इतिहास / History

प्रथम विश्व युद्ध (first world war) कब और क्यों हुआ था?

प्रथम विश्व युद्ध के कारण तथा परिणाम

प्रथम विश्व युद्ध

प्रथम विश्व युद्ध

जर्मनी के प्रधानमन्त्री बिस्मार्क की मृत्यु के बाद उसकी त्रिगुट मैत्री सन्धि (Triple Alliance) का विरोध त्रि-राष्ट्रीय मैत्री सन्धि (Triple Entente) द्वारा होने लगा और अन्त में इन दोनों पक्षों के बीच बढ़ती हुई शत्रुता ने प्रथम विश्वयुद्ध का विस्फोट करके जर्मन साम्राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।

-एडवर्ड्स

वर्साय की सन्धि व्यावहारिक और नैतिक दोषों से भरी हुई थी। मित्र राष्ट्र स्वार्थ, बदला तथा घृणा की भावना से भरपूर थे। उन्होंने जर्मनी को सदा के लिए कुचल देने में कोई कसर न उठा रखी थी। वास्तव में यह एक सन्धि-पत्र न होकर, बीस वर्ष का विराम काल थी। 

-लैंगसम

प्रथम विश्व युद्ध कब और क्यों हुआ था?

प्रथम विश्व युद्ध उन्नीसवीं शताब्दी के साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद के घातक परिणाम 1914 ई० में प्रथम विश्वयुद्ध के रूप में सामने आये। फ्रांस की क्रान्ति ने नेपोलियन बोनापार्ट को यूरोप का भाग्यविधाता बनाया, परन्तु यूरोप की निरंकुश शक्तियाँ नेपोलियन को वाटर लू के युद्ध (18 जून, 1815 ई०) में पराजित करने में सफल रहीं। इन शक्तियों (इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रिया, रूस) ने वियना में एक सम्मेलन आयोजित किया, जिसकी अध्यक्षता ऑस्ट्रिया के प्रधानमन्त्री मैटरनिख ने की। मैटरनिख घोर प्रतिक्रियावादी तथा लोकतन्त्र का प्रबल विरोधी था। उसने यूरोप के मानचित्र में परिवर्तन करके राष्ट्रीय भावनाओं को कुचलने का हर सम्भव प्रयास किया, परन्तु अब तक यूरोप में स्वतन्त्रता, समानता और राष्ट्रीयता की भावनाएँ उग्र रूप धारण कर चुकी थीं। इसलिए यूरोप में उग्र राष्ट्रीयता की आँधी चलने लगी, जिसके फलस्वरूप इटली का एकीकरण हो गया तथा बिस्मार्क के नेतृत्व में महान जर्मन साम्राज्य संगठित हो गया। इंग्लैण्ड तेजी के साथ एशिया और अफ्रीका में उपनिवेश बसाने लगा। उपनिवेशों की प्राप्ति की दौड़ में यूरोप के अन्य देश भी कूद पड़े। टर्की साम्राज्य में निवास करने वाली बाल्कन प्रदेश की ईसाई जातियाँ भी अपनी स्वतन्त्रता के लिए प्रयत्नशील हो गयीं। इंग्लैण्ड, रूस, फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया तथा इटली के राष्ट्रीय हित आपस में टकराने से आपसी मनमुटाव तथा ईर्ष्याभाव बढ़ता ही गया। सबसे पहले जर्मनी के प्रधानमन्त्री बिस्मार्क ने फ्रांस को यूरोप में अलग-थलग रखने तथा अपने को शक्तिशाली बनाने के लिए गुटबन्दी की कूटनीति को जन्म दिया। सन् 1882 ई० में जर्मनी के नेतृत्व में त्रिगुट (जर्मनी, ऑस्ट्रिया और इटली) बन गया। त्रिगुट (Triple Alliance) के विरोध में इंग्लैण्ड, फ्रांस और रूस ने मिलकर त्रि-राष्ट्रीय मैत्री गुट (Triple Entente) का निर्माण कर लिया।

जुलाई, 1908 ई० में टर्की की युवा तुर्क क्रान्ति ने यूरोप की राजनीति में भयंकर हलचल उत्पन्न कर दी। इस क्रान्ति के बाद घटित घटनाओं (ऑस्ट्रिया का बोस्निया तथा हर्जेगोविना पर अधिकार, इटली की ट्रिपोली विजय, बाल्कन युद्ध तथा ऑस्ट्रिया और सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा) का क्रम निश्चित रूप से सर्वथा विनाशकारी था। इस प्रकार त्रि-मैत्री गुट तथा त्रि-राष्ट्रीय मैत्री गुट की आपसी प्रतिस्पर्धा ने यूरोप में युद्ध का बारूद तैयार कर दिया और सेराजेवो हत्याकाण्ड (28 जून, 1914 ई०) ने इस बारूद में चिंगारी लगाकर प्रथम विश्वयुद्ध का विस्फोट कर दिया।

प्रथम विश्वयुद्ध बड़ा भयानक तथा विनाशकारी था। 28 जुलाई, 1914 ई० से लेकर 11 नवम्बर, 1918 ई० तक यह युद्ध पूरी भीषणता के साथ चलता रहा।

प्रथम विश्व युद्ध के कारण

प्रथम विश्व युद्ध मानव इतिहास की एक भयानक और विनाशकारी घटना थी । यूरोप के शक्तिशाली राष्ट्रों को स्वार्थपरता तथा साम्राज्यवादी भूख ने मानव जाति को युद्ध की भयानक आग में जलने के लिए विवश कर दिया । इस युद्ध में जर्मनी, ऑस्ट्रिया और टको एक पक्ष में थे तथा दूसरे पक्ष में इंग्लैण्ड, फ्रांस आदि देश थे ।

प्रथम विश्व युद्ध के निम्नलिखित कारण प्रमुख रूप से उत्तरदायी थे-

(1) उन राष्ट्रीयता – प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व यूरोप में उग्र राष्ट्रीयता की भावनाएँ प्रबल हो चुकी थीं । इनका दुष्परिणाम यह हुआ कि यूरोप के विभिन्न राष्ट्र अपने स्वार्थ और हित में इतने अन्धे हो गए कि वे एक-दूसरे से झगड़ने लगे । उन्होंने दूसरे देशों को लूटना, उन्हें परतन्त्र बनाना तथा उनका शोषण करना प्रारम्भ कर दिया । इस प्रकार की उग्र राष्ट्रीयता इंग्लैण्ड, स्पेन, पुर्तगाल, जर्मनी, इटली, बेल्जियम, हॉलैण्ड, फ्रांस आदि देशों में विकसित हुई । इसके परिणामस्वरूप विभिन्न राष्ट्रों के मध्य उत्पन्न पारस्परिक घृणा, तनाव, स्पर्धा, संघर्ष और द्वेष ने युद्ध की स्थिति उत्पन्न कर दी।

(2) आर्थिक साम्राज्यवाद – 1890 ई. के बाद ब्रिटेन और जर्मनी के मध्य विकसित वैमनस्य का प्रमुख कारण आर्थिक साम्राज्यवाद था । जर्मनी की बनी हुई वस्तुएँ विदेशी व्यापार और मण्डियों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर रही थीं। इससे ब्रिटेन के व्यापार में बाधा उत्पन्न हुई । इस प्रकार देशों की औद्योगिक और व्यावसायिक उन्नति एक-दूसरे के लिए प्रतिस्पर्धा का कारण बन गई । फलस्वरूप ब्रिटेन एवं जर्मनी के मध्य युद्ध भड़क उठा ।

(3) राष्ट्रों की पारस्परिक शत्रुता – प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व जर्मनी अपनी मित्रता टी से स्थापित कर रहा था और टर्की की शत्रुता रूस से थी, अतः जर्मनी और रूस परस्पर शत्रु बन गये । इसी प्रकार रूस की शत्रुता ऑस्ट्रिया व हंगरी से भी थी । इन राष्ट्रों की इस पारस्परिक शत्रुता ने भी विश्व युद्ध को जन्म दिया ।

(4) सैनिक गुटबन्दी – प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व जर्मनी ने ऑस्ट्रिया हंगरी के साथ एक प्रतिरक्षात्मक सन्धि की थी । बाद में इटली भी इसमें सम्मिलित हो गया । यह सन्धि ‘त्रिगुट सन्धि’ के नाम से प्रसिद्ध है । इन तीन राष्ट्रों का गुट बनने के परिणामस्वरूप ब्रिटेन, फ्रांस तथा रूस ने भी अपने मतभेदों को भुलाकर गुट का निर्माण किया । इस प्रकार यूरोप दो सैनिक गुटों में बँट गया । इन दोनों गुटों के बीच ही पहला विश्व युद्ध हुआ।

(5) मोरक्को संकट – 1905 ई. में फ्रांस और जर्मनी के मध्य मोरक्को के प्रश्न पर युद्ध की सम्भावना हो गई, किन्तु अल्जीसिराज सम्मेलन में इस प्रश्न को हल कर लेने से युद्ध रुक गया । 1907 ई. और 1911 ई. में पुनः मोरक्को संकट उत्पन्न हुआ । इंग्लैण्ड के हस्तक्षेप से युद्ध तो रुक गया किन्तु जर्मनी और फ्रांस भावी युद्ध की तैयारियों में जुट गये ।

(6) बाल्कन समस्या – बर्लिन की सन्धि के बाद जर्मनी का संरक्षण पाकर टर्की का सुल्तान बाल्कन प्रदेशों की ईसाई जनता पर भीषण अत्याचार करने लगा। जिससे बाल्कन की जनता ने संगठित होकर टी के शासन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया । टर्की की दुर्बलता का लाभ उठाकर इटली ने ट्रिपोली पर अधिकार कर लिया । इससे उत्साहित होकर बाल्कन राज्यों ने 1912 ई. में टकी पर आक्रमण कर दिया और टर्की को हराकर उसके अनेक प्रदेश छीन लिये । बाद में लूट के माल के विभाजन के प्रश्न पर बाल्कन राज्यों में परस्पर युद्ध हो गया । इस युद्ध में बुल्गेरिया को पराजय का मुँह देखना पड़ा । इस बाल्कन युद्ध से सर्बिया और बुल्गेरिया में शत्रुता उत्पन्न हो गई और ऑस्ट्रिया, सबिया का शत्रु बन गया । अन्त में बाल्कन समस्या प्रथम विश्व युद्ध को लाने में सहायक हुई।

(7) तात्कालिक कारण : सेराजेवो हत्याकाण्ड – अन्तर्राष्ट्रीय घटनाचक्र ने यूरोप को बारूद के ढेर पर बैठा दिया था । सेराजेवो हत्याकाण्ड ने इस बारूद में चिंगारी लगाकर महायुद्ध का विस्फोट कर दिया । 28 जून, 1914 ई. की रात्रि में बोसेनिया की राजधानी सेराजेवो में ऑस्ट्रिया के युवराज आर्क ड्यूक फ्रांसिस फर्डीनेण्ड तथा उसकी पत्नी को सर्बिया के कुछ आतंकवादियों ने बम फेंककर मार डाला । ऑस्ट्रिया ने इस हत्याकाण्ड के लिए सर्बिया को दोषी ठहराकर 28 जुलाई, 1914 ई. को उसके विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी । स्लाव जाति की रक्षा के लिए रूस ने सर्बिया का पक्ष लेकर ऑस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया । 1 अगस्त, 1914 ई. को जर्मनी, ऑस्ट्रिया के पक्ष में और 3 अगस्त, 1914 ई. को फ्रांस तथा इंग्लैण्ड, सर्बिया के पक्ष में युद्ध में कूद पड़े ।

जर्मनी की पराजय/हार के कारण

प्रथम विश्व युद्ध के शुरू में ही जर्मनी ने अपनी शक्ति को काफी बढ़ा लिया था । उसके पास बड़ी संख्या में संगठित, प्रशिक्षित तथा नवीन अस्त्र- शस्त्रों से सुसज्जित सेना थी । उसके सैनिक अनुशासनप्रिय थे । उसके पास हथियारों तथा रसद के भी प्रचुर भण्डार थे । उसने युद्ध से सम्बन्धित सभी प्रकार के साधनों का संग्रह कर लिया था। इसके बाद भी उसे प्रथम विश्व युद्ध में हार का मुँह देखना पड़ा । इस हार के प्रमुख कारण निम्नलिखित माने जाते हैं

(1) लम्बे समय तक युद्ध का चलना – जर्मनी का विचार था कि वह दो-तीन माह तक युद्ध करने के पश्चात् रूस तथा फ्रांस को धूल चटा देगा । लेकिन उसे इस काम में सफलता नहीं मिली । उसे लम्बे समय तक मित्र राष्ट्रों से युद्ध करना पड़ा । जर्मन सेनाओं को मित्र राष्ट्रों की सेनाओं से लम्बे समय तक टक्कर भी लेनी पड़ी । इतने लम्बे समय तक युद्ध के लिए उसके पास साधनों की कमी थी । इधर इंग्लैण्ड, फ्रांस आदि देशों को अमेरिका ने सहयोग देना शुरू कर दिया था । अतः जर्मनी को हार का मुँह देखना पड़ा।

(2) धन तथा अस्त्र-शस्त्रों का अभाव – जर्मनी के पास मित्र राष्ट्रों की तुलना में धन तथा अस्त्र-शस्त्रों की बहुत कमी थी । अतः जर्मनी को सीमित साधनों का फल भुगतना पड़ा।

(3) नौ-सेना की कमजोरी – जर्मनी की नौ-सेना ब्रिटेन की नौ-सेना की अपेक्षा उन्नत दशा में नहीं थी । इस कमजोरी का ब्रिटिश नौ-सेना ने पूरा लाभ उठाया।

(4) अमेरिका का युद्ध में सम्मिलित होना – अमेरिका उस समय तक एक शक्तिशाली देश हो चुका था । उसने ज्यों ही विश्व युद्ध में प्रवेश किया, त्यों ही मित्र राष्ट्रों की शक्ति बढ़ गई । यदि अमेरिका युद्ध में शामिल न होता तो फ्रांस की हार निश्चित थी । उस समय इंग्लैण्ड तथा जर्मनी के बीच भी गतिरोध बना रहता । फिलिप द्वितीय, लुई 14वें तथा नेपोलियन बोनापार्ट तो इंगलिश चैनल पार करके इंग्लैण्ड की सहायता करने के पश्चात् भी हार गए थे । लेकिन जर्मनी इतने पर भी उस समय तक नहीं हार सका जब तक कि उसके विरुद्ध अटलांटिक के पार से मदद नहीं पहुँची ।

(5) मित्र राष्ट्रों की शक्ति – जर्मनी ने मित्र राष्ट्रों की सैनिक क्षमता का गलत अनुमान लगाया । लेकिन उन राष्ट्रों ने काफी शक्ति अर्जित कर ली थीं । इस कारण जर्मनी को अपनी गलती का फल भुगतना पड़ा ।

प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम

प्रथम विश्व युद्ध के चार परिणाम इस प्रकार से हैं –

(i) व्यापक जन-धन की हानि – इस युद्ध में व्यापक जन-धन की हानि हुई । इस युद्ध में मित्रराष्ट्रों के 50 लाख से अधिक व्यक्ति मारे गये तथा 1 करोड़ के लगभग घायल हो गए । इसी प्रकार जर्मनी और उसके सहयोगी देशों के लगभग 80 लाख लोग मारे गए तथा 60 लाख लोग घायल हुए । जन- धन की हानि के कारण यूरोप में श्रमिकों तथा पूँजी दोनों का अभाव हो गया ।

(ii) निरंकुश राजतन्त्र का अन्त – प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी, रूस, टर्की आदि देशों में राजशाही का अन्त हो गया ।

(iii) गणतन्त्रीय शासन की स्थापना – प्रथम विश्व युद्ध के फलस्वरूप जर्मनी, फिनलैण्ड, ऑस्ट्रिया, पोलैण्ड, टर्की और यूगोस्लाविया आदि देशों में गणतन्त्र की स्थापना हुई ।

(iv) एशिया और अफ्रीका में स्वाधीनता आन्दोलन – प्रथम विश्व युद्ध की घटनाओं के पश्चात् अमेरिका विश्व मंच पर एक शक्तिशाली देश बनकर उभरा तो दूसरी तरफ सोवियत रूस भी एक महाशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हुआ । सोवियत रूस ने स्वाधीनता आन्दोलनों का समर्थन देने की घोषणा की, जिससे एशिया और अफ्रीका में पहले से चल रहे स्वतन्त्रता आन्दोलनों की शक्ति बढ़ गई ।

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