राजनीति विज्ञान / Political Science

संयुक्त राष्ट्र संघ की उपलब्धियां | संयुक्त राष्ट्र संघ की असफलताएं |संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्य

संयुक्त राष्ट्र संघ की उपलब्धियां
संयुक्त राष्ट्र संघ की उपलब्धियां

संयुक्त राष्ट्र संघ की उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए।

संयुक्त राष्ट्र संघ के शान्ति स्थापित करने सम्बन्धी कार्यों का मूल्यांकन उसकी सफलता और असफलता के आधार पर ही किया जा सकेगा। अनेक राजनीतिक विवादों को निपटाने में संघ को सफलता प्राप्त हुई है। किन्तु कुछ प्रमुख विवादों जैसे- कश्मीर, वियतनाम, अरब इजराइल आदि का संघ समाधान नहीं कर पाया। वैसे प्रत्येक बड़े संघर्ष के बाद उसने युद्ध विराम कराने की ही भूमिका निभायी है। यह बात सच है कि संयुक्त राष्ट्र संघ को राजनीतिक विवादों के हल में उतनी सफलता नहीं मिल जितनी आर्थिक और रचनात्मक कार्य के क्षेत्रों में उसने एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमरीका के विकासशील देशों की स्थिति सुधारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। विश्वभर के बच्चों, विकलांगों और नेत्रहीनों के लिए संयुक्त राष्ट्र जो कुछ कर रहा है वह किसी से छुपा हुआ नहीं है। उसके सहयोग के फलस्वरूप ही अनेक देशों में ऐसी बीमारियों का नामोनिशान नहीं रहा है जिनसे पहले लाखों लोग प्रतिवर्ष असमय ही काल के ग्रास बन जाते थे। संघ की स्थापना से लेकर अब तक मानवता को तृतीय महायुद्ध का भीषण रूप देखने को नहीं मिला, इसका श्रेय संयुक्त राष्ट्र को ही दिया जा सकता है। जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, “संयुक्त राष्ट्र संघ ने कई बार हमारे उत्पन्न होने वाले संकटों को युद्ध में परिणत होने से बचाया है। इसके बिना हम आधुनिक विश्व की कल्पना नहीं कर सकते।” यदि यह संस्था असफल होती है तो मानव सभ्यता के सामने विनाश के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है। यह ‘भावी पीढ़ी की सुरक्षा की गारण्टी एवं विश्व संघर्षों को रोकने का ‘सेफ्टी वाल्व’ है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की उपलब्धियां

उपनिवेशवाद की समाप्ति के प्रश्न या लोगों के आत्म-निर्णय के अधिकार के प्रति संयुक्त राष्ट्र का सरोकार और चिन्ता लगातार रही हैं। इस संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र का एक उल्लेखनीय कदम 14 दिसम्बर, 1960 को की गई वह घोषणा थी, जिसमें औपनिवेशिक देशों और लोगों की स्वतंत्रता का आह्वान किया गया था। घोषणा में उपनिवेशवाद को मौलिक मानवाधिकारों का उल्लंघन और विश्व शान्ति के मार्ग में रुकावट बताया गया था। इस घोषणा के बाद से बड़ी संख्या में अधीन क्षेत्रों ने उपनिवेशी दासता से मुक्ति पायी और सार्वभौमिक स्वतन्त्र राष्ट्रों के रूप में उभरकर सामने आये। यह इस तथ्य से सिद्ध होता है कि वर्षों के बाद संयुक्त राष्ट्र की सदस्य संख्या 51 से बढ़कर 191 हो गई है। उपनिवेशवाद की समाप्ति की दिशा में संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों का एक विशिष्ट उदाहरण नामीबिया की स्वतंत्रता से सम्बद्ध है।

उपनिवेशवाद की समाप्ति के बाद अनेक नये राष्ट्रों के उदय ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की दुनिया में उथल-पुथल मचा दी। विश्व शान्ति को खतरे में डालने वाले अनेक सीमा विवाद उठ खड़े हुए। इसके साथ ही शीत युद्ध के तनाव के कारण भी स्थिति संकटपूर्ण थी। इन दोनों ही सिलसिलों में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की स्थापना तथा विवादों के शान्तिपूर्ण समझौतों के क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र संघ ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। स्वेज, बर्लिन, कांगो, कोरिया, लेबनान के ने झगड़ों में संयुक्त राष्ट्र संघ ने भयंकर युद्ध आरम्भ होने से विश्व को बचाया। वस्तुतः संयुक्त राष्ट्र ने 1956 में स्वेज संकट के समय से साइप्रस, लेबनान और कांगो के जरिये ‘शान्ति बनाए रखने में में बहुत कुछ किया है। अन्य क्षेत्रों में कम्बोडिया और कुवैत में उसके हाल के प्रयास उल्लेखनीय हैं। रंगभेद तथा जातिभेद मिटाने के लिए सं.रा. संघ की महासभा में अनेक प्रस्ताव पारित किये गये जिनसे सदस्य राष्ट्रों में यह भेदभावपूर्ण स्थिति काफी कम हुई। मानवीय मसलों पर संयुक्त राष्ट्र संघ का रिकार्ड अद्वितीय है, उसने अनेक सफलताएं अर्जित की हैं। विभिन्न देशों की आन्तरिक व वैदेशिक समस्याओं, गृह युद्धों व नस्लीय तनावों, युद्धों व जनसंहारात्मक कार्यों से उत्पन्न विस्थापितों व शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ वरदान रहा है। बाढ़, अकाल, सूखा, पर्यावरणीय प्रदूषण की वजह से हो रही क्षति आदि के मसलों पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने सहायता उपलब्ध कराने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। पर्यावरण सुधार, जनसंख्या वृद्धि पर रोक, जन स्वास्थ्य संवर्द्धन, बच्चों, स्त्रियों, वृद्धों, विकलांगों, आवासविहीन लोगों को मदद तथा बीमारियों से ग्रसित व्यक्तियों को जीवनदान देने में इस संस्था ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने राष्ट्रों के आपसी तनाव एवं मतभेदों को दूर करने के लिए अनेक मंच प्रदान किये हैं जिनमें ‘अंकटाड’ एवं ‘समुद्री कानून सम्मेलन’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

हाल ही में रासायनिक हथियारों पर प्रतिबन्ध के सिलसिले में संयुक्त राष्ट्र को उल्लेखनीय सफलता मिली है। दो दशक से अधिक की बातचीत के बाद 12 नवम्बर, 1992 को महासभा के 144 सदस्यों ने एक संधि के मसौदे को प्रायोजित किया जिसमें सभी प्रकार के रासायनिक हथियारों और जहरीली गैसों के इस्तेमाल, निर्माण और भंडारण पर प्रतिबन्ध लगाने की व्यवस्था है। 29 अप्रैल, 1997 से यह सन्धि सम्पूर्ण विश्व में बिना किसी भेदभाव के लागू हो गई। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद निरस्त्रीकरण की दिशा में यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।

“व्यापक परमाणु परीक्षण निषेध सन्धि (CTBT) के कार्यान्वयन की प्रगति के मूल्यांकन के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा एक विशेष सम्मेलन का आयोजन 6-8 अक्टूबर, 1999 को वियतना में किया गया। जापान की अध्यक्षता में सम्पन्न इस सम्मेलन में 92 देशों के 400 से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया। संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा इस सम्मेलन का आयोजन सन्धि के उस प्रावधान के तहत किया गया था जिसमें कहा गया है कि सन्धि को हस्ताक्षर के लिए उपलब्ध कराए जाने की तिथि (24 सितम्बर, 1996) तीन वर्ष के भीतर यदि विविध परमाणु क्षमताओं वाले सभी 44 राष्ट्रों द्वारा इस सन्धि का अनुमोदन नहीं किया गया तो संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेष सम्मेलन में आगे की कार्यवाही के लिए विचार किया जाएगा।

सन्धि के प्रभावी होने के लिए विश्व के उन सभी 44 देशों द्वारा इसकी पुष्टि किया जाना आवश्यक है जिनके पास परमाणु शस्त्र अथवा परमाणु विद्युत् संयन्त्र अथवा परमाणु क्षमता उपलब्ध है। विविध परमाणु क्षमताओं वाले इन 44 राष्ट्रों में से अभी तक 26 ने ही सन्धि का अनुमोदन किया है जबकि तीन देशों- भारत, पाकिस्तान व उत्तर कोरिया ने इस पर अभी हस्ताक्षर भी नहीं किए हैं।

तीन दिन चले इस सम्मेलन में भारत, पाकिस्तान व उत्तर कोरिया से सन्धि पर हस्ताक्षर करने व उसका अनुमोदन करने की अपील की गई ताकि संधि को लागू किया जा सके।

संयुक्त राष्ट्र संघ की असफलताएं

इतना होते हुए भी संयुक्त राष्ट्र संघ को निरस्त्रीकरण, हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र बनाने, रोडेशिया, नामीबिया तथा दक्षिणी अफ्रीका में बहुसंख्यक अश्वेतों का शासन स्थापित करवाने विकसित एवं विकासशील देशों के बीच आर्थिक असंतुलन को कम करने, विकसित तथा अविकसित देशों द्वारा समुद्री सम्पदा के उचित दोहन, गरीब राष्ट्रों को उनके कच्चे माल की वाजिब कीमत दिलाने आदि मसलों में आंशिक सफलता ही मिली।

यह भी ज्ञातव्य है कि निर्मम हमलों के अनेक मामलों में संयुक्त राष्ट्र कार्यवाही करने में विफल रहा क्योंकि ऐसे मामलों में स्पष्टतः महाशक्तियों का सरोकार था और वे शीतयुद्ध की अपेक्षाओं को पूरा करते थे। ऐसे मामलों में चीन का भारत पर आक्रमण, सोवियत संघ की सेनाओं द्वारा हंगरी और चेकोस्लोवाकिया पर हमला, अमरीका का ग्रेनाडा पर कब्जा, चीन का वितयनाम पर, सोवियत सेनाओं का अफगानिस्तान पर कब्जा, अमरीका- ब्रिटेन द्वारा इराक पर आक्रमण (मार्च-अप्रैल, 2003) शामिल हैं। 24 मार्च, 1999 को जब यूरो- अमरीकी सैनिक संगठन नाटो ने बिना संयुक्त राष्ट्र की स्वीकृति प्राप्त किए यूगोस्लाविया पर बमबारी शुरू कर दी। तो इस आक्रमण ने संयुक्त राष्ट्र संघ की सम्प्रभुता एवं प्रासंगिकता पर सवालिया निशान अंकित कर दिया। कोसोवो प्रसंग पर अमरीका व नाटो का नाम लिए बिना महासचिव अन्नान ने कहा कि सुरक्षा परिषद की अवहेलना कर परिषद के सदस्य देशों एवं क्षेत्रीय संगठनों ने संयुक्त राष्ट्र संघ की सम्प्रभुता को चोट पहुँचाई है।

बोस्निया, सोमालिया और रवांडा में शांति अभियानों में संयुक्त राष्ट्र को वर्ष 1993 96 में विशेष सफलता नहीं मिली। संयुक्त राष्ट्र बोस्निया में सब को शान्ति समझौता मंजूर करने के लिए नहीं मना पाया। रवांडा में खून-खराबे के दौरान ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने इस मध्य अफ्रीकी देश से अपने शांति सैनिक बुला लिए। सोमालिया में शांति सैनिकों पर हमलों को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र वहाँ अपनी उपस्थिति घटाने लगा। इराक पर अमरीकी और ब्रिटिश सेना के हमले के समय (मार्च, 2003) संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद दो खेमों में बंटी नजर आ रही थी। जिसमें ब्रिटेन और अमरीका एक तरफ थे जो हमले की वकालत कर रहे थे और फ्रांस व रूस अलग खेमे में थे जो हमले का जोरदार विरोध कर रहे थे।

यह भी देखा गया है कि विश्व महाशक्तियों ने अनेक अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को सुलझाने के लिए सं.रा. संघ की बजाय सीधे द्विपक्षीय परामर्श का सहारा लिया है। यह बात संयुक्त राष्ट्र संघ की कमजोरी को इंगित करती है। साल्ट-2 तथा हिन्द महासागर के विसैन्यीकरण पर अमरीका तथा सोवियत संघ सीधी बातचीत करते रहे। कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं जब निर्धन देशों के आर्थिक विकास कार्यक्रमों में संयुक्त रा. संघ के संगठनात्मक ढांच ने उनको नुकसान पहुँचाया है। जैसे विश्व बैंक में समर्थित सदस्यों की भीड़ के कारण मदद में प्राथमिकता पश्चिम समर्थक राष्ट्रों को ज्यादा मिली तथा जरूरतमंद देशों को कम। सुरक्षा परिषद में ‘वीटो’ के अधिकार ने भी चीन, दोनों कोरिया तथा वियतनाम को सदस्यता के लिए एक लम्बे समय तक वंचित रखा। ‘वीटो’ के कारण ही संयुक्त राष्ट्र संघ अनेक स्थानों पर प्रभावकारी कार्यवाही नहीं कर पाया।

बदलती विश्व राजनीति

1945 में सं.रा. संघ की स्थापना के समय केवल 51 राष्ट्र ही इसके सदस्य थे। प्रारम्भ में इसकी सदस्यता केवल यूरोपीय देशों तक ही सीमित थी, किन्तु आज इसके 191 राष्ट्र सदस्य हैं जिनमें करीब 135 राष्ट्र तीसरी दुनिया के हैं। अर्थात् संख्यात्मक शक्ति के हिसाब से तीसरी दुनिया के विकासशील देश दो-तिहाई से अधिक हैं। इससे यह सच्चे अर्थों में विश्वव्यापी संगठन बना है। हालांकि अब भी इसमें बड़ी शक्तियों का बोलबाला रहता है, फिर भी तीसरी दुनिया के देशों की अपनी संख्यात्मक शक्ति के आधार पर मतदान में विजय नैतिक प्रभाव जरूर छोड़ती है।

दूसरा परिवर्तन, पहले संयुक्त राष्ट्र संघ राजनीतिक एवं सुरक्षा से सम्बद्ध उद्देश्यों की प्राप्ति पर अधिक जोर देता था क्योंकि विभिन्न राष्ट्रों के मध्य सीमा युद्ध, आपसी अविश्वास एवं तनाव अत्यधिक रहता था। इन संदर्भों में तनाव कम होने पर अब यह संगठन राष्ट्रों में आपसी आर्थिक सहयोग, विकास, टेक्नोलॉजी एवं विज्ञान के कार्यक्रम पर अपेक्षाकृत अधिक बल दे रहा है। आज संयुक्त राष्ट्र संघ की 80% गतिविधियां सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं से सम्बद्ध हैं। अनेक विकास कार्यक्रम जन कल्याण में सहायक सिद्ध हो रहे हैं। तीसरे, पिछले कुछ वर्षों से संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवाधिकारों की रक्षा के लिए भी अनेक ठोस कार्य किये हैं।

नवीन चुनौतियां

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की प्रारम्भिक एवं आज की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में कई आधारभूत परिवर्तन हुए हैं। अब शीत युद्ध समाप्त हो चुका है किन्तु उदीयमान नई विश्व-व्यवस्था में अमरीकी दादागीरी एवं धौंस का खतरा बढ़ गया है। सोवियत सत्ता के अवसान के बाद अमरीका और अन्य पश्चिमी शक्तियों के लिए शीत युद्ध भले ही खत्म हो गया है लेकिन तीसरी दुनिया के देशों के खिलाफ शीत युद्ध और तेज हो गया है। वस्तुतः अब संघर्ष विकसित तथा गरीब देशों के बीच है। अंकटाड एवं समुद्री कानून सम्मेलनों में उनके मतभेदों को स्पष्ट तोर से देखा गया है।

उक्त संदर्भ में निर्धन देशों के कच्चे माल की उचित कीमत, समुद्री सम्पदा के दोहन का उनका बराबरी का अधिकार, उनके लिए तकनीकी ज्ञान की व्यवस्था आदि मुद्दे नवीन चुनौतियां हैं जिनको पूरा करना समानता एवं न्याय पर आधारित नवीन अर्थव्यवस्था के लिए अति आवश्यक है। विश्व में अबाध गति से बढ़ती परमाणु शस्त्रों की होड़ को रोकने के लिए ठोस कदम उठाना जरूरी है। इन सभी मामलों पर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा तत्काल ध्यान दिया जाना चाहिए।

महत्त्वपूर्ण पंचायत

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व शान्ति एवं सुरक्षा की स्थापना के लिए एक महत्त्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय पंचायत की भूमिका अदा की है। विश्व राजनीति के बदलते स्वरूप से कदम मिलाते हुए अर्थात् उसने राजनीतिक एवं सुरक्षात्मक चुनौतियों के कम होने पर अनेक आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी के क्षेत्र में विकास एवं सहयोग कार्यक्रम आरम्भ कर अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय की भावना को जाग्रत किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि संयुक्त राष्ट्र संघ अनेक विश्व समस्याओं को सुलझाने में आंशिक सफलत ही प्राप्त कर पाया है फिर भी इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि उसने कई नाजुक मामलों में हाथ डालकर विश्व-समाज को महायुद्ध के विनाश से बचाया है। आज आवश्यकता इस बात की है कि दुनिया के समस्त राष्ट्र आपसी सहयोग, विश्वास एवं समझ के आधार पर विश्व संगठन पर भरपूर समर्थन देने लगें तो अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा का स्वप्न साकार हो सकता है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यप्रणाली के कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ तत्काल सुधार एवं समायोजन की आवश्यकता है। पिछले 25 वर्षों में संयुक्त राष्ट्र का व्यापक विस्तार हुआ है और इसकी सदस्य संख्या 194 हो गयी है। इसे देखते हुए यह अपील की जा रही है कि सुरक्षा परिषद की सदस्यता बढ़ायी जाये ताकि शान्ति और सुरक्षा के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों से निबटा जा सके और संगठन की सदस्य संख्या में हुई वृद्धि के अनुपात में इसे अधिक प्रतिनिधित्वपूर्ण बनाया जा सके।

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