समाजीकरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Socialisation)
समाजीकरण का अर्थ- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य सभी सामाजिक गुण तथा विशेषताएँ जन्म के बाद समाज में रहकर अर्जित करता है। जन्म के समय मानव शिशु मात्र प्राणी होता है, उसमें जैविकीय विशेषताएँ मानवीय होती हैं। प्राणी से सामाजिक प्राणी बनने की प्रक्रिया को ही समाजशास्त्रीय भाषा में ‘समाजीकरण’ कहते हैं । समाजीकरण के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए अनेक विद्वानों ने समाजीकरण की भिन्न परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-
रॉस के अनुसार, “समाजीकरण, सहयोग करने वाले व्यक्तियों में हम की भावना का विकास करता है और एक साथ कार्य करने की इच्छा तथा क्षमता में वृद्धि करता है।”
According to Ross, “Socialisation is the development of we feeling in associate and the growth in their capacity and will to act together.”
ड्रेवर के अनुसार, “समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने सामाजिक वातावरण से समायोजन करता है और सामाजिक मान्यता प्राप्त करके वह समाज का मान्य, सहयोगी व कुशल सदस्य बनता है।”
According to Drever, “Socialisation is a process by which the individual adopts to his social environment and becomes a recognised, cooperative and efficient member of that environment.”
वाटसन के अनुसार, समाजीकरण एक सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है।”
According to Watson, “Socialisation is a social and psychological process.”
सोरोकिन के अनुसार, समाजीकरण सांस्कृतिक तथा वैचारिक कारकों के अन्तरीकरण की प्रक्रिया है।”
According to Sorokin, “Socialisation is the process of internationalisation of ideological and cultural factors.”
ग्रीन के अनुसार, “समाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बच्चा सांस्कृतिक विशेषताओं, आत्मतत्व तथा व्यक्तित्व को प्राप्त करता है।”
ऑगबर्न एवं निमकॉफ के अनुसार, समाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिससे कि व्यक्ति समूहों के चलनों के अनुरूप व्यवहार करना सीखता है।”
बोगार्ड्स के अनुसार, “समाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति मानव कल्याण के लिए एक-दूसरे पर निर्भर होकर व्यवहार करना सीखते हैं और ऐसा करने में सामाजिक जिम्मेदारी और सन्तुलित व्यक्तित्व का अनुभव करते हैं।”
प्रस्तुत परिभाषा द्वारा भी स्पष्ट होता है कि समाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक प्रवृत्ति अपनाता है तथा निजी व्यक्तित्व को विकसित तथा संगठित करता है।
समाजीकरण की प्रक्रिया (Process of Socialisation)
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं। वह समाज में रहकर ही अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। समाज में वह जन्म लेता है, यहीं पर उसका विकास होता है और यहीं पर वह सामाजिक सम्बन्धों के तानों बानों में उलझा रहता है। समाज के यही ताने-बाने मनुष्य को सामाजिक बनाते हैं। समाज में जिस प्रक्रिया के अधीन बालक का समाजीकरण होता है उसे समाजीकरण की प्रक्रिया कहते हैं। समाजीकरण की प्रक्रिया जन्म से ही प्रारंभ हो जाती है। बच्चा सर्वप्रथम अनुकरण के माध्यम से सीखता है।
समाजीकरण की प्रक्रिया के तीन पद है-
(1) प्रसारण (Expansion)- किसी भी प्रक्रिया का पहला पद प्रसारण होता है। मनुष्य जब समाजीकरण की प्रक्रिया में प्रवेश करता है तब उसे पहला पद उन शंकुलों (Traits) एवं प्रतिमानों (Patterns) के साथ मिलाना पड़ता है जो उसे ग्राह्य करने पड़ते हैं। यह प्रक्रिया प्रसारण कहलाती है।
(2) संस्कृतिकरण (Acculturation)- समाजीकरण का दूसरा पद है- संस्कृतिकरण। इस पद में व्यक्ति जिस समाज में रहने लगता है उसमें उस समाज के रीति-रिवाज, आचार-विचार, रहन-सहन आदि को स्वीकार करने के साथ-साथ वह अपने आचार-विचार, रहन-सहन, खान-पान को भी दूसरे समाज में प्रचारित करता है। संस्कृतिकरण की इस प्रक्रिया की मार दोहरी होती है।
(3) आत्मसातीकरण (Assimilation)- समाजीकरण प्रक्रिया का तीसरा पद है, आत्मसातीकरण। इसके अन्तर्गत् व्यक्ति, समाज विशेष के रीति-रिवाजों में अपने को पूरी तरह आत्मसात कर देता है। जिस समय यह प्रक्रिया सम्पन्न हो जाती है, व्यक्ति का पूरी तरह समाजीकरण हो जाता है।
समाजीकरण की तकनीकें (Techniques of Socialisation)
बालक के समाजीकरण की कई तकनीकें हैं उनमें से कुछ प्रमुख तकनीकों का वर्णन अग्रलिखित है-
(1) प्रतियोगिता (Competition) – प्रतियोगिता का अर्थ है दो या दो से अधिक व्यक्तियाँ द्वारा किसी वस्तु को प्राप्त करने का प्रयास करना। प्रतियोगिता समाजीकरण को बढ़ावा देती है। प्रत्येक व्यक्ति अपना मान-सम्मान और आदर चाहता है। इस कारण से वह सामाजिक व्यवहार को सीखने में लगा रहता है। इसको प्राप्त करने के लिए वह प्रतियोगिता में भी भाग लेता है।
(2) सहयोग (Cooperation) – सहयोग का अर्थ होता है मिलकर काम करना। बालक छोटी आयु में ही सहयोग करना सीख जाते हैं। पहले बालक अपने परिवार के लोगों का सहयोग करते हैं। आगे चलकर वह अपनी आयु के बच्चों के साथ मिलकर कार्य करते हैं और इस प्रकार सहयोग द्वारा बालक बड़ा होकर सामाजिक परम्पराओं, मूल्यों तथा प्रथाओं को सीख जाता है।
(3) संघर्ष (Conflict) – संघर्ष का अर्थ होता है दो व्यक्तियों अथवा दो समूहों के मध्य किसी वस्तु को प्राप्त करने की कोशिश करना। बालक या व्यक्ति को समाज में आगे बढ़ने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। बिना संघर्ष करे वह सफलता नहीं प्राप्त कर सकता इससे व्यक्ति का व्यवहार प्रभावित होता है, इस संघर्ष के द्वारा व्यक्ति में सामाजीकरण होता है। संघर्ष करना समाज का आवश्यक तत्त्व है और सभी प्राणियों को जीवन में संघर्ष करना पड़ता है।
(4) तादात्मीकरण (Identification) – एक व्यक्ति द्वारा स्वयं को दूसरे व्यक्ति के अनुसार व्यवहार को ग्रहण करना या ढालने की प्रक्रिया को तादात्मीकरण कहते हैं। अधिकांश बच्चे अपने परिवार / घर, पास-पड़ोस, सगे-सम्बन्धियों, अध्यापकों, मित्रों एवं अन्य पारिवारिक सदस्यों आदि से तादात्मीकरण स्थापित करते हैं। अतः तादात्मीकरण बच्चे के समाजीकरण की प्रक्रिया में विशेष महत्व रखता है।
समाजीकरण की विशेषताएं (samajikaran ki visheshta)
1. समाजीकरण सीखने की प्रक्रिया हैं।
2. समाजीकरण एक निरंतर प्रक्रिया है।
3. समाजीकरण की प्रक्रिया सापेक्षिक होती है।
4. समाजीकरण मे सांस्कृतिक तत्वों को आत्मसात् किया जाता है।
5. समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा संस्कृति का हस्तांतरण होता हैं।
समाजीकरण के प्रमुख अभिकरण / कारक (Main Agencies/Factors of Socialisation)
समाजीकरण के प्रमुख अभिकरण / कारक निम्नलिखित हैं-
उपरोक्त स्थिति पर विचार करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि समाज में यदि समाजीकरण की प्रक्रिया को उचित मोड़ न दिया गया तो बालक समाज में रहते हुए असामाजिक होगा। बालक में सामाजिकता का विकास करने या उसमें सहायता देने वाले तत्वों / अभिकरणों का विवरण इस प्रकार है-
(1) परिवार (Family)- बालक को समाज के योग्य बनाने में पहला कार्य परिवार सम्पन्न करता है। परिवार में बालक को सुरक्षा मिलती है, उसका पोषण व विकास होता है। अगर परिवार में माता-पिता, भाई-बहन व अन्य रिश्तेदारों का सहयोग बालक के विकास में सही है तो उसका विकास उचित दिशा में सुनियोजित रूप से होगा। किम्बल यंग के अनुसार, “समाजीकरण के अनेक अभिकरणों में परिवार भी एक है।
(2) आर्थिक स्तर (Economic Condition)- समाजीकरण की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले तत्वों में बालक के परिवार का आर्थिक स्तर भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है। अध्ययन से पता चलता है कि आर्थिक संकटग्रस्त परिवार के बच्चों में सहनशीलता अधिक पाई जाती है परन्तु वे आत्महीनता की भावना से ग्रसित हो जाते हैं।
(3) पड़ोस (Neighbourhood) – पड़ोस भी एक प्रकार का बड़ा परिवार होता है। जिस प्रकार बालक परिवार के विभिन्न सदस्यों के साथ अन्तः प्रक्रिया द्वारा अपनी संस्कृति एवं सामाजिक गुणों का ज्ञान प्राप्त करता है, ठीक उसी प्रकार वह पड़ोस में रहने वाले विभिन्न सदस्यों एवं बालकों के सम्पर्क में रहते हुए विभिन्न सामाजिक बातों का ज्ञान प्राप्त करता है। इस दृष्टि से यदि पड़ोस अच्छा है तो उसका बालक के व्यक्तित्व के विकास पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा और यदि पड़ोस खराब है तो बालक के बिगड़ने की सम्भावना है। यही कारण है कि अच्छे परिवारों के लोग अच्छे ही पड़ोस में रहना पसन्द करते हैं।
(4) विद्यालय (School) – परिवार के पश्चात् समाजीकरण का कार्य स्कूल करते हैं। ये समाज के आदर्शों, मूल्यों तथा मान्यताओं से बालक को परिचित कराते हैं और बालक से तदानुसार व्यवहार करने को कहते हैं। विद्यालय की प्रतियोगिताओं से बालक जीवन की स्वस्थ प्रतियोगिताओं में भाग लेना सीखता है।
(5) समुदाय (Community)- स्कूल के साथ बालक के विकास के लिए समुदाय भी उत्तरदायी है। इस उत्तरदायित्व का वह खेल के समूह, समुदाय के संगठन आदि के रूप में निर्वाह करता है। समुदाय में साहित्य, संगीत, कला, संस्कृति, प्रथाएँ, परम्पराएँ आदि के संयोग से सामाजिकता का निर्माण होता है।
(6) जाति (Caste)- हर बालक किसी न किसी जाति का सदस्य होता है। हर जाति का अपना अलग इतिहास होता है और उसी के अनुसार बालक में जातिगत विशेषताओं से विशिष्ट व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
(7) खेल-कूद (Games and Sports) – प्रत्येक बालक खेल-कूद को पसन्द करता है। वह खेलते समय जाति-पाति, ऊँच-नीच तथा अन्य प्रकार के भेद-भावों से ऊपर उठकर दूसरे बालकों के साथ अन्तः प्रक्रिया द्वारा आनन्द लेना चाहता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि खेल में सामाजिक अन्तः प्रक्रिया का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन होता है। खेलते ही खेलते बालक के प्रेम, सहानुभूति, सहनशीलता तथा सहयोग आदि अनेक गुण अनजाने ही अत्यधिक विकसित हो जाते हैं। संक्षेप में, खेल-कूद के द्वारा बालक के समाजीकरण में अत्यधिक सहायता मिलती है।
(8) आयु समूह (Age Group)- बालक प्राय: परिवार के बाहर अपनी आयु के अन्य बच्चों के साथ खेलना प्रारम्भ कर है। खेल-खेल में वह अनेक वस्तुओं, विभिन्न व्यवहार के ढंग, रूचि, अनुकूलनशीलता, रीति-रिवाज आदि सरलता से सीख लेता है।’
(9) नातेदारी समूह (Kinship Group)- बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया में परिवार के साथ-साथ नाते-रिश्तेदारों से विभिन्न कार्यों एवं व्यवहारों को सीख लेता है जो उसके समाजीकरण में महत्वपूर्ण है।
(10) अन्य प्राथमिक समूह (Other Primary Group)- प्राथमिक समूहों में प्रमुख रूप से मित्र-मण्डली, खेल-समूह, क्लब, मनोरंजन केन्द्र आदि आते हैं।
(11) समूहों की भूमिका (Role of Groups) – प्रायः विभिन्न समूह एक दूसरे पर प्रभावडालते हैं। ये समूह निम्न हैं-
(i) खेल समूह
(ii) आयु समूह
(iii) धार्मिक समूह
(iv) राजनैतिक समूह
(v) आर्थिक समूह
समाजीकरण प्रक्रिया में अध्यापक की भूमिका (Role of Teacher in Socialisation Process)
एक अध्यापक बच्चे के समाजीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है। वह बच्चे के व्यक्तित्व विकास पर गहरा प्रभाव डालता है। अध्यापक को बच्चे के समाजीकरण की प्रक्रिया को मजबूत करने के लिए निम्नलिखित कार्य करने चाहिए-
(1) संस्कृति का संप्रेषण (Transmission of Culture) – संस्कृति वह जटिल पिण्ड है जिसमें ज्ञान, आस्था, कला, नैतिकता, कानून, रीति-रिवाज तथा समाज के सदस्य के रूप में मनुष्य द्वारा अर्जित क्षमताओं और आदतों का समावेश रहता है। इसका अर्थ यह है कि समाज के जीवन का अपना ढंग होता है। अध्यापक की जिम्मेदारी बच्चे को रीति-रिवाज, परम्पराओं, आदर्शो, मूल्यों और व्यवहार के तरीकों के रूप में सांस्कृतिक विरासत को प्रभावशाली ढंग से देने की है। ऐसा करने से ही बच्चों का वांछनीय समाजीकरण हो सकता है।
(2) सामूहिक कार्य के लिए उत्साहित करना (Encouragement for Group Work) – अध्यापक को बच्चे के समाजीकरण की प्रक्रिया में सहायता के लिए स्कूलों में सामूहिक कार्यों को आयोजित करना चाहिए। बच्चों को इन सामूहिक कार्यों में प्रतिभागी बनने के लिए अभिप्रेरित किया जाना चाहिए। अधिक से अधिक सामूहिक कार्य बच्चे को समाजीकरण की ओर अग्रसर एवं अधिक से अधिक सामाजिक गुणों को विकसित करेंगे तथा वह यह महसूस भी करेगा कि उसके अपने समाज के प्रति भी कुछ कर्तव्य हैं, जिन्हें उसे निभाना है।
(3) अन्तःसांस्कृतिक भावना का विकास (Development of Inter-Cultural Feeling)- विभिन्न परिवारों के बच्चे शिक्षा प्राप्त करने हेतु स्कूल में आते है। सांस्कृ तिक रूप से वे एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। अध्यापकों को उनमें अन्तः सांस्कृतिक भावना का विकास करके अपनी तथा अन्य लोगों की संस्कृति के प्रति सम्मान व्यक्त करना चाहिए। मानवीय दृष्टिकोण से इस प्रकार की भावना बच्चों में विकसित करना अपना एक विशेष महत्व रखती है तथा बालक को एक आदर्श नागरिक बनाने में सहयोग प्रदान करती है।
(4) माता-पिता और अध्यापक का सहयोग (Parents-Teacher Co-operation)- स्कूल तथा घर को एक दूसरे के अधिक निकट माता-पिता और अध्यापकों का एक संघ बनाकर लाया जा सकता है। स्कूल के परिष्कार हेतु उनके सुझाव कार्यान्वित किए जाने चाहिए। यह संघ माता-पिता तथा अध्यापकों को यह जानने में सहायता करता है कि बच्चे की रुचियों, अभिरूचियाँ तथा प्रवृत्तियाँ कैसी है? इसके पश्चात् स्वाभाविक तरीके से उस बच्चे का अधिगम विकास करने हेतु अनुकूल सुविधाएँ दी जाए।
(5) स्कूल की परम्पराएँ (Traditions of School)- अध्यापक को स्कूल की परम्पराओं के प्रति बच्चों में आस्था और आंकलन की प्रेरणा जगाकर अपने आचरण तथा अन्य कार्यों में उन्हें अनुसरण करने हेतु उत्साहित करना चाहिए। स्कूल की यह परम्पराएँ समाजीकरण की प्रक्रिया पर शक्तिशाली प्रभाव डालती हैं। साथ ही, स्कूल में स्वस्थ परम्पराओं को विकसित किया जाना चाहिए।
(6) सामाजिक आदर्श (Social Ideals) – अध्यापक का यह दायित्व है कि वह कक्षा, खेल का मैदान, सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यों, सभी शिक्षण क्रियाकलापों और समाजीकरण की ओर अग्रसर करने वाले विविध कार्यक्रमों में बच्चों के सम्मुख समाजिक आदर्शों को रखें। इस कारण अध्यापक को बालकों के सम्मुख महान नेताओं, दार्शनिकों एवं विचारकों की जीवनियाँ प्रस्तुत करनी चाहिए। इस दृष्टि से बालक में मैं (My Feeling) के स्थान पर हम (We Feeling) के जन्म दिया जाना चाहिए ताकि वह सामाजिक मूल्यों को आत्मसात कर सके ।
(7) स्वस्थ मानव सम्बन्ध (Healthy Human Relations) – बच्चे के समाजीकरण के लिए मानव सम्बन्ध का रहना बहुत आवश्यक है। अध्यापक का कर्त्तव्य स्कूल के अध्यापकों, प्रधानाचार्य और अन्य बच्चों के साथ स्वस्थ मानवीय सम्बन्धों के सृजन करने का है। मानव जीवन में अच्छे एवं मधुर सम्बन्धों को बनाने की प्राथमिकता दी जानी चाहिए। बच्चों में अच्छे सम्बन्धों को बनाने हेतु ‘Be Good, Do Good’ तथा जियो और जीने दो (Live and Let Live) जैसी भावनाओं का विकास करना।
(8) स्वस्थ प्रतिस्पर्धा (Healthy Competition) – बच्चे के समाजीकरण की प्रक्रिया में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की महत्वपूर्ण भूमिका है। अध्यापक के लिए आवश्यक है कि वह बच्चे में प्रबल प्रतिस्पर्धा की भावनाएँ जगाएँ। उसे स्वयं को पक्षपातपूर्ण व्यवहार से बचाना चाहिए तथा स्वयं को एक ‘Role Model’ के रूप में सामने रखना चाहिए। बालक अपने शिक्षक के व्यवहार का बहुत सूक्ष्म निरीक्षण करते हैं। अध्यापक का पक्षपातपूर्ण व्यवहार उन्हें बहुत आहत करता है तथा वे अपने शिक्षक के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न कर लेते हैं। इस स्थिति से बचने के लिए अध्यापक को अत्यन्त सावधानी से काम लेना पड़ता है तथा पूर्वाग्रहों से बचना पड़ता है तभी स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का प्रयोजन पूर्ण हो पायेगा।
(9) पाठ्य सहगामी क्रियाकलापों का आयोजन (Organisation of Co Curricular Activities) – बच्चे के समाजीकरण के विकास हेतु पाठ्य सहगामी क्रियाकलाप अनिवार्य हैं। खेल-कूद और मनोविनोद, सांस्कृतिक और साहित्यिक क्रियाकलाप, स्काउट एवं गाइड, एन. सी. सी. और एन. एस. एस. को बच्चों में समाजीकरण तथा सामाजिक गुण विकसित करने के लिए व्यापक स्तर पर संगठित किया जाना चाहिए। वस्तुतः माता-पिता एवं अभिभावकों के बाद बालक अध्यापक को ही अपना हितैषी मानते हैं तथा उनका अधिकांश समय उन्ही के सम्पर्क में व्यतीत होता है और उनकी कही किसी भी बात को वे आसानी से स्वीकार भी कर लेते हैं। इस प्रकार बच्चे की समाजीकरण की प्रक्रिया में अध्यापक का महत्वपूर्ण स्थान माना गया है।
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