समावेशी शिक्षा की अवधारणा, आवश्यकता एवं महत्व का उल्लेख कीजिये।
समावेशी शिक्षा की अवधारणा में निम्नलिखित तथ्य दिखायी देते हैं-
i. शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक बच्चे का अधिकार है।
ii. यह समावेश के सिद्धान्त पर आधारित है।
iii. भेदभाव रहित शिक्षा प्रदान की जाय।
iv. समायोजन की कला का विकास करना।
v. इसमें सामान्य विशिष्ट, अपंग सभी बच्चे मिलकर शैक्षिक अनुभव प्राप्त करते हैं।
vi. इसका उद्देश्य सामान्य शिक्षा में सभी को एक साथ शिक्षण करना है।
vii. विशिष्ट बालकों को शिक्षा की मुख्य धारा में सम्मिलित करना।
viii. प्रत्येक बच्चे में कोई न कोई विशिष्ट योग्यता होती है। उसका विकास करना और उसे आगे बढ़ाना।
ix. विशिष्ट व सामान्य बालकों में सामाजिक कुशलता व व्यवहार का विकास करना।
समावेशी शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्व
वर्तमान में जनसंख्या बढ़ने से बालकों की संख्या के साथ साथ उनकी बढ़ती हुई विभिन्नतायें भी एक समस्या का रूप ले रही है। इन सभी प्रकार की विभिन्नताओं को साथ लेकर सभी को समान शिक्षा प्रदान करना समावेशी शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है। यह शिक्षा भाषा धर्म लिंग, संस्कृति तथा सामाजिक एवं शारीरिक, मानसिक गुणों की विविधता वाले बालकों को एक -दूसरे से सीखने, सामाजिक रूप से सम्बन्धित होने तथा समायोजित होने के बहुमूल्य प्रदान करती है। वर्तमान में समावेशी शिक्षा अपरिहार्य आवश्यकता बन गई है। वैयक्तिक पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय विकास को दृष्टि से यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। समावेशी शिक्ष की आवश्यकता एवं महत्व इस प्रकार हैं-
1. शिक्षा के स्तर को बढ़ाना- समावेशी शिक्षा “सबके लिये शिक्षा की अवधारणा पर ही नहीं बल्कि सबक लिये गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की अवधारणा पर आधारित है। इस शिक्षा प्रणाली में बच्चों के शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक, सांस्कृतिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है। इस पद्धति में शिक्षण प्रक्रिया ऐसे नियोजित की जाती है जैसे कि हर बच्चा अपना सम्पूर्ण विकास कर सके और अपनी योग्यता या क्षमता का विकास कर सके।
2. संवैधानिक उत्तरदायित्व का निर्वाह- भारत के संविधान में भी स्पष्ट कहा गया है कि किसी भी बच्चे को जाति, धर्म, भाषा, शारीरिक अक्षमता, लिंग आदि के कारण शिक्षा से वंचित नहीं किया जा सकता है। इसका निर्वहन करने तथा इसकी प्रगति के लिये शिक्षा का अधिकार कानून भी बना दिया गया है। जिसके अनुसार शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक बच्चे का अधिकार है। उसे कोई भी शिक्षण संस्थान शिक्षा देने से इन्कार नहीं कर सकता। समावेशी शिक्षा भी सभी को शिक्षा प्रदान करने का आह्वान करती है।
3. सामाजिक समानता- समावेशी शिक्षा समानता के सिद्धान्त का अनुसरण करती है। कि जेनेवा में हुए अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में कहा गया कि “स्कूल ही एक ऐसा स्थान है जहाँ सभी बच्चे भागीदार होते हैं तथा सभी के साथ समान व्यवहार किया जाता है।” इसका अर्थ यह हुआ कि स्कूल ही एक ऐसा स्थान है जहाँ पर सभी बच्चों को अध्यापक द्वारा एक समान शिक्षण कराया जाता है। जहाँ जाति, धर्म, लिंग, समुदाय, भाषा, मानसिक गुणों की विभिन्नता वाले बच्चों को एक साथ समान शिक्षण कराया जाता है। समावेशी शिक्षा शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक व सामाजिक रूप से बाधित बालकों को सभी के साथ शिक्षा प्रदान करने पर बल देती है।
4. व्यक्तिगत जीवन का विकास- यह शिक्षा व्यक्तिगत जीवन के विकास में लाभकारी होती है। बच्चों की मानसिकता व दृष्टिकोण में परिवर्तन करना समावेशी शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है। इस शिक्षा का केन्द्र बालक है। बालकों के संज्ञानात्मक संवेगात्मक, सामाजिक व मानसिक विकास के लिए इसका विशेष महत्व है।
5. समाज के विकास के लिए- व्यक्ति ही समाज का निर्माण करते हैं व्यक्तियों के संयोग के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। यदि सम्पूर्ण समाज का विकास करना है तो सभी को शिक्षा प्रदान करना आवश्यक है। व्यक्ति के परिश्रम, सूझबूझ व प्रयासों से ही उसका जीवन संवरता है और शिक्षा का योगदान इसमें सर्वाधिक रहता है। इस प्रकार समाज का विकास उसके सुयोग्य नागरिकों पर निर्भर करता है वर्तमान समय की यह माँग है कि शिक्षा के माध्यम से प्रत्येक बालक को सशक्त बनायें तथा ऐसे प्रयत्न किये जाये कि जिससे प्रत्येक बच्चा अपनी-अपनी योग्यता व कुशलता का विकास करे। समावेशी शिक्षा में समाज के प्रत्येक बच्चे को शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान है जिससे कि वे सभी शिक्षित होकर रोजगार प्राप्त कर सकें व अच्छे समाज के निर्माण में सहायक हो सकें।
6. लोकतान्त्रिक गुणों का विकास- समावेशी शिक्षा बच्चों के लोकतान्त्रिक गुणों के विकास में सहायक होती है। लोकतान्त्रिक गुणों के अन्तर्गत प्रेम, सद्भावना, सहयोग, सहनशीलता, एक-दूसरे का सम्मान आदि आते हैं। समावेशी शिक्षा में सभी बच्चों को एक साथ एक ही कक्षा में शिक्षण करने से इन गुणों का विकास सम्भव है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह शिक्षा प्रणाली अपने पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियों, स्कूल तथा कक्षा में, या कक्षा से बाहर पारस्परिक क्रिया तथा व्यवहार में गतिशीलता व समायोजन को बल देती है।
7. उचित समायोजन- समावेशी शिक्षा से छात्र विभिन्न परिस्थिति व वातावरण में समायोजन करना सीखते हैं, अनेक अध्ययनों से पता चलता है कि नियमित रूप से मिल-जुलकर कार्य करने से छात्रों में सकारात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न होता है।
8. राष्ट्र की प्रगति- शिक्षा किसी भी देश के विकास व प्रगति के लिए आवश्यक है। यूनेस्को ने जनेवा में सम्मेलन 2008 में एक रिपोर्ट दी और स्पष्ट किया कि प्राथमिक शिक्षा को इतने विस्तार के बावजूद भी अभी 72 मिलियन बच्चे निर्धनता या सामाजिक स्तर के कारण विद्यालय में प्रवेश नहीं ले पा रहे हैं। राष्ट्र के विकास एवं प्रगति के लिये मानवीय संसाधन का कुशल होना आवश्यक है और यह कुशलता शिक्षा के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। यदि कोई असमर्थ बालक शिक्षा प्राप्त करता है तो उसमें उन सभी गुणों का वांछित विकास होता है जिनकी शिक्षा से अपेक्षा रहती है। यदि व्यक्ति या बालक शिक्षित है तो वह किसी क्षेत्र में रोजगार व कार्य करेगा और अपनी क्षमताओं का पूर्ण प्रदर्शन करेगा। इसलिए समावेशी शिक्षा में सभी को शिक्षा प्रदान की जाती है जिससे देश का प्रत्येक बालक शिक्षा प्राप्त करें जो कि राष्ट्र की प्रगति के लिए आवश्यक है।
9. आधुनिक तकनीकों का प्रयोग- वर्तमान में कम्प्यूटर प्रोजेक्टर, इण्टरनेट आदि का प्रयोग साधारण-सी बात हो गई है। शिक्षा के क्षेत्र में भी इनका प्रयोग होने लगा है। शिक्षा के माध्यम से छात्रों को इन उपकरणों का ज्ञान कराया जाता है। इस ज्ञान का व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवन में प्रयोग करके रोजगार प्राप्त कर सकता है तथा अपने ज्ञान का विकास करता है।
10. शिक्षा की सार्वभौमिकता- सरकार शिक्षा के सार्वभौमिकता के लिए अनेक योजनायें बनाती हैं, जब तक इन योजनाओं का ठीक से क्रियान्वयन नहीं हो पाता है तब तक इस लक्ष्य को नहीं प्राप्त किया जा सकता है। शिक्षा (विशेष रूप से प्राथमिक शिक्षा) को तभी सार्वभौमिक बनाया जा सकता है जब तक प्रत्येक बालक के गुणों, स्तर तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर शिक्षा का विस्तार किया जाय। समावेशी शिक्षा सरकार की योजनाओं को क्रियान्वित करने तथा सहयोग करने पर बल देती है। इसमें सभी धर्म, जाति, भाषा तथा शारीरिक रूप से अक्षम बालकों को भी सामान्य बच्चों के साथ शिक्षण किया जाता है।
11. माता-पिता के लिए सन्तोषजनक प्रभाव- अधिकांशतः यह देखा जाता है कि अशक्त, अपंग बालक के जन्म के साथ-साथ उनके अभिभावकों को चिन्ता यह लगी रहती है कि बालक की शिक्षा व्यवस्था किस प्रकार होगी? इस प्रकार की निराशा व उदासीनता बनी रहती है। वे लोग प्रारम्भ से ही ऐसे बच्चों को दया की दृष्टि से देखते हैं। पहले इन बच्चों को शिक्षा के लिये दूर विशिष्ट विद्यालयों में भेजना पड़ता था, माता-पिता अधिक चिन्तित रहते थे। चूंकि अब समावेशी शिक्षा के प्रत्यय के कारण अब ऐसे बालक अपने परिवार के साथ ही रहकर सामान्य विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। जो कि माता-पिता व अभिभावकों के लिए। सन्तोषजनक प्रभाव है।
12. रोजगार के अवसरों में वृद्धि – शिक्षा को जीविकोपार्जन में सहायक यंत्र के रूप में माना जाता है। भारत जैसे देश में शिक्षा एक ओर ज्ञान संग्रहण में सहायक है तो दूसरी ओर रोजगार प्राप्त करने का साधन है। शिक्षित व्यक्ति किसी भी रोजगार को कुशलता के साथ कर सकता है वहीं अशिक्षित व्यक्ति अपनी असमर्थता के कारण लाचार होता है परिणामस्वरूप निर्धनता का चक्र चलता रहता है। शिक्षा का प्रसार करना हमारी आवश्यकता है और समावेशी शिक्षा इस दिशा में एक प्रयास है।