तू के संविधानों के वर्गीकरण में कोई मौलिकता नहीं दिखाई देती है। इसमें अरस्तू अपने प्रभावित गुरु प्लेटो से बिना नहीं रहे हैं। परिणाम से अरस्तू का तात्पर्य यह है कि प्रभुत्व शक्ति एक व्यक्ति में, कुछ व्यक्तियों में या समस्त नागरिकों में अन्तर्निहित है। गुणात्मक आधार के अन्तर्गत वे राज्य के उद्देश्य का ध्यान रखते हैं। गुणात्मक आधार पर विभाजित संविधान दो वर्गों में रखे जा सकते हैं—पहला, विशुद्ध और दूसरा, विकृत विशुद्ध राज्य में कानून की सर्वोपरिता को दृष्टिगत करते हुए शासन होता है, परन्तु विकृत राज्य में व्यक्ति हित की प्रधानता प्राप्त होती है। इस प्रकार अरस्तू इन आधारों पर संविधानों के तीन विशुद्ध रूपों का प्रतिपादन करते हैं एकतन्त्र, कुलीनतन्त्र से जनतन्त्र। अरस्तू के अनुसार विकृत संविधान के तीन स्वरूप निरंकुशतन्त्र, धनिकतन्त्र व भीड़तन्त्र हैं।

वर्गीकरण का आधार

अरस्तू ने सरकारों और संविधानों का वर्गीकरण दो मुख्य आधारों पर किया है संख्या और स्वरूप।

1. शासकों की संख्या- पहला आधार यह है कि शासन सत्ता कितने व्यक्तियों के हाथ में है, क्या वह एक व्यक्ति के हाथ में है, कुछ व्यक्तियों के हाथों में या सम्पूर्ण जनता के हाथ में है।

2. शासन का स्वरूप- दूसरा आधार यह है कि क्या शासन अच्छा है या नहीं? शासन का संचालन कानून के अनुसार जनता के हित में हो रहा है या नहीं।

शासनों का वर्गीकरण

शासकों की संख्या तथा शासन के स्वरूप के आधार पर अरस्तू ने छः प्रकार के शासन बताए हैं। ये इस प्रकार हैं-

1. एकतन्त्र—वह व्यवस्था जिसमें शासन की अधिकांश शक्तियाँ एक ही व्यक्ति के हाथों में केन्द्रित है, इसे अरस्तू ने एकतन्त्र कहा है। वह व्यक्ति राजा भी हो सकता है और सैनिक तानाशाह भी।

2. कुलीनतन्त्र– जब शासन सत्ता किसी समूह में या कुछ व्यक्तियों के हाथों में हो तो उसे अरस्तू ने कुलीनतन्त्र कहा है। कुलीनतन्त्र जाति का हो सकता है, वंश का भी, धनिकों का भी और सैनिकों का भी।

3. लोकतन्त्र- जब शासन सत्ता सम्पूर्ण जनता में हो, तो उसे अरस्तू ने लोकतन्त्र कहा है। उपरोक्त तीनों शासन प्रणालियाँ अच्छी शासन प्रणालियों हैं। यह जनता की भलाई के लिए कार्य करती हैं। परन्तु यही शासन प्रणालियाँ जब दूषित हो जाती हैं और अपने स्वार्थों के लिए कार्य करने लगती हैं, तो उनका रूप विकृत हो जाता है। विकृत होकर शासन के तीन और रूप हो जाते हैं। इस प्रकार कुल छः प्रकार के शासन होते हैं।

4. निरंकुशतन्त्र- जब एकतन्त्र दूषित हो जाता है, शासक अत्याचारी और स्वार्थी हो जाता है तो वह निरंकुश तन्त्र हो जाता है।

5. वर्गतन्त्र– जब कुछ व्यक्तियों का शासन भ्रष्ट हो जाता है तो वह वर्गतन्त्र बन जाता है।

6. कुलीनतन्त्र – जब सम्पूर्ण जनता का शासन भ्रष्ट हो जाता है तो वह भीड़तन्त्र में बदल जाता है। इसे कुलीनतन्त्र कहा जाता है। इस प्रकार, अरस्तू ने शासन के छः प्रकारों का वर्णन किया है।

अरस्तू का शासन चक्र (अथवा) संविधान में चक्रीय परिवर्तन

अरस्तू ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि जिस प्रकार ऋतुओं में स्वाभाविक परिवर्तन होता है, उसी प्रकार शासनों के संविधानों के स्वरूप में भी एक निश्चित क्रम में परिवर्तन होता है। अरस्तू के मतानुसार, संविधान का सर्वप्रथम रूप एकतन्त्र होता है, धीरे-धीरे एकतन्त्र में शासन भ्रष्ट व निरंकुश होने लगता है और एकतन्त्र निरंकुशतन्त्र में बदल जाता है। कुछ समय बाद निरंकुशतन्त्र असहनीय हो जाता है उसके विरुद्ध क्रान्ति हो जाती है। इससे कुलीनतन्त्र स्थापित होता है। धीरे-धीरे कुलीनतन्त्र में शासक वर्ग सारी सत्ता अपने हाथों में केन्द्रित कर लेता है और वह भ्रष्ट हो जाता है। इस तरह कुलीनतन्त्र, वर्गतन्त्र में बदल जाता है।

वर्गतन्त्र जब भ्रष्ट और निरंकुश हो जाता है तो अन्ततः उसे उलट दिया जाता है और लोकतन्त्र उसका स्थान ले लेता है। धीरे-धीरे लोकतन्त्र भी भ्रष्ट होने लगता है तो वह भीड़तन्त्र में बदल जाता है। अन्त में भीड़तन्त्र भी असहनीय हो जाता है। अतः उसी में से एकतन्त्र उठ खड़ा होता है। इस प्रकार राज्यों में एकतन्त्र से कुलोकतन्त्र का एक शासनचक्र चलता रहता है।

आलोचनाएँ

(1) अरस्तू प्लेटो के वर्गीकरण के आधार पर ही अपने संविधान का वर्गीकरण करता है। लेकिन दोनों के निष्कर्ष में भिन्नता है।

(2) अरस्तू के उपरोक्त वर्गीकरण को संविधान का वर्गीकरण नहीं कहा जा सकता है बल्कि यह तो शासन या सरकार का वर्गीकरण कहला सकता है।

(3) कुछ विद्वान् अरस्तू के वर्गीकरण की आलोचना करते हुए कहते हैं कि यह निश्चय करना बहुत कठिन है कि प्रभुता कहाँ निहित हैं।

(4) वर्तमान युग के किसी भी राज्य को पूर्ण रूप से प्रजातन्त्र, एकतन्त्र या कुलीनतन्त्र नहीं कहा जा सकता। अधिकांशतः संविधान में सभी शासन प्रणालियों का सम्मिश्रण पाया जाता है। ब्रिटेन व रूस को हम इसके उदाहरण में ले सकते हैं। अतः अरस्तू का वर्गीकरण अमान्य है।

(5) कुछ विद्वानों के अनुसार प्रजातन्त्र को अरस्तू द्वारा राज्य का भ्रष्ट संविधान कहना गलत है। विचारकों के मत में गणतन्त्र सरकार का उत्तम स्वरूप है, परन्तु अरस्तू Democracy को Moborcay के रूप में प्रयुक्त करता है।

अरस्तू के वर्गीकरण का औचित्य

उक्त आलोचनाओं के उपरान्त भी अरस्तू द्वारा दिया गया संविधानों (शासनों) का वर्गीकरण एक श्रेष्ठ वर्गीकरण है। यह वर्गीकरण मोटे तौर पर आज भी सही है इसलिए अरस्तू की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।

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