राजनीति विज्ञान / Political Science

संयुक्त राष्ट्र संघ के शान्ति स्थापना में योगदान का मूल्यांकन कीजिए।

संयुक्त राष्ट्र संघ के शान्ति स्थापना में योगदान

संयुक्त राष्ट्र संघ का सर्वोपरि उद्देश्य है विश्व-शान्ति एवं सुरक्षा बनाये रखना और इसकी मुख्य जिम्मेदारी सुरक्षा परिषद् पर है। यहाँ पर यह कहना गलत न होगा कि विश्व शान्ति को खतरे में डालने वाला कोई भी बड़ा अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष तभी उभर या पनप सकता है, जब उसे एक या अधिक बड़े राष्ट्रों की सहायता या समर्थन प्राप्त हो। लेकिन ऐसे किसी भी संघर्ष को सुरक्षा परिषद् कैसे रोक या नियंत्रित कर सकती है, जबकि हर बड़े राष्ट्र अर्थात् अमरीका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन को तात्विक या वास्तविक प्रश्नों के निर्णय में निषेधाधिकार (वीटो) प्राप्त है ?

द्वितीय विश्व-युद्ध के अनन्तर यानि संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के बाद से 5-6 बड़े संघर्ष या अन्तर्राष्ट्रीय संकट के प्रसंग उत्पन्न हुए हैं- बर्लिन का संकट (1948-49), क्यूबा प्रक्षोस्त्र संकट (1962), हंगरी का संकट (1956), चेकोस्लोवाकिया का संकट (1968) और वियतनाम युद्ध (1968-73)। हाल के वर्षों में उत्पन्न हुई तीन गम्भीर संकटकालीन स्थितियां हैं- अफगानिस्तान का संकट (1979), पोलैण्ड का संकट (1981-82) और ‘आपरेशन इराकी फ्रीडम’ (मार्च 2003)। इन सभी में एक-न-एक महाशक्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हिस्सेदार थी। इसीलिए इनमें सुरक्षा परिशद् कोई असरदार कार्यवाही नहीं कर सकी। मई, 2003 में आखिर सुरक्षा परिषद ने इराक मसले पर अमरीका के आगे घुटने टेक दिए। इराक पर अमरीका और ब्रिटेन के कब्जे को स्वीकृत दे दी, साथ ही उसके पुनर्निर्माण और शासन व्यवस्था की जिम्मेदारी भी सौंप दी। सिर्फ कोरिया संघर्ष (1950-53) में सुरक्षा परिषद् ने ऐसी कार्यवाही करने का निर्णय किया था। लेकिन में जैसा कि सर्वविदित है, सोवियत प्रतिनिधिमण्डल के रहते हुए हालांकि (उन दिनों वह परिषद् में स्वेच्छा से अनुपस्थित था) यह निर्णय कार्यान्वित होना असम्भव था।

यह सही है कि पिछले 60 वर्षों में कोई महायुद्ध अथवा अमरीका-रूस के बीच सीधा फौजी टकराव नहीं हुआ लेकिन इसका श्रेय इन दोनों के बीच स्थापित ‘नाभिकीय संतुलन और सम्भावित परमाणु युद्ध के भीषण परिणामों के एहसास को है, न कि संयुक्त राष्ट्र संघ को ।

संयुक्त राष्ट्र संघ की युद्ध निरोधक भूमिका के संदर्भ में यह भी याद रखना होगा कि पिछले पांच दशकों में क्षेत्रीय स्तर पर लगभग 150 छोटे-बड़े सैन्य संघर्ष हुए हैं; चंद उदाहरण हैं- भारत-चीन युद्ध, भारत-पाकिस्तान संघर्ष ( चार बार), अरब-इजराइल युद्ध (चार बार), इथोपिया-सोमालिया, संघर्ष, वियतनाम कम्पूचिया संघर्ष, युगाण्डा-तंजानिया संघर्ष और ईरान इराक युद्ध। इन सबका निपटारा वस्तुतः सम्बद्ध देशों की सीधी वार्ता या दूसरे की मध्यस्थता से हुआ है और उसमें संयुक्त राष्ट्र संघ की या तो कोई भूमिका नहीं रही या नगण्य रही। विवादों या झगड़ों के शान्तिपूर्ण निपटारे के सिलसिले में भी बहुत कुछ यही स्थिति रही है। भारत के निकटवर्ती दक्षिण एशिया के क्षेत्र को ही लीजिए। इस क्षेत्र में भारत-पाक युद्धों के उपरान्त हुए ताशकंद और शिमला समझौतों के अतिरिक्त तीन बड़े विवादों का सामना हुआ है- भारत-पाक युद्धों के उपरान्त हुए ताशकंद और शिमला समझौतों के अतिरिक्त तीन बड़े विवादों का समाधान हुआ है- भारत और श्रीलंका के बीच शास्त्री-सिरमावो समझौता (1964), भारत-पाकिस्तान के बीच कच्छ विवाद का निपटारा (1965-66) और भारत – बंगलादेश के बीच फरक्का समझौता (1977), इनमें से पहले और तीसरे का समाधान सीधी द्विपक्षीय बातचीत से हुआ और कच्छ विवाद का पंच फैसले द्वारा हाँ, कश्मीर विवाद कई वर्षों तक सुरक्षा परिषद् की कार्यसूची पर रहा, लेकिन सुलझने के बजाय, उलझता ही गया। हाल ही में पूर्व यूगोस्लाविया (बोस्निया), रवांडा तथा सोमालिया में संयुक्त राष्ट्र को असफलता का मुंह देखना पड़ा और संघ की छवि धूमिल हुई है।

उपनिवेशवाद के विघटन के मामले में 14 दिसम्बर, 1960 को संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा ने 89 मतों से ‘उपनिवेशवाद विघटन घोषणा’ पारित की। निश्चय ही इस ऐतिहासिक घोषणा के बाद लगभग 50 राष्ट्रों को स्वाधीनता प्राप्त हुई। शायद यह भी स्वीकार करना होगा कि विभिन्न उपनिवेशों में स्वाधीनता सेनानियों को इस घोषणा से नया बल और प्रोत्साहन मिला। लेकिन जहाँ तक इसमें संयुक्त राष्ट्र संघ के सीधे व ठोस योगदान का प्रश्न है, औपनिवेशक समस्याओं के विख्यात अमरीकी विशेषज्ञ रूपर्ट इमरसन का कहना है- “उपनिवेशवाद के क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र कोई ठोस कार्यवाही नहीं कर सका है। उपनिवेशवाद विघटन की अधिकांश राजनीति (और कोशिश) संयुक्त राष्ट्र संघ के घेर से नहीं गुजरी। प्रायः उपनिवेशवाद विघटन सम्बन्धी सभी कार्यवाहियां उपनिवेश निवासियों के शान्तिपूर्ण या गैर शान्तिपूर्ण प्रयासों (अथवा तज्जनित द्विपक्षीय समझौतों) के फलस्वरूप हुईं।”

निरस्त्रीकरण के प्रश्न पर जनवरी 1946 में लन्दन में हुए महासभा के प्रथम सत्र में विचार-विमर्श हुआ था। इसके बाद प्रायः महासभा के हर वार्षिक सम्मेलन में इस पर विचार होता में रहा। इसके अलावा ‘आंशिक परीक्षण निरोध सन्धि’ (1963) और ‘परमाणु अप्रसार सन्धि (1968) से सम्बन्धित विचार-विमर्श में संयुक्त राष्ट्र संघ का सीमित योगदान रहा। लेकिन इन सन्धियों की मुख्य धाराओं पर सहमति महाशक्तियों तथा दूसरे राष्ट्रों की आपसी बातचीत से ही हुई। दोनों ‘साल्ट’ समझौते (1972 और 1979), आई.एन.एफ. सन्धि (1987) एवं स्टार्ट सन्धि (1991) भी अमरीका और सोवियत संघ के बीच सीधी बातचीत के फलस्वरूप ही हुए।

परन्तु इन सब कमजोरियों के बावजूद यह मानना होगा कि संयुक्त राष्ट्र ने संघर्ष की कई स्थितियों में- जैसे कि कांगों और साइप्रस में- शान्ति रक्षा के क्षेत्र में महत्त्वूर्ण योगदान किया है। इसी प्रकार कई अन्तर्राष्ट्रीय विवादों में जैसे कि भारत-बंगलादेश विवाद तथा पश्चिम एशिया संकट में उसके विचार-विमर्श एवं सलाह-मशविरे के माध्यम से हालत की गहमागमी को कम करने में ‘कूलर’ की भूमिका निभायी है। अफगानिस्तान से सोवियत सैनिकों की वापसी के बारे में जेनेवा समझौता (अगस्त 1988), इराक-ईरान युद्धविराम समझौता (अगस्त 1988), नामीबिया की स्वतंत्रता सम्बन्धी समझौता (13 दिसम्बर, 1988), अंगोला से क्यूबाई सैनिकों की वापसी के लिए पर्यवेक्षकों का दल तैनात करना आदि हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां कही जा सकती हैं। वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र की 16 शान्ति सेनाएं विभिन्न क्षेत्रों में तैनात हैं। 1945 से अब तक संघ की देख-रेख में लगभग 172 क्षेत्रीय संघर्षों का निदान शान्तिपूर्ण समझौतों द्वारा किया जा चुका है। अपने 60 वर्ष की कालावधि में कम्बोडिया, नामीबिया, अल साल्वाडोर, मोजाम्बिक जैसे 45 देशों में निष्पक्ष चुनाव करवाकर लोकतंत्र की स्थापना में संघ ने सहयोग दिया है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के तहत् 170 सदस्य देशों में कृषि, उद्योग, शिक्षा और पर्यावरण संरक्षण की लगभग 5,000 परियोजनाओं के लिए 1.3 बिलियन डॉलर के बजट द्वारा संघ विकास एवं उन्नयन के कार्य में जुटा हुआ है। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद को समाप्त करने की दिशा में संघ को अभूतपूर्व सफलता मिली है। इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्यालय का अपना विशिष्ट वातावरण है। उसके कॉफी हाउसों, लॉउंज और गलियारों में परस्पर विरोधी पक्षों के प्रतिनिधि चाहे-अनचाहे आपस में मिल जाते हैं। इस तरह विरोधियों के बीच संवाद- सम्पर्क पूरी तरह टूटता नहीं है। इन अनौपचारिक सम्पर्क के फलस्वरूप कभी-कभी कुछ शंकाओं का निवारण हो जाता है या तनाव कम हो जाते हैं।

संक्षेप में, संयुक्त राष्ट्र संघ अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को उम्र होने से रोकने के लिए एक सेफ्टी वाल्व (Safety Valve) का काम करता है। राल्फ बुन्चे के अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रमुख विशेषता यह है कि यह राष्ट्रों को बातचीत में व्यस्त रखता है। वे जितनी अधिक देर तक बात करते रहें, उतना ही अधिक अच्छा है क्योंकि उतने समय युद्ध टल जाता है।

इसे भी पढ़े…

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment