रवीन्द्र नाथ टैगोर (RAVINDRA NATH TAGORE)
जीवन परिचय- उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अर्थात् 6 मई सन् 1861 ई. को जोड़ासांको (कलकत्ता) के सम्मानित परिवार में रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म हुआ था। उनकी माता का नाम शारदा देवी तथा पिता का नाम देवेन्द्रनाथ टैगोर था। रवीन्द्रनाथ जी की माता का देहान्त बचपन में ही हो गया था जिस कारण उनका पालन-पोषण उनके पिता के संरक्षण में हुआ। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा विद्यालय से अधिक घर पर हुई थी। सन् 1878 ई. में टैगोर उच्च शिक्षा प्राप्त करने इंग्लैण्ड गये। सन् 1880 ई. में ये स्वदेश लौट आये। सन् 1884 ई. में रवीन्द्रनाथ का विवाह मृणालिनी देवी के साथ किन्तु शीघ्र ही सन् 1920 ई. में इनकी पत्नी का देहान्त हो गया जिसके कारण इनका जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। सन् 1901 ई. में टैगोर ने बोलपुर के निकट शान्ति निकेतन की स्थापना की, जो आज विश्वभारती विश्वविद्यालय के नाम से प्रसिद्ध है। महान कवि एवं साहित्यकार के रूप में टैगोर की ख्याति देश की सीमाओं को पार कर गयी। सन् 1913 ई. में टैगोर को अपने काव्य संकलन ‘गीतांजली’ के लिए ‘नोबेल पुरस्कार’ भी प्राप्त हुआ। इसके बाद टैगोर ने अनेक देशों का भ्रमण किया और सम्पूर्ण विश्व को भारतीय प्रेम तथा सौहार्द का संदेश दिया। 7 अगस्त 1941 ई. को जोड़ासांको के पैतृक आवास में इन महान कवि, साहित्यकार, समाज-सुधारक एवं शिक्षाशास्त्री का देहान्त हो गया।
रवीन्द्र नाथ टैगोर का जीवन दर्शन (Ravindra Nath Tagore’s Philosophy of Life)
रवीन्द्र नाथ टैगोर का जीवन दर्शन उच्च कोटि तथा मानवतावादी कहा जा सकता है। टैगोर जी का मानना था कि संवेगों एवं स्थायी भावों का दमन नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि व्यक्ति की समस्त शक्तियों का सामंजस्यपूर्ण विकास किया जाना चाहिए।
(1) टैगोर जी के विश्वबोध दर्शन तत्व मीमांसा- रवीन्द्र नाथ टैगोर जी के अनुसार इस सृष्टि का बीज रूप निराकार है और प्रकृति रूप में साकार है। इस सृष्टि को ईश्वर की अभिव्यक्ति मानते है और टैगोर जी का यह भी मानना है कि ईश्वर अपने आप में जितना सत्य एवं शाश्वत है उतना ही सत्य एवं शाश्वत् ईश्वर द्वारा निर्मित यह प्रकृति है। वे ईश्वर को कण-कण में देखते थे। आत्मा के तीन रूपों को टैगोर जी ने स्वीकार किया है।
(i) मनुष्य को आत्म रक्षा हेतु प्रवृत्त।
(ii) ज्ञान-विज्ञान की खोज एवं अनन्त ज्ञान की प्राप्ति।
(iii) स्वयं के अनन्त रूप को समझने हेतु प्रवृत्त।
आत्मानुभूति एवं आत्म सन्तुष्टि को टैगोर जी जीवन का अन्तिम उद्देश्य मानते थे। टैगोर जी मानव जीवन के सिर्फ दो पक्षों को मानते थे।
(i) भौतिक पक्ष
(ii) आध्यात्मिक पक्ष
(2) टैगोर जी के विश्वबोध दर्शन की ज्ञान एवं तर्क मीमांसा- टैगोर जी भौतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा दोनों को ही समान महत्व देते थे। उनका मानना था कि केवल भौतिक संसार के, उपासक अन्धकार में प्रवेश करते हैं उसी प्रकार जो सिर्फ ब्रह्म ज्ञान में लीन रहते हैं वे भी अन्धकार में जीवन व्यतीत करते हैं। टैगोर जी का मानना था कि भौतिक ज्ञान उपयोगी ज्ञान है और आध्यात्मिक तत्व के ज्ञान के लिए सबसे सरल मार्ग, प्रेम मार्ग है। टैगोर जी के अनुसार संसार की समस्त वस्तुओं एवं जीवों में एकात्म भाव ही परम एवं अन्तिम सत्य है। प्रेम के माध्यम से ही मानव में संवेदना जागृत होती है और वह एकात्म भाव की अनुभूति करता है।
(3) टैगोर जी के विश्वबोध दर्शन की मूल्य एवं आचार मीमांसा – रवीन्द्र नाथ टैगोर जी मानव सेवा को ईश्वर सेवा मानते थे। टैगोर जी मनुष्य में भौतिक एवं आध्यात्मिक गुणों की समान सहभागिता मानते थे। वे मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार के विकास पर बल देते थे। टैगोर जी का मानना था कि प्रेम ही वह भावना है जिससे मनुष्य के भौतिक जीवन को सुखमय एवं आध्यात्मिक जीवन में पूर्णता लायी जा सकती है। वे प्रेम के रहस्य को समझ कर इसे जीवन का मूल आधार बनाकर मानव की सेवा करना चाहते थे।
टैगोर का शैक्षिक दर्शन (Educational Philosophy of Tagore)
टैगोर के जीवन दर्शन के विकास में जिन तत्वों का प्रभाव पड़ा, उन्ही तत्वों का प्रभाव उनके शिक्षा-दर्शन के विकास में भी पड़ा है। उनके शिक्षा दर्शन का उनके जीवन-दर्शन से घनिष्ठ सम्बन्ध है। परिवार के प्रभाव के अतिरिक्त टैगोर के शिक्षा दर्शन पर पाश्चात्य शिक्षा शास्त्रियों रूसो, फ्रोबेल, ड्यूवी तथा पेस्टालॉजी आदि के विचारों का भी गहरा प्रभाव पड़ा है। इन्होने अपनी तीव्र बुद्धि के द्वारा प्राकृतिक एवं सामाजिक विज्ञानों का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया था, जिनका पर्याप्त प्रभाव इनके शिक्षा-दर्शन पर पड़ा। अनुभवों द्वारा उन्होंने शिक्षा के रहस्यों का ज्ञान प्राप्त किया और अपने समय की शिक्षा पद्धति के दोषों का अध्ययन किया। इस प्रकार स्वयं के प्रयत्नों के फलस्वरूप ही टैगोर विश्व के महान शिक्षाशास्त्री बने।
शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education)
टैगोर के अनुसार, सर्वोच्च शिक्षा वही है जो, सम्पूर्ण सृष्टि से हमारे जीवन का सामंजस्य स्थापित करती है।” सम्पूर्ण सृष्टि से टैगोर का अभिप्राय है कि संसार की चर और अचर, जड़ और चेतन, सजीव और निर्जीव सभी वस्तुएँ। इन वस्तुओं से हमारे जीवन का सामंजस्य तभी हो सकता है, जब हमारी सभी शक्तियाँ विकसित होती हैं और पूर्णता के उच्चतम बिन्दु तक पहुँचती हैं। इसी को टैगोर ने ‘मनुष्यत्व’ कहा है। शिक्षा मनुष्य का शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक, नैतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक विकास करती है। टैगोर ने शिक्षा के व्यापक अर्थ में शिक्षा के प्राचीन भारतीय आदर्श ‘सा विद्या या विमुक्तये’ को भी स्थान दिया है।
शिक्षा के उद्देश्य (Objectives of Education)
टैगोर ने समय-समय पर अपने लेखों, साहित्यिक रचनाओं और व्याख्यानों में शिक्षा के उद्देश्यों के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किये हैं। इनके आधार पर शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य माने जा सकते हैं-
(1) शारीरिक विकास (Physical Development) – टैगोर के अनुसार, शिक्षा का सर्वप्रथम उद्देश्य बालक का शारीरिक विकास करना है। बालकों के शारीरिक विकास के लिए उन्होने शरीर के स्वस्थ्य और स्वाभाविक विकास के साथ-साथ शरीर के विभिन्न अंगों और इन्द्रियों को प्रशिक्षित करने पर बल दिया है। उनके अनुसार, पेड़ों पर चढ़ने, तालाबों में डुबकियाँ लगाने, फूलों को तोड़ने और बिखरने तथा प्रकृति के साथ नाना प्रकार की शैतानियाँ करने से बालकों के शरीर का विकास, मस्तिष्क का आनन्द और बचपन के स्वाभाविक आवेगों की सन्तुष्टि होगी।
(2) मानसिक विकास (Mental Development)- टैगोर के अनुसार, शिक्षा का कार्य बालक को वास्तविक जीवन की बातों, स्थितियों और वातावरण से परिचित कराकर उसके मस्तिष्क का विकास करना है। मानसिक विकास के लिए टैगोर ने पुस्तकीय शिक्षा का विरोध किया है और प्रकृति तथा जीवन से प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक बताया है।
(3) नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास (Moral and Spiritual Development)- टैगोर ने शारीरिक और मानसिक विकास के साथ-साथ नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास पर भी बल दिया है और व्यक्ति के आन्तरिक विकास को शिक्षा का एक उद्देश्य माना है। टैगोर के अनुसार, “अध्यापक का यह कार्य होना चाहिए कि वह बालक को धैर्य, शान्ति, आत्म-अनुशासन, आन्तरिक स्वतन्त्रता और आन्तरिक ज्ञान के मूल्यों से परिचित कराकर उसका नैतिक और आध्यात्मिक विकास करे।”
(4) सामाजिक विकास एवं अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास (Social Development and Development of International Understanding)- बालक में सामाजिक गुणों का विकास करना शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है। अपने सामाजिक गुणों को विकसित करके बालक स्वयं की और समाज की प्रगति में सहयोग कर सकता है। वे संकीर्ण राष्ट्रवाद की भावना के विरूद्ध हैं और अन्तर्राष्ट्रीय समाज के समर्थक है। शिक्षा के द्वारा बालक में अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण को विकसित किया जाए।
(5) सामंजस्य की क्षमता का विकास (Development of the Capacity of Adjustment)— टैगोर के अनुसार, बालकों को जीवन की वास्तविक परिस्थितियों, सामाजिक स्थितियों और वातावरण की जानकारी कराना तथा उनसे अनुकूलन कराना, शिक्षा का उददेश्य है।
टैगोर के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त (Fundamental Principles of Educational Philosophy of Tagore)
टैगोर के शिक्षा-दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त इस प्रकार हैं-.
(1) प्रकृति की गोद में शिक्षा- बालकों की शिक्षा नगरों से दूर प्रकृति के वातावरण में होनी चाहिए। प्रकृति के साथ सम्पर्क स्थापित करने में बालकों को आनन्द का अनुभव होता है।
(2) मनुष्य की पूर्णता की शिक्षा- टैगोर के अनुसार, वास्तव में मानव जातियों में स्वाभाविक अन्तर होते हैं, जिन्हें सुरक्षित रखना है और सम्मानित करना है और शिक्षा का कार्य इन अन्तरों के होते हुए भी एकता की अनुभूति कराना है, विषमताओं के होते हुए भी असत्य के बीच सत्य को खोजना है। डॉ. मुखर्जी ने कहा है कि, “इस एकता के सिद्धान्तों को दूसरे दृष्टिकोण से देखने पर टैगोर ने उसे पूर्णता के सिद्धान्त में बदला है। इन्होने शरीर की शिक्षा, बुद्धि की शिक्षा, आत्मा की शिक्षा तथा आत्माभिव्यक्ति की शिक्षा में जो एकता स्थापित की है, उसके द्वारा मनुष्यत्व की पूर्णता (Fullness of manhood) के लिए प्रयत्न किया है।”
(3) शिक्षा में स्वतन्त्रता – टैगोर ने कहा है कि जहाँ स्वतन्त्रता नहीं और जहाँ विकास नहीं वहाँ जीवन नहीं है। इसलिए शिक्षा प्राप्त करते समय बालक को स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए। उन पर कम से कम प्रतिबन्ध लगाने चाहिए। स्वतन्त्रता तथा प्रसन्नता के द्वारा अनुभव की पूर्णता टैगोर की आदर्श शिक्षा का हृदय और आत्मा है।
(4) बालक का चहुँमुखी और सामंजस्यपूर्ण विकास- शिक्षा के द्वारा व्यक्ति की जन्मजात शक्तियों का विकास करके उसके व्यक्तित्व का चहुँमुखी और सामंजस्यपूर्ण विकास किया जाना चाहिए।
(5) राष्ट्रीय शिक्षा- टैगोर ने कहा है कि बालकों की शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिए. उसमें भारत के अतीत एवं भविष्य का पूर्ण ध्यान रखा जाना चाहिए।
(6) कलात्मक शक्तियों का विकास- शिक्षा के द्वारा बालकों में संगीत, अभिनय तथा चित्रकला की योग्यताओं का विकास किया जाना चाहिए।
(7) भारतीय संस्कृति की शिक्षा- बालकों को शिक्षा के द्वारा भारतीय समाज की पृष्ठभूमि और भारतीय संस्कृति का स्पष्ट ज्ञान प्रदान किया जाना चाहिए।
(8) सामुदायिक जीवन की शिक्षा- टैगोर ने कहा है कि शिक्षा को गतिशील एवं सजीव तभी बनाया जा सकता है जब कि उसका आधार व्यापक हो और समुदाय के जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध हो। बालकों को सामाजिक सेवा के अवसर मिलने चाहिए जिससे उनमें स्वशासन तथा उत्तरदायित्व के भाव विकसित हो सकें।
(9) प्रत्यक्ष स्रोतों से ज्ञान- टैगोर का कहना है कि पुस्तक के स्थान पर जहाँ तक सम्भव हो सके बालकों को प्रत्यक्ष स्रोतों से ज्ञान प्राप्त करने के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए।
(10) सामाजिक आदर्शों की शिक्षा- शिक्षा के द्वारा बालकों को सामाजिक आदर्शों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों और समस्याओं से अवगत कराया जाना चाहिए।
(11) स्वतन्त्र प्रयास द्वारा शिक्षा- शिक्षा के द्वारा बालकों को इस प्रकार के अवसर दिए जाने चाहिए कि वह स्वतन्त्र प्रयासों द्वारा शिक्षा प्राप्त कर सके।
(12) रटने की आदत का अन्त- टैगोर ने कहा है कि बालकों को रटने के लिए बाध्य न किया जाए, यथासम्भव शिक्षण विधि का आधार जीवन, प्रकृति और समाज की वास्तविक परिस्थितियाँ होनी चाहिए।
टैगोर के अनुसार पाठ्यचर्या (Curriculum)
टैगोर ने तत्कालीन पाठ्यचर्या को दोषयुक्त बताया और एक व्यापक क्रियाप्रधान पाठ्यचर्या की रचना की। इन्होंने पाठ्यचर्या में इतिहास, भूगोल, प्राकृतिक अध्ययन, साहित्य, भाषा एवं सांस्कृतिक विषयों को शामिल करने पर जोर दिया। उनका कहना था कि पाठ्यचर्या में कृषि कार्य वस्तुओं का संग्रह, नृत्य, बागवानी, अभिनय, तथा नाटक आदि को शामिल किया जाना चाहिए।
शिक्षण विधि (Methods of Teaching)
प्रचलित पाठ्यचर्या की भाँति ही टैगोर ने नीरस और अरुचिकर शिक्षण विधियों की आलोचना की है। वे शिक्षण विधियों को बालक की रुचि के अनुसार, आवश्यकतानुसार तथा आवेगों के अनुसार निर्धारित करना चाहते हैं जो कि निम्न हैं-
(1) क्रिया विधि- बालक जो भी शारीरिक क्रिया करता है, उसका शरीर तथा मस्तिष्क दोनो पर प्रभाव पड़ता है। इसलिए बालकों को क्रिया द्वारा सीखने का अवसर देना चाहिए। शारीरिक क्रिया को महत्व देने के कारण उन्होंने शिक्षण विधि में नृत्य, अभिनय, पेड़ पर चढ़ना, कूदना, हँसना, चिल्लाना आदि क्रियाओं को स्थान दिया है।
(2) प्रत्यक्ष विधि- प्रत्यक्ष अनुभव से निरीक्षण और तर्क शक्ति का विकास होता है। प्राकृ तिक विज्ञानों का अध्ययन, प्रकृति का निरीक्षण करके और सामाजिक विज्ञानों का अध्ययन, सामाजिक समस्याओं, घटनाओं एवं संस्थानों के निरीक्षण से किया जाना चाहिए। उनका कथन है कि, वास्तविक वस्तुओं के सम्पर्क में आने से जो छात्रों के सम्मुख उपस्थित है, उससे उनकी निरीक्षण तथा तर्क शक्ति विकसित होती है।
(3) स्वाध्याय एवं प्रयोग विधि- स्वाध्याय में बालक अपने आप सीखता है तथा ज्ञानार्जन करता है। विज्ञान, कला-कौशल एवं अन्य विषयों के लिए इन्होने प्रयोग विधि को आवश्यक बताया है।
वाद-विवाद एवं प्रश्नोत्तर विधि (Debates and Questionnaire Method)
टैगोर का कहना है कि ज्ञान उस समय तक पूर्ण रूप से आत्मसात नहीं होता जब तक कि उस पर उचित ढंग से बातचीत एवं विचार-विमर्श न किया जाए। इसके लिए इन्होंने वाद-विवाद और प्रश्नोत्तर विधि को अपनाने का सुझाव दिया। इन्होंने कहा कि प्रश्नों के द्वारा बालकों के सामने दैनिक जीवन की समस्याओं को रखा जाए। बालक उन पर वाद-विवाद करें और उनका हल निकालें।
अध्यापक (Teacher)
टैगोर का मानना था कि शिक्षा का यह पुनीत कार्य केवल शिक्षक द्वारा ही सम्पन्न किया जा सकता है। उन्होनें शिक्षक के कुछ महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों पर भी बल दिया। अध्यापक को पुस्तकीय ज्ञान पर बल नहीं देना चाहिए। उसे बालक की पवित्रता तथा व्यक्तिगत स्नेह में विश्वास करना चाहिए। अध्यापक को ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करना चाहिए जिनमें बालक प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर ज्ञान प्राप्त कर सके।
शिष्य (Student)
छात्रों के सम्बन्ध में टैगोर का कहना था कि, छात्र अपनी शिक्षा को वास्तविक जीवन से जोड़ने का प्रयास करें और राष्ट्रीय चेतना को जागृत करें। उन्होनें छात्रों में विनम्रता, अनुशासन, आन्तरिक बल, आत्मानुभूति, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, विचारों की स्वतन्त्रता आदि गुणों की कल्पना की है। वे छात्रों के स्वाभाविक विकास के पक्षधर थे। वे छात्रों को प्रकृति के सम्पर्क में रखना चाहते थे।
अनुशासन (Discipline)
टैगोर ने लिखा है, “बालकों को कठोर दण्ड देते हुए देखकर मैं शिक्षक को ही दोषी पाता हूँ।” टैगोर ने अनुशासन को एक नैतिक मूल्य या आदर्श माना है। ये अन्धी आज्ञाकारिता या बाह्य व्यवस्था को अनुशासन नहीं मानते। अनुशासन के अर्थ को स्पष्ट करते हुए ये कहते है, “वास्तविक अनुशासन का अर्थ है, अपरिपक्व एवं स्वाभाविक आवेगों की अनुचित उत्तेजना और दशाओं से सुरक्षा।” स्वाभाविक अनुशासन की इस स्थिति में टैगोर ने अपनी शिक्षा योजना में स्वाभाविक अनुशासन को अत्यन्त महत्व प्रदान किया है। रहना छोटे बच्चों के लिए सुखदायक है यह उनके पूर्ण विकास में सहायक होता हैं।
शान्ति निकेतन (Shanti Niketan )
टैगोर एक महाकवि के साथ-साथ एक दार्शनिक एक शिक्षक एक गुरु भी थे। ‘गुरुदेव के रूप में उनका महान योगदान शान्ति निकेतन के रूप में परिणित हुआ।
शान्ति निकेतन का दूसरा नाम ‘विश्वभारती’ है जो कलकत्ता से सौ मील उत्तर-पश्चिम में स्थित है। शान्ति निकेतन की स्थापना रवीन्द्र नाथ टैगोर के पिता श्र देवेन्द्र नाथ ने की थी। देवेन्द्र नाथ अपनी साधना के लिए एक शान्त स्थान की खोज में थे जो शहर के कोलाहल से दूर हो। इन्होंने शान्त स्थान पर वृक्ष रोपड़ करके उसका नाम शान्ति निकेतन रखा।
सन् 1901 में विश्व भारती की नींव रखी गई। उस समय इसमें के छः छात्रों के साथ शुरूआत की गई। टैगोर प्राचीन गुरुकुल प्रणाली की विशेषताओं की ओर आकृष्ट थे तथा वैज्ञानिक प्रगति हेतु अपने विद्यालय में विद्यार्थी को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की। उनका मानना था छात्र जब तक स्वयं अपनी इच्छा से कार्य नही करता उसे आनन्दानुभूति नहीं होती। अध्यापक एक प्रेरणादायक के रूप में होता है। टैगार प्रकृतिवादी होने के कारण छात्रों को प्रकृति के मध्य शिक्षा प्रदान करने के अनुयायी थे।
इनके विद्यालय में गुरु का निर्देश पाते ही छात्र वृक्ष के नीचे, वृक्ष की शाखा पर इच्छानुसार पढ़ाई करते थे। शिक्षक एवं छात्र परस्पर एक परिवार की तरह रहते थे।
धीरे-धीरे छात्रों की संख्या में वृद्धि होने लगी। अधिक संख्या में छात्रों के आगमन से आर्थिक संकट भी आया जिस पर गुरुदेव ने अपनी नोबेल पुरस्कार की समस्त धनराशि शान्ति निकेतन पर लगा दी।
उच्च शिक्षा को ध्यान में रखते हुए उन्होंने 6 मई सन् 1922 ई. को शान्ति निकेतन में ही ‘विश्व भारती’ की स्थापना की। विश्व भारती की स्थापना द्वारा टैगोर ज्ञान की ज्योति को प्रकाशित करना चाहते थे। विश्व भारती में सहशिक्षा है, साथ ही छात्र एवं छात्राओं के रहने की भी व्यवस्था है। भारतीय संविधान ने सन् 1951 में 29वें संविधान में विश्व भारती को एक केन्द्रीय विद्यालय के रूप में मान्यता प्रदान की। विश्व भारती में देश विदेश से अनेक छात्र आकर उच्च शिक्षा ग्रहण करते हैं। इस विश्वविद्यालय के कुलाधिपति प्रधानमंत्री होते है।
विश्व भारतीय के पुस्तकालय में विभिन्न भाषाओं की लगभग दो लाख पुस्तकें हैं। रवीन्द्र सदन रवीन्द्र स्मारक संग्रहालय के रूप में टैगोर की सभी रचनाएँ एवं पत्र-पत्रिकाएँ हैं। उनके द्वारा गाए गए गीतो की ध्वनि रिकॉर्डिंग, चित्र, पत्र एवं पाण्डुलिपियाँ इत्यादि रवीन्द्र सदन में सुरक्षित है।
भारती के विभिन्न विभागों को भवन कहा जाता है तथा इन भवनों का अलग एवं विशिष्ट नाम भी है, यह इस प्रकार है-
(1) पाठ भवन- पाठ भवन में केवल मैट्रिक तक की शिक्षा प्रदान की जाती है, शिक्षा का माध्यम बंग्ला भाषा है।
(2) शिक्षा- शिक्षा विभाग इण्टर तक की शिक्षा का विभाग है। इसमें बंग्ला के साथ-साथ अंग्रेजी, संस्कृत, हिन्दी, तर्कशास्त्र, इतिहास, राजनीति शास्त्र, गणित, भूगोल आदि विषयों की शिक्षा दी जाती है।
(3) विनय भवन- यह विभाग अध्यापकों के प्रशिक्षण का विभाग है। इसमें बी.एड., एम.एड. एवं शिक्षा शास्त्र शिक्षा की व्यवस्था है।
(4) विद्या भवन- इसमें बी. ए., ऑनर्स, एम. ए. एवं पी.एच.डी. आदि की व्यवस्था है।
(5) संगीत भवन- संगीत एवं नृत्य से सम्बन्धित पाठ्यक्रम एवं विषयों का विभाग है।
(6) कला भवन- इसमें कला एवं शिल्प का दो वर्षीय पाठ्यक्रम, मैट्रिक के पश्चात् चार वर्षीय पाठ्यक्रम एवं कला से सम्बन्धित पुस्तकालय एवं संग्रहालय है।
(7) चीन भवन- चीनी भाषा के ज्ञान के लिए एक विशाल पुस्तकालय है।
(8) श्री निकेतन- ग्रामीण समस्याओं के अध्ययन के लिए यह विभाग है।
(9) हिन्दी भवन- हिन्दी भाषा एवं साहित्य के शिक्षण के लिए।
(10) शिल्प सदन – विभिन्न शिल्प कलाओं, मूर्ति कला, आदि के लिए विभिन्न पाठ्यक्रम भी है।
गाँधी जी के अनुसार, “टैगोर राजकोट से शान्ति निकेतन गए। वहाँ शान्ति निकेतन के अध्यापकों और विद्यार्थियों ने मुझे अपने प्रेम से सराबोर कर दिया। स्वागत में सादगी, प्रेम और कला का सुन्दर मिश्रण था।”
टैगोर की शिक्षा को देन (Tagore ‘s Contribution to Education)
शिक्षा के क्षेत्र में टैगोर की देन महान है। संक्षेप में हम इसका उल्लेख निम्न प्रकार से कर सकते हैं-
(1) टैगोर ने शिक्षा का अर्थ समृद्ध और पूर्ण रूप से लिया है। उनका यह दृष्टिकोण प्लेटो और स्पेन्सर से कही अधिक व्यापक है। जीवन की पूर्णता के लिए टैगोर ने जो विधान निर्मित किया है वह भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही जीवन को स्पर्श करता है। उसमें आध्यात्मिक और भौतिक दोनों तत्वों का समन्वय है।
(2) टैगोर ने प्रकृति से स्वस्थ एवं निकटवर्ती सम्बन्ध स्थापित किया और बताया कि प्रकृति का प्रभाव, रहन-सहन, विचार-व्यवहार, कार्य-कलाप, विषय-वस्तु और विधि में पाया है।
(3) दर्शन और वास्तविक जीवन परिस्थिति का समन्वय करके टैगोर ने भारतीय शिक्षा में महान क्रान्ति की है।
(4) टैगोर ने प्रकृति में सौन्दर्य और आनन्द, शक्ति और ओज, स्वतन्त्रता और आत्मप्रेरणा का दर्शन किया तथा उससे मानव जीवन एवं शिक्षा को ओत-प्रोत किया।
(5) टैगोर ने भारतीय संस्कृति के आधार पर राष्ट्रीय शिक्षा की नींव डाली। टैगोर ने बताया कि शिक्षा में समस्त सत्यों का एकीकरण होना चाहिए तथा हमें जीवन के सत्य के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।
(6) बालक के विकास में कृत्रिमता नहीं लानी चाहिए और न जल्दबाजी करनी चाहिए वरन् स्वाभाविक ढंग से उसका विकास होना चाहिए।
(7) पुस्तकों एवं पाठन विधि की अपेक्षा टैगोर ने बालक पर अधिक ध्यान देने के लिए कहा।
(8) टैगोर का शिक्षा में स्वतन्त्रत्ता का दृष्टिकोण विशेष महत्वपूर्ण है। इन्होने कहा कि बालक की मानसिक शक्तियों के विकास में और व्यवहार में किसी प्रकार का बन्धन नहीं होना चाहिए।
(9) टैगोर ने शिक्षा नवीनता एवं को महत्व दिया, जिसके फलस्वरूप प्रचलित रूढ़िवाद का अन्त होकर शिक्षा के मौलिक रूप का सृजन हुआ।
(10) टैगोर ने शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक को अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया और कहा कि शिक्षा केवल शिक्षक द्वारा ही दी जा सकती है।
(11) मानवतावादी भावना पर विश्व बन्धुत्व एवं विश्व – शिक्षा का प्रयास करने वाले सर्वप्रथम शिक्षाशास्त्री आज के युग में टैगोर को ही माना जा सकता है।
(12) टैगोर ने फ्रोबेल, पेस्टालॉजी, हरबर्ट, ड्यूवी आदि शिक्षाशास्त्रियों की तरह बड़े मौलिक और आश्चर्यजनक ढंग से अपने शिक्षा-सम्बन्धी विचारों का सफल प्रयोग किया है। विश्व भारती इसका प्रमाण है।
यद्यपि टैगोर के शिक्षा दर्शन पर फ्रोबेल, रूसो, ड्यूवी आदि महान शिक्षाशास्त्रियों का प्रभाव पड़ा लेकिन अपनी तीव्र बुद्धि और बहुमुखी प्रतिभा के आधार पर इन्होंने अपना स्थान इन पाश्चात्य शिक्षाशास्त्रियों में और भी ऊँचा बना लिया। यद्यपि टैगोर ने रूसों और फ्रोबेल के समान प्रकृतिवादी शिक्षा का विचार प्रस्तुत किया लेकिन इन्होंने प्रकृति से सम्पर्क रखने और उसके फलस्वरूप शिक्षा पर पड़ने वाले उसके प्रभावों को कहीं अधिक अच्छी तरह से समझा।
एक शिक्षाशास्त्री के रूप में टैगोर के कार्यों का मूल्यांकन करते हुए डॉ. एच.वी. मुखर्जी ने लिखा है, “टैगोर के शिक्षा सम्बन्धी विचार एवं प्रयोग बिल्कुल नवीन एवं मौलिक जान पड़ते हैं। यद्यपि उनमें से अधिकांश को प्राचीन समय के शिक्षाशास्त्रियों ने किसी न किसी रूप में विकसित कर दिया था और तत्कालीन शिक्षाशास्त्री कम या अधिक मात्रा में उनका प्रयोग कर रहे थे किन्तु महत्वपूर्ण बात यह है कि बीसवीं शताब्दी के प्रथम भाग के भारतीय शिक्षाशास्त्रियों में टैगोर का स्थान सर्वश्रेष्ठ है।
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