यथार्थवाद का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Realism)
यथार्थवाद का अंग्रेजी रूपान्तर रियलिज्म (Realism) है। (Real) शब्द की उत्पत्ति जिसका अर्थ है – वस्तु। इस प्रकार ‘Realism’ का लैटिन भाषा के ‘Realis’ से हुई है जिसका अर्थ है शाब्दिक अर्थ हुआ – वस्तुवाद या वास्तु सम्बन्धी विचारधारा। वस्तुतः यथार्थवाद वस्तु सम्बन्धी विचारों के प्रति दृष्टिकोण है जिसके अनुसार संसार की वस्तुएँ यथार्थ हैं। इस वाद के अनुसार केवल इंद्रियजन्य ज्ञान ही सत्य है। दूसरे शब्दों में, ‘रियलिज्म’ शब्द जो कुछ हमारे सामने है तथा जो कुछ भी हमें दिखाई देता है, वही सत्य है।
यथार्थवाद के अनुसार वाह्य जगत मिथ्या नहीं वरन् सत्य है। आदर्शवाद इस सृष्टि का अस्तित्व विचारों के आधार पर मानता है किन्तु यथार्थवाद के अनुसार जगत विचारों पर आश्रित नहीं है यथार्थवाद के अनुसार हमारा अनुभव स्वतन्त्र न होकर वाह्य पदार्थों के प्रति प्रतिक्रिया का निर्धारण करता है। अनुभव वाह्य जगत से प्रभावित है और वाह्य जगत की वास्तविक सत्ता है। इस वाद के अनुसार मनुष्य को वातावरण का ज्ञान होना चाहिए। उसे यह पता होना चाहिए कि वह वातावरण को परिवर्तित कर सकता है या नहीं और इसी ज्ञान के अनुसार उसे कार्य करना चाहिए।
यथार्थवाद की परिभाषाएँ निम्न हैं-
बटलर के अनुसार, “यथार्थवाद संसार को सामान्यतः उसी रूप में स्वीकार करता है जिस रूप में वह हमें दिखाई देता है।”
According to Butler, “Realism is the definement of our common acceptance of the world is being just that it appears to be.”
जे.एस. रॉस के अनुसार, यथार्थवाद यह स्वीकार करता है कि जो कुछ हम प्रत्यक्ष में अनुभव करते हैं, उसके पीछे तथा मिलता-जुलता वस्तुओं का एक यथार्थ जगत है।”
According to J.S. Ross, “The doctrine of Realism asserts that there is a real world of thing behind and corresponding to the objects of our perception.”
स्वामी रामतीर्थ के अनुसार, यथार्थवाद का अर्थ वह विश्वास का सिद्धान्त है, जो जगत को वैसा ही स्वीकार करता है जैसा कि हमें दिखाई देता है।”
According to Swami Ramteertha, “Realism means a belief or theory which looks upon the world as it seems to us, to be a more phenomenon.”
कार्टर वी. गुड (Carter V. Good) के अनुसार, “यथार्थवाद वह सिद्धांत है जो वस्तुगत वास्तविकता चेतन मन से स्वतंत्र रूप में अस्तित्व रखता है, उसकी प्रकृति और उसके गुण उसके ज्ञान से मालूम होते हैं।”
यथार्थवाद के रूप (Forms of Realism)
यथार्थवाद के प्रमुख रूप निम्नलिखित हैं-
(1) मानवतावादी यथार्थवाद (Humanistic Realism)
मानवतावादी यथार्थवादियों के अनुसार शिक्षा यथार्थवादी होनी चाहिए जिससे मनुष्य को जीवन में सुख व सफलता प्राप्त हो सके। इस दृष्टि से उन्होंने प्राचीन रोमन व यूनानी साहित्य का अध्ययन आवश्यक बतलाया है, क्योंकि उनके विचार से जीवन को सफल बनाने का समस्त ज्ञान एवं कला उसी साहित्य में निहित है। उन्होंने मनुष्य के व्यक्तिगत, सामाजिक एवं आध्यात्मिक विकास हेतु इस साहित्य का अध्ययन आवश्यक माना। पॉल मुनरो के अनुसार, “मानवतावादी यथार्थवादी का उद्देश्य अपने जीवन की प्राकृतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों का पूर्ण अध्ययन प्राचीन व्यक्तियों के जीवन की व्यापक परिस्थितियों के माध्यम से करना था लेकिन यह कार्य केवल ग्रीक एवं रोमन साहित्य के विस्तृत ज्ञान से पूर्ण किया जा सकता था।”
(2) सामाजिक यथार्थवाद (Social Realism)
सामाजिक यथार्थवादी शिक्षा का उद्देश्य जीवन को सुखी व सफल बनाना तथा सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना मानते थे। वे पुस्तकीय ज्ञान के कटु विरोधी थे क्योंकि उनके अनुसार ऐसी शिक्षा पर बालक निष्क्रिय तथा किताबी कीड़ा बन जाता है। वे सामाजिक क्रियाओं तथा सामाजिक वातावरण पर बल देते थे। वे विद्यालय को शिक्षा प्राप्त करने का उचित स्थान नहीं मानते थे। उन्होनें पुस्तकों की अपेक्षा भ्रमण तथा यात्राओं को अधिक उपयोगी बताया। रॉस के अनुसार, यथार्थवादी पुस्तकीय अध्ययन को व्यर्थ समझते हैं तथा मनुष्यों एवं वस्तुओं के प्रत्यक्ष अध्ययन पर बल देते हैं यद्यपि वे अपने मस्तिष्क में उच्च वर्ग का ही ध्यान रखते हैं। इसी कारण वे लम्बी यात्रा करने के लिए कहते हैं, जिससे वास्तविक जीवन के विभिन्न पहलुओं का यथार्थ अनुभव हो जाए।”
(3) ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवाद (Senses Realism)
पॉल मुनरो के अनुसार, “ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवाद उस मौलिक विकास से विकसित हुआ है, जो यह मानता है कि ज्ञान प्राथमिक रूप से इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त होता है।” स्पष्ट है कि यह वाद ज्ञानेन्द्रियों को समस्त ज्ञान का आधार मानता है। शिक्षा के क्षेत्र में मानवतावादी यथार्थवाद तथा सामाजिक यथार्थवाद दोनों के मिश्रण तथा विज्ञान के प्रभाव के परिणामस्वरुप ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवाद विकसित हुआ तथा इसने शिक्षा पर अत्यधिक प्रभाव डाला। ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवाद के विकास के फलस्वरूप शिक्षा में अनेक परिवर्तन हुए तथा शिक्षा को ज्ञान और सत्य की खोज करने वाली एक स्वभाविक प्रक्रिया माना गया।
(4) नव यथार्थवाद (Neo-Realism)
रस्क (Rusk) के अनुसार, “नव-यथार्थवाद का महत्वपूर्ण योगदान उन पद्धतियों तथा निष्कर्षो को मान लेने में है जो भौतिकशास्त्र के आधुनिक विकास से प्राप्त हुए हैं। वस्तुतः नव यथार्थवाद की विचारधारा का महत्व शिक्षा से अधिक दर्शन तथा विज्ञान के क्षेत्र में है। इस वाद के अनुसार अन्य नियमों की भाँति विज्ञान के नियम भी परिवर्तनशील हैं तथा ये किन्हीं विशेष परिस्थितियों में ही प्रमाणिक होते हैं। उन परिस्थितियों में परिवर्तन होने के साथ ही इन नियमों में भी परिवर्तन हो जाता है। नव यथार्थवादी विज्ञान तथा कला दोनों की शिक्षा को महत्वपूर्ण मानते हैं।
यथार्थवादी दर्शन (Philosophy of Realism)
यथार्थवाद वस्तु के अस्तित्व सम्बन्धी विचारों के प्रति एक दृष्टिकोण है, जो प्रत्यक्ष जगत को सत्य मानता है। यह मानता है कि सत्य का निवास मानव मस्तिष्क में हैं पर यथार्थवाद के अनुसार इनका आवास भौतिक जगत की वास्तविक वस्तुओं और घटनाओं में है।
यथार्थवाद के प्रमुख दार्शनिक दृष्टिकोण निम्नलिखित हैं-
(1) तत्व मीमांसा – आदर्शवादी यह मानते हैं कि इस जगत का निर्माण अध्यात्मिक तत्वों से हुआ है परन्तु यथार्थवादी इस जगत के निर्माण का कारण भौतिक तत्वों को मानते हैं। यथार्थवाद के अनुसार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड, पदार्थजन्य है और उसकी अपनी सत्ता है। यथार्थवादी इस स्वतंत्र भौतिक तत्व को ब्रह्माण्ड का मूल तत्व और अंतिम सत्य मानते हैं। सभी यथार्थवादियों का मत आत्मा-परमात्मा के बारे में अलग-अलग है। अधिकतर यथार्थवादी ईश्वर और स्वर्ग नर्क के अस्तित्व को भी स्वीकार करते हैं। वे इस बात को स्वीकारते हैं कि भौतिक वस्तुओं के सम्बन्ध में प्रयोग सिद्ध हैं इसलिए यही वास्तविक ज्ञान है।
उनका कहना है कि ईश्वर स्वर्ग और नर्क के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान धर्म पर आधारित है, इसलिए यह निश्चयात्मक नहीं है।
(2) ज्ञान मीमांसा – यथार्थवादी इस बात को महत्व देते हैं कि वास्तविक जगत का अस्तित्व है इसलिए यह भौतिक जगत सत्य है। हम वास्तविक वस्तु को जानते हैं, उसे अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा (आँख, कान, नाक, त्वचा और जीभ) विश्लेषण एवं तर्क कर सकते हैं। इसका तर्क है कि वस्तु का ज्ञान हमें इन्द्रियों द्वारा होता है और इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान ही सत्य और वास्तविक है। इसी का अस्तित्व है । यथार्थवादी किसी भी कथन का बिना विश्लेषण एवं परिभाषित किए स्वीकार नहीं करते हैं।
(3) मूल्य मीमांसा – यथार्थवाद के अनुसार स्वयं की सुख-सुविधा एवं आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जीना है। यही इस जीवन का मुख्य उद्देश्य है। आवश्यक वस्तुओं को क्रिया द्वारा उत्पादन एवं सुख के लिए उनका प्रयोग करने पर यह बल देती है। इसमें उन मूल्यों को महत्व दिया जाता है जिनके पालन से मनुष्य का जीवन सम्पूर्ण रूप से सुख की प्राप्ति कर सके। मूल्यों के पालन के लिए यथार्थवादी मनुष्य संवेदनशीलता का होना आवश्यक मानते हैं। उनका मानना है कि संवेदनशील व्यक्ति ही मूल्यों की अनुभूति कर उनके अनुसार आचरण कर सकते हैं। ये प्राकृतिक नियमों में में विश्वास करते हुए कहते हैं कि मनुष्य इन नियमों का पालन करके सद्जीवन व्यतीत करता है। यथार्थवादी प्रकृति में ही सौंदर्य की तलाश करते हैं और उनका मानना है कि यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इस सौंदर्य का द्योतक है।
यथार्थवाद के मूल सिद्धान्त (Basic Principles of Realism)
यथार्थवाद के मूल सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
(1) प्रत्यक्ष जगत ही सत्य है (Phenomenal World is True) – यथार्थवादी पदार्थ को सत्य एवं वास्तविक मानते हैं। अतः इस वाद के अनुसार केवल प्रत्यक्ष जगत ही सत्य अथवा यथार्थ है। जे. एस. रॉस के शब्दों में, “यथार्थवाद केवल ब्राह्म जगत की सत्ता को ही स्वीकार करता है। अतः यह आत्मगत् आदर्शवाद का विपरीत है।
(2) ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान का द्वार हैं। (Senses are the Doors of Knowledge)- यथार्थवादियों के अनुसार हमें ज्ञान की प्राप्ति इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त संवेदना के आधार पर होती है।
(3) आंगिक सिद्धान्त (Theory of Organism) – यथार्थवादियों के अनुसार संसार में जड़ तथा चेतन वस्तुएं एक अवयव बनाती हैं। व्हाइटहैड के अनुसार, जगत विकास की प्रक्रिया में एक तरंगित अवयव है। परिवर्तन इस तरंगित जगत का मुख्य लक्षण है। शाश्वत वास्तविकता का सार तत्व प्रक्रिया है। मस्तिष्क को अवयव के कार्य के रूप में जानना चाहिए।”
(4) पारलौकिकता को अस्वीकार करना (To Reject the Concept of Transcendentalism)- यथार्थवाद के अनुसार इस लोक से परे अन्य कोई लोक नहीं है। यह विचारधारा आत्मा-परमात्मा के अस्तित्व सम्बन्धी विचारधारा का खण्डन करती है।
(5) आदर्शवाद का विरोध (Opposition of Idealism) – यथार्थवाद के अनुसार आत्मा, परमात्मा तथा परलोक शब्द केवल कल्पना की उपज हैं।
(6) मनुष्य भौतिक जगत का एक अंग मात्र है। (Man is a Part of Material World) – यथार्थवाद के अनुसार मानव भौतिक जगत का एक अंग है।
(7) प्रयोग पर बल (Emphasis on Experiment) – यथार्थवादी विचारधारा निरीक्षण, अवलोकन तथा प्रयोग पर बल देती है। इसके अनुसार किसी अनुभव को तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता है जब तक कि वह निरीक्षण व प्रयोग की कसौटी पर सिद्ध न हो गया हो।
(8) मानव के वर्तमान व्यावहारिक जीवन पर बल (Emphasis on Present Practical Life of Man)- यथार्थवादी आत्मा, परमात्मा, परलोक आदि आध्यात्मिक बातों में कोई रुचि नहीं लेते। वे मनुष्य को एक जैविक पदार्थ मानकर उसका लक्ष्य सुखी जीवन व्यतीत करना मानते हैं।
यथार्थवादी शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ (Main Characteristics of Realistic Education)
यथार्थवादी शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-
(1) विज्ञान पर आधारित (Based on Science)- यथार्थवाद बालक को उपयोगी तथा व्यावहारिक ज्ञान देने के लिए पाठ्यचर्या में वैज्ञानिक विषयों का समावेश होना चाहिए।
(2) पुस्तकीय ज्ञान का विरोध (Opposition of Bookish Knowledge)-यथार्थवादियों ने प्रचलित पुस्तकीय ज्ञान का विरोध किया तथा इसे निरर्थक बताया।
(3) बालक के वर्तमान जीवन पर बल (Emphasis on Present Life of Child)- यथार्थवादी बालक के वर्तमान जीवन को केन्द्र मानते हैं।
(4) प्रयोग तथा व्यावहारिक जीवन पर बल (Emphasis on Experiment and Practical Life) – यथार्थवादी शिक्षा को एक प्रक्रिया मानते थे। उन्होनें ‘ज्ञान के लिए ज्ञान’ के सिद्धान्त का खण्डन किया। उनके अनुसार शिक्षा के द्वारा बालक को व्यावहारिक जीवन का ज्ञान मिलना चाहिए। दूसरे शब्दों में, शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक को अपने जीवन का ज्ञान प्राप्त हो सके।
(5) वैज्ञानिक विषयों को प्रमुखता (Importance of Scientific Subjects)- यथार्थवादियों ने बालकों को उपयोगी व व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करने हेतु वैज्ञानिक विषयों को प्रमुखता दी। इसके साथ ही उन्होंने विद्यालय की कृत्रिम शिक्षा के स्थान पर प्रकृति की शिक्षा को महत्व दिया।
(6) नवीन शिक्षण विधि एवं शिक्षण-सूत्र (New Method of Teaching and Maxims of Teaching) – एक प्रमुख यथार्थवादी विचारक बेकन ने ‘आगमन के नाम से एक नवीन वैज्ञानिक शिक्षण – विधि का विकास किया। इसमें बालक निरीक्षण, परीक्षण तथा नियमीकरण के आधार पर ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसके साथ ही कमेनियस ने अनेक शिक्षण- सूत्रों की रचना की जिससे शिक्षण विधियों में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ गया।
(7) विस्तृत व व्यावहारिक पाठ्यचर्या (Broad and Practical Curriculum)— यथार्थवादियों ने शिक्षा के पाठ्यचर्या को विस्तृत बनाया। कार्टर वी. गुड के शब्दों में, “विस्तृत पाठ्यचर्या यथार्थवाद की एक प्रमुख विशेषता थी।” यथार्थवादियों ने पाठ्यचर्या में विभिन्न व्यावहारिक विषयों को स्थान प्रदान करके उसे व्यावहारिक बनाने का प्रयत्न किया।
(8) वैयक्तिकता एवं सामाजिकता दोनों को बराबर महत्व (Equal Importance to Individuality and Sociability) – बेकन के अनुसार, “शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को समाज के लिए उपयोगी बनाना है। वस्तुतः यथार्थवादियों ने व्यक्ति और समाज दोनों आवश्यकताओं को पूरा करना ही शिक्षा का उद्देश्य माना। “
यथार्थवाद एवं शिक्षा (Realism and Education)
यथार्थवाद के अनुसार व्यक्ति जो कुछ देखता है तथा जो कुछ उसके सामने है, वही सत्य है। अन्य शब्दों में, यथार्थवाद प्रत्यक्ष जगत को मानता है, अप्रत्यक्ष जगत को नहीं। यथार्थवादी विचारों एवं सिद्धान्तों की अपेक्षा वस्तुओं और घटनाओं की वास्तविकता पर बल देते हैं। यथार्थवादियों ने शिक्षा के विभिन्न पहलुओं पर निम्न प्रकार से प्रकाश डाला हैं-
(1) यथार्थवाद तथा शिक्षा के उद्देश्य (Realism and Objectives of Education)
यथार्थवादी शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-
(i) मानव समाज का पूर्ण एवं व्यापक ज्ञान प्रदान करना ।
(ii) सामाजिक, नैतिक, चारित्रिक विकास के साथ-साथ व्यावसायिक उन्नति ।
(iii) यथार्थवादी शिक्षा का उद्देश्य बालक को एक सुखी तथा सफल जीवन के लिए तैयार करना ।
(iv) बालक को वास्तविक जीवन के लिए तैयार करना।
(v) बालक की ज्ञानेन्द्रियों का विकास करना एवं प्रशिक्षण देना।
(vi) जीवन के उत्तरदायित्वों को निभा सकने की क्षमता उत्पन्न करना।
(vii) अन्तर्दृष्टि का विकास करना ।
(2) यथार्थवाद तथा पाठ्यचर्या (Realism and Curriculum)
यथार्थवादियों ने इस बात पर बल दिया कि पाठ्यचर्या में केवल उन्हीं विषयों को स्थान मिलना चाहिए जो बालक के लिए उपयोगी हों तथा उसे वास्तविक जीवन के लिए तैयार कर सकें। अतः उन्होंने पाठ्यचर्या में जीवन की यथार्थ परिस्थितियों, आवश्यकताओं तथा समस्याओं को ध्यान में रखते हुए प्रकृति, विज्ञान तथा व्यवसाय सम्बन्धी विषयों को प्रमुख स्थान दिया तथा भाषा, कला एवं साहित्य आदि को गौण स्थान दिया। साथ ही पाठ्यचर्या में मातृभाषा तथा उद्योग अनिवार्य विषय होने चाहिए। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि यथार्थवादियों ने सार्थक एवं व्यापक पाठ्यचर्या निर्मित करने पर बल दिया है।
(3) यथार्थवाद और शिक्षण-पद्धति ( Realism and Methods of Teaching)
यथार्थवादियों ने शब्द की अपेक्षा वस्तुओं के ज्ञान को महत्व प्रदान करते हुए इस बात पर बल दिया कि वस्तु वास्तविक है। अतः बालक को पहले वस्तु दिखाई जानी चाहिए तत्पश्चात् शब्द का ज्ञान कराना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि यथार्थवादियों ने वस्तु द्वारा शिक्षा देने की पद्धति पर बल दिया। इससे दृश्य-श्रव्य साधनों का प्रयोग आरम्भ हो गया। प्रसिद्ध यथार्थवादी बेकन (Bacon) ने आगमन विधि (Inductive Method) को जन्म दिया। इस पद्धति द्वारा बालक को पहले वस्तु तत्पश्चात् शब्द का ज्ञान कराया जाता था। इस पद्धति के कारण अरस्तु की निगमन पद्धति का महत्व कम हो गया।
(4) यथार्थवाद तथा शिक्षक (Realism and Teacher)
यथार्थवादी शिक्षा-प्रक्रिया में शिक्षक को एक महत्वपूर्ण अंग माना जाता है। उसका कार्य बालकों के सामने तथ्यों को उसी रूप में प्रस्तुत करना जिस रूप में वे हैं जिन्हें बालक स्वयं अपने बुद्धि बल से ग्रहण करें। अध्यापक को केवल पथ-प्रदर्शक के रूप में होना चाहिए। उसे चाहिए कि वह बालकों के सामने वस्तुओं का प्रदर्शन मात्र करें और बालक उन्हें स्वनिरीक्षण के द्वारा जान सकें। इस प्रकार अध्यापक ज्ञान देने वाला नहीं वरन् ज्ञान देने में सहायक मात्र होता है। इसके अतिरिक्त शिक्षक बालक का निर्माणकर्ता है। वह जीवन की वास्तविक समस्याओं से सम्बन्धित ज्ञान प्रदान करता है तथा उसके सामने यथार्थ वातावरण को प्रस्तुत करता है।
(5) यथार्थवाद और बालक (Realism and Child)
यथार्थवादी विचारक लॉक (Locke) ने बालक को जन्म से कोरी स्लेट माना है। उनके अनुसार बालक को जैसा वातावरण मिलेगा, वह वैसा ही बनेगा। कमेनियस ने बालकों के साथ प्रेम व सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करने पर बल दिया तथा कहा कि उसकी शारीरिक तथा मानसिक क्षमताओं तथा रुचियों के अनुकूल ही उनसे कार्य कराए जाने चाहिए। स्पष्ट है कि यथार्थवादी बालक को ही शिक्षा की प्रक्रिया का केन्द्र मानते हैं तथा उसकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही उसकी शिक्षा का विधान करते हैं। इस यथार्थवादियों के अनुसार शिक्षक को अपने छात्र की रुचियों, कमियों, क्षमताओं, आवश्यकताओं आदि का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए।
(6) यथार्थवाद तथा अनुशासन (Realism and Discipline)
यथार्थवाद के समर्थक बालक के नैतिक तथा धार्मिक विकास पर बल देते हैं। इसके लिए बालक में अनुशासन का होना आवश्यक है परन्तु इस वाद के समर्थक दमनात्मक अनुशासन (Repressionistic Discipline) के पक्ष में नहीं है। वे बालक को ऐसे वातावरण में रखने का सुझाव देते हैं जिसमें रहकर बालक स्वयं व्यवस्था बनाए रखे तथा उसमें ऐसी आदत का विकास हो। अनुशासन प्रेम एवं सहानुभूति पर आधारित होना चाहिए। बालक के अवांछित कार्यों के लिए उसे स्वयं दण्ड न देकर प्रकृति के ऊपर छोड़ देना चाहिए। प्रकृति उसे स्वयं दंड देगी। इस प्रकार यथार्थवादी बालक के स्व-अनुशासन (Self- Discipline) पर विशेष बल देते हैं।
(7) विद्यालय (School) – यथार्थवाद में विद्यालय एक ऐसा प्रकरण है जिसके लिए यथार्थवादियों के विचार भिन्न-भिन्न थे। कुछ यथार्थवादी विद्यालय को छात्रों एवं समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन मानते थे परंतु कुछ यथार्थवादी विद्यालय की आवश्यकता भी नहीं समझते थे। कमेनियस के अनुसार, विद्यालय माँ की गोद के समान होना चाहिए, जहाँ प्रेम, सहानुभूति व सुरक्षा का सागर उमड़ता हो।”
(8) शिक्षा के अन्य पक्ष (Other Aspects of Education) – यथार्थवादियों का मानना है। कि मानव को अपने कर्मों पर निर्भर रहना चाहिए न कि ईश्वर पर यथार्थवादियों ने अनुभव किया कि जिस देश के नागरिक शिक्षित हैं वहाँ विज्ञान और औद्योगिक विकास से देश प्रगति कर रहा है। उन्होंने पाया कि वहाँ की स्त्रियाँ भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करती हैं जिसके कारण देश की उन्नति में भागीदार बनके स्वयं आराम का जीवन जीते हैं। अतः यथार्थवादियों ने व्यावसायिक शिक्षा और स्त्री एवं पुरुष को शिक्षा के समान अवसर पर बल दिया।
यथार्थवाद का मूल्यांकन (Evaluation of Realism)
यथार्थवाद का मूल्यांकन इसके गुण-दोषों के आधार पर इस प्रकार किया जा सकता हैं-
यथार्थवाद के गुण (Merits of Realism)
यथार्थवाद के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-
(1) यथार्थवाद के अनुसार शिक्षा व्यावहारिक होनी चाहिए। अव्यावहारिक शिक्षा को वे निरर्थक मानते हैं।
(2) यथार्थवाद ने सार्वभौमिक शिक्षा पर बल दिया है।
(3) यथार्थवाद ने पाठ्यचर्या को भी बहुत प्रभावित किया है। पाठ्यचर्या में वैसे तो सभी विषयों को समान रूप से महत्व दिया जाता है किन्तु अब विज्ञान को अधिक महत्व दिया जाता है।
(4) यथार्थवाद ने उदार शिक्षा को भी व्यापक बनाया है। अब इसे केवल प्राचीन भाषा एवं साहित्य के अध्ययन तक सीमित नहीं माना जाता वरन् इसमें व्यावसायिक एवं विषय भी सम्मिलित कर लिए गए हैं।
(5) शिक्षण विधि के क्षेत्र में भी यथार्थवाद का प्रभाव स्पष्ट है।
(6) यथार्थवाद का प्रभाव शिक्षक पर भी पड़ा है। अब वह कक्षा में तथ्यों का विश्लेषण करता है तथा छात्रों को वस्तुनिष्ठ रीति से तथ्यों का ज्ञान प्रदान करता है।
(7) यथार्थवादी विचारधारा के परिणामस्वरुप बालकों की शिक्षा में ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण पर बल दिया जाने लगा है।
(8) यथार्थवादी शिक्षा एक ओर बालक के व्यक्तित्व को विकसित करना चाहती है, वहीं दूसरी ओर उसमें सामाजिक गुणों की अभिवृद्धि भी चाहती है।
(9) यथार्थवादी बालक को शिक्षा का केन्द्र मानते हैं तथा उसकी मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं पर बहुत ध्यान देते हैं।
(10) अनुशासन स्थापित करने में यथार्थवादी किसी प्रकार के दमन या भय को स्थान नहीं देते।
यथार्थवाद के दोष (Demerits of Realism)
यथार्थवाद के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं-
(1) यथार्थवाद भौतिक जगत को ही यथार्थ सत्ता मानता है किन्तु प्रश्न यह है कि क्या इस भौतिक जगत के पीछे कोई शक्ति नहीं है।
(2) यथार्थवाद आत्मा, परमात्मा तथा अन्य आध्यात्मिक तत्वों को नहीं मानता किन्तु प्रश्न यह है कि उसे लोकोत्तर सत्ता के अनस्तित्व का ज्ञान कैसे हुआ।
(3) यथार्थवाद मानव-जीवन के शाश्वत मूल्यों जैसे सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् आदि को नहीं मानता किन्तु सत्य तो यह है कि मूल्य मानव-जीवन के लिए नितान्त आवश्यक है।
(4) इस वाद ने विज्ञान विषय को अत्यधिक महत्व दिया है। इसके साथ ही वह कला, साहित्य, दर्शन तथा अन्य मानवीय विषयों की उपेक्षा करता है।
(5) यथार्थवाद एक ओर तो जीवन की यथार्थ भावनाओं एवं आवश्यकताओं को महत्व देता है, दूसरी ओर वह कल्पना, संवेग एवं स्थायी भाव को कोई स्थान नहीं देता। क्या यह विरोधाभास नहीं है?
(6) यथार्थवाद धर्म तथा नैतिकता को जीवन में कोई महत्व प्रदान नहीं करता जबकि धर्म और नैतिकता जीवन में अत्यधिक महत्व रखते हैं।
(7) यथार्थवाद शिक्षा का स्वरूप भौतिकवादी दर्शन के अनुसार निर्धारित करता है। वह शिक्षा के अंगों की व्याख्या भी भौतिकवादी आधार पर करता है।
(8) यथार्थवाद बालकों और अध्यापकों में एक प्रकार से निराशा ही उत्पन्न करता हैं क्योंकि आदर्शों पर विश्वास न करके प्रगति नहीं की जा सकती।
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