संवैधानिक विधि/constitutional law

उच्चतम न्यायालय के विभिन्न क्षेत्राधिकार |various jurisdictions of the Supreme Court. 

उच्चतम न्यायालय के विभिन्न क्षेत्राधिकार

उच्चतम न्यायालय के विभिन्न क्षेत्राधिकार

उच्चतम न्यायालय के विभिन्न क्षेत्राधिकारों का वर्णन कीजिये। Explain the various jurisdictions of the Supreme Court. 

सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार- भारतीय संविधान के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को विस्तृत क्षेत्राधिकार प्रदान किया गया है, जो निम्नलिखित हैं-

(1) अभिलेख न्यायालय (Court of Record)-

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 129 उच्चतम न्यायालय को अभिलेख न्यायालय घोषित करता है एवं उसे इस प्रकार के न्यायालय की सभी शक्तियाँ प्रदान करता है। अभिलेख न्यायालय से अभिप्राय दो बातों से होता है-

  1. ऐसे न्यायालय के निर्णय और कार्यवाहियाँ लिखित होती हैं तथा उन्हें हमेशा संजोये रखा जाता है ताकि भविष्य में अधीनस्थ न्यायालय के समक्ष पूर्व निर्णय (precedent) के रूप में प्रस्तुत की जा सकें।
  2. ऐसे न्यायालय को अपने अवमान के लिए किसी व्यक्ति को दण्ड देने की भी शक्ति होती है। यह शक्ति अभिलेख न्यायालय की प्रकृति में ही निहित है।

(2) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार (Primary Jurisdiction) –

उच्चतम न्यायालय को निम्नलिखित पक्षकारों के मध्य किसी विवाद में प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार प्राप्त होता है। अनुच्छेद 131 के अनुसार।

  1. संघ तथा एक या एक से अधिक राज्य के मध्य,
  2. संघ और कोई राज्य एक ओर तथा एक या अधिक राज्य दूसरी ओर,
  3. दो या दो से अधिक राज्यों के मध्य।

प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय सरकार के विरुद्ध नागरिकों द्वारा प्रस्तुत मुकदमें को स्वीकार नहीं कर सकता है। इस क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय उन्हीं विवादों को स्वीकार करेगा जिनमें कोई ऐसा तथ्य या विधि का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त हो जिस पर किसी विधिक अधिकार का अस्तित्व निर्भर करता हो।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 32 मूल अधिकारों के विरुद्ध नागरिकों को उपचार प्रदान करने के लिए उच्चतम न्यायालय को प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार प्रदान करता है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक नागरिक को अपने मूल अधिकारों के प्रवर्त के लिए उचित कार्यवाहियाँ द्वारा उच्चतम न्यायालय को संचालित करने का अधिकार प्रदान किया गया है। इसलिए उच्चतम न्यायालय को नागरिकों के मूल अधिकारों का संरक्षक और गारण्टीकर्ता कहा गया है।

उच्चतम न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत निम्न विवाद नहीं आते हैं-

(i) अनुच्छेद 131 के परन्तुक के अनुसार जो किसी ऐसी सन्धि, करार, प्रसंविदा, वचनबद्ध सनद या तत्सम लिखित से उत्पन्न हुआ है जो इस संविधान के प्रारम्भे से पहले की गयी या निष्पादित की गयी थी तथा उसके पश्चात् प्रवर्तन में है और यह उपबन्ध करती है कि उक्त क्षेत्राधिकार उस पर लागू नहीं होगा,

(ii) अनुच्छेद 262 के अन्तर्गत संसद विधि द्वारा किसी अन्तर्राज्यीय नदी या नदी की घाटी के, या उसके पानी के प्रयोग, वितरण या नियन्त्रण आदि से सम्बन्धित किसी विचार को उच्चतम न्यायालय के क्षेत्राधिकार से बाहर कर सकती है,

(iii) अनुच्छेद 280 के अन्तर्गत वित्त आयोग को सौंपे हुए विषय से सम्बन्धित विवाद,

(iv) अनुच्छेद 290 के अन्तर्गत संघ और राज्य के मध्य कतिपय खर्चों के समायोजन से सम्बन्धित विवाद।

(3) अपीलीय क्षेत्राधिकार (Appellate Jurisdiction)-

उच्चतम न्यायालय राष्ट्र का सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय है। इसे समस्त राज्यों के उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपील सुनने का अधिकार प्राप्त है। उसके अपीलीय क्षेत्राधिकार को निम्न प्रकार से विभाजित किया जा सकता है (अनु. 132)।

(i) संवैधानिक मामले (Constitutional Disputes)- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 132(1) यह उपबन्धित करता है कि, भारत का राज्य के किसी उच्च न्यायालय के निर्णय, डिक्री या अन्तिम आदेश, चाहे वे दीवानी, फौजदारी या अन्य कार्यवाहियों में दिये गये हों, की अपील उच्चतम न्यायालय में की जा सकती है, यदि उस राज्य का उच्च न्यायालय अनुच्छेद 134 (क) के अधीन यह प्रमाणित कर दे कि उस मामले में संविधान से सम्बन्धित कोई सारवान विधि का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त है। 44वें संविधान संशोधन अधिनियम ने अनुच्छेद 132(2) को निरस्त कर दिया है, जिसके अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय को उच्च न्यायालय के प्रमाण-पत्र देने से इन्कार करने पर अपील करने की अनुमति देने की शक्ति प्राप्त था।

(ii) दीवानी मामलों में अपील (Appeal in Civil Cases)- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 133 यह उपबन्धित करता है कि दीवानी मामलों में उच्च न्यायालय की किसी दीवानी कार्यवाही में किसी निर्णय, आज्ञप्ति या अन्तिम आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील तभी की जा सकेगी जब उच्च न्यायालय अनुच्छेद 134 (क) के अन्तर्गत इस बात का प्रमाण-पत्र

(अ) मामलों में कोई सार्वजनिक महत्त्व का सारवान विधि का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त है,
(ब) उच्च न्यायालय के मत में इस प्रश्न का उच्चतम न्यायालय द्वारा निपटाया जाना दे दे कि- अभीष्ट है (ये 30वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़े गये हैं)।

(iii) फौजदारी मामलों में अपील (Appeals in Criminal Cases)- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 134 के अनुसार, किसी उच्च न्यायालय को किसी दाण्डिक कार्यवाही में दिये गये निर्णय, अन्तिम आदेश या दण्डादेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील दो प्रकार से हो सकती है-

(अ) उच्च न्यायालय के प्रमाण- पत्र के बिना, (ब) उच्च न्यायालय के प्रमाण-पत्र से।

(आ) उच्च न्यायालय के प्रमाण-पत्र के बिना- निम्नलिखित मामलों में उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील होगी यदि-

  • उच्च न्यायालय ने अपील में अधीनस्थ न्यायालय द्वारा किसी अभियुक्त की विमुक्ति के आदेश को उलट दिया है तथा उसको मृत्यु-दण्ड दिया है,
  • उच्च न्यायालय ने अपील अधीनस्थ न्यायालय से किसी मामले को परीक्षण के हेतु अपने पास मँगा लिया है और अभियुक्त को स्वयं मृत्यु-दण्ड दिया है।

(ब) उच्च न्यायालय के प्रमाण-पत्र से- अनुच्छेद 134 (ग) के अनुसार, यदि उच्च न्यायालय अनुच्छेद 134 (क) के अधीन यह प्रमाणित करता है कि मामला उच्चतम न्यायालय में अपील के लायक है तो उसमें अपील की जायेगी। फौजदारी मामलों में अपील का प्रमाण-पत्र देने का अधिकार उच्च न्यायालय का एक विवेकाधिकार है। यह विवेकाधिकार एक न्यायिक विवेकाधिकार है और इसका प्रयोग सुनिश्चित एवं मान्य सिद्धान्तों के आधार पर, जो इन मामलों को विनियमित करते हैं, न्यायिक दंड से किया जाना चाहिए।

(4) विशेष इजाजत से अपील (Appeal by Special Leave) –

अनुच्छेद 136 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय अपने स्वविवेक से भारत के किसी न्यायालय या न्यायाधिकरण द्वारा किसी वाद का या विषय में दिये हुए किसी निर्णय, डिक्री, निर्धारण दण्डादेश या आदेश के विरुद्ध अपील के लिए विशेष अनुमति दे सकता है। इसका केवल एक ही अपवाद है, वह यह कि इसे सशस्त्र बलों के से सम्बद्ध किसी विधि के अधीन गठित किसी न्यायालय के निर्णय आदि से अपील की विशेष अनुमति नहीं दी जा सकती है। अनुच्छेद 136 उच्चतम न्यायालय को बड़ी विस्तृत शक्ति प्रदान करता है। देश के सर्वोच्च न्यायालय को ऐसी शक्तियों का दिया जाना सर्वथा उचित है। इस शक्ति का प्रयोग कैसे और कब किया जायेगा इसको स्वयं उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है।

प्रीतमसिंह बनाम राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित विचार व्यक्त किया है-“यह व्यापक स्वविवेकीय शक्ति, जो इन अनुच्छेद द्वारा उच्चतम न्यायालय में विहित की गयी है, बहुत कम तथा केवल विशेष मामलों में ही प्रयुक्त की जायेगी और जहाँ तक सम्भव हो, इस अनुच्छेद के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय के समक्ष आने वाले विभिन्न तरह के मामलों में अपील करने की विशेष अनुमति देने में समान मापदण्ड अपनाया जाना चाहिए।

ढाकेश्वरी काटन मिल्स बनाम कमिश्नर ऑफ इनकम टैक्स के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि, “यह एक विशिष्ट तथा अभिभावी शक्ति है और इसे बहुत कम तथा सावधानी के साथ विशेष एवं असाधारण परिस्थितियों में ही प्रयुक्त किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त किसी सुनिश्चित सूत्र या नियम के द्वारा उसके प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाना सम्भव नहीं है।” अनुच्छेद 136 के अधीन उच्चतम न्यायालय किसी पक्षकार को साम्य (equity) के आधार पर भी अनुतोष प्रदान कर सकता है भले ही वह विधि के अधीन उसका हकदार न हो, उच्चतम न्यायालय केवल विधि न्यायालय ही नहीं वरन्, साम्य न्यायालय भी है।

(5) पुनर्विचार सम्बन्धी क्षेत्राधिकार (Revision related Jurisdiction)-

संविधान के अनुच्छेद 137 के अनुसार उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त है कि वह स्वयं द्वारा दिये गये आदेश या निर्णय पर पुनर्विचार कर उचित समझे तो उसमें आवश्यक परिवर्तन कर सके। ऐसा उस समय किया जाता है जबकि सर्वोच्च न्यायालय को यह संदेह हो कि उसके द्वारा दिये गये निर्णय में किसी पक्ष के प्रति न्याय नहीं हुआ है। यदि उस विवाद के सम्बन्ध में कोई नवीन तथ्य प्रकाश में आये हों, तब भी ऐसा किया जा सकता है।

(6) सलाहकारी क्षेत्राधिकार (Advisory Jurisdiction)-

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 143 यह उपन्धित करता है कि जब राष्ट्रपति को यह प्रतीत हो कि-

  • विधि या तथ्य का कोई प्रश्न उत्पन्न हुआ है या उसके होने की सम्भावना है;
  • जो इस प्रकार का और ऐसे सार्वजनिक महत्त्व का है कि उस पर उच्चतम न्यायालय की सलाह लेना उचित है तो वह उस प्रश्न को उसके विचारार्थ भेज सकता है।

न्यायालय ऐसी सुनवाई के पश्चात् जैसा कि वह उचित समझे राष्ट्रपति को अपनी सलाह भेजेगा। अनुच्छेद 143 के निर्वचन का प्रश्न सर्वप्रथम इन रीएजूकेशन बिल के मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष आया। इसमें न्यायालय ने अनुच्छेद 143 के लागू होने के लिए निम्नलिखित सिद्धान्त विहित किये थे-

(1) अनुच्छेद 143(1) में प्रयुक्त कर सकेगा’ (may) शब्दावली यह दर्शानी है कि उच्चतम न्यायालय सलाह देने के लिए बाध्य नहीं है। यह उसकी इच्छा पर है कि वह अपनी गय दे या न दे।

(2) उच्चतम न्यायालय की कौन से प्रश्न सोपे जायें इनका निर्धारण गएपनि करना है। अनुच्छेद 143 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गयी राय, यद्यपि आदर के योग्य है, परन्तु वह न्यायालयों के ऊपर बाध्यकारी नहीं है।

अब यह निश्चित हो गया है कि राष्ट्रपति जब सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श मांग; नव सर्वोच्च न्यायालय उस विषय पर विचार करने के बाद यदि परामर्श देना अनुचिन या अनावश्यक समझे; तो उसके द्वारा किसी विषय विशेष पर राष्ट्रपति को परामर्श देने से इंकार किया जा सकता है।

(7) न्यायिक क्षेत्र का प्रशासन-

सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक क्षेत्र के प्रशासन का अधिकार भी प्राप्त है। संविधान के अनुच्छेद 146 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय को अपने कर्मचारियों की नियुक्ति तथा उनकी सेवा शर्ते निर्धारित करने का अधिकार प्राप्त है लेकिन राष्ट्रपति आवश्यक समझे तो यह निर्देश दे सकता है कि इस प्रकार की नियुक्तियाँ लोक सेवा आयोग के परामर्श के बाद की जायें। सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय को भी न्यायिक प्रशासन के सम्बन्ध में निर्देश दे सकता है।

इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय को संघीय व्यवस्था और मौलिक अधिकारों के रक्षक तथा भारतीय संघ के अन्तिम अपीलीय न्यायालय के रूप में बहुत अधिक व्यापक क्षेत्राधिकार प्राप्त है।

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