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आत्म सम्मान के सामाजिक निर्धारक | आत्म-सम्मान को विकसित करने की विधियाँ

आत्म सम्मान के सामाजिक निर्धारक
आत्म सम्मान के सामाजिक निर्धारक

आत्म सम्मान के सामाजिक निर्धारक

व्यक्ति में आत्म-सम्मान के विकास पर जैविक (Biological) एवं संज्ञानात्मक (Cognitive) कारकों के अतिरिक्त सामाजिक कारकों का भी प्रभाव पड़ता है। इस प्रसंग में कुछ ऐसे कारकों के योगदान की चर्चा की जायेगी।

1. जनकीय शैली (Parenting Style)- आत्म-सम्मान के विभिन्न निर्धारकों में माता-पिता की पालन-पोषण की शैली विशेष महत्व रखती है। प्रारम्भ में बच्चे अपने घर-परिवार में जैसा अनुभव करते हैं, उसका उनके बाद के आत्म-विकास पर भी प्रभाव जारी रखता है। जिन बच्चों के माता-पिता बच्चों के प्रति स्नेह, लगाव तथ प्रोत्साहक व्यवहार प्रदर्शित करते हैं उन बच्चों में आत्म-सम्मान की भावना उच्च होती है। उन्हें दिशा-निर्देश देना, उचित परामर्श देना, लक्ष्य निर्धारण में सहायता करना आदि उच्च आत्म-सम्मान की भावना विकसित होने के लिए बहुत ही उपयोगी है। बच्चों से यह कहना, ‘तुम एक अच्छे बच्चे हो, मैं तुम्हें पसंद करता हूँ’, यह उनके लिए अत्यधिक विश्वासोत्पादक होता है। यदि उन्हें ‘गन्दा’ या ‘खराब’ कहा जाता है तो उनमें हीनता (Inferiority) आ जाती है। इससे आत्म-सम्मान का स्तर निम्न हो जाता है। अतः माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों के प्रति अनुकूल व्यवहार प्रदर्शित करें।

2. सहपाठियों का प्रभाव (Effect of Peers) – बच्चे अपने साथियों के साथ 4-5 वर्ष की अवधि में स्वयं की तुलना प्रारम्भ करने लगते हैं। जैसे—मैंने कितना कार्य किया, उसने क्या किया, मेरी लेखन शैली अन्य बच्चों से अच्छी है या खराब है, मेरा परिणाम अन्य की तुलना में अच्छा है….. इत्यादि । इसे सामाजिक तुलना (Social comparison) कहा जाता है इस तरह की भावनाओं का बच्चों के आत्म-विकास पर व्यापक प्रभाव पड़ता है पश्चिमी देशों के बच्चों में यह प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है क्योंकि वहाँ प्रतिस्पर्द्धा (Competition) का वातावरण अधिक है परंतु सहयोगात्मक (Cooperative) परिवेश में सामूहिक भावना का विकास अधिक होता है क्योंकि वहाँ बच्चों को व्यक्तिगत लक्ष्यों के स्थान पर सामूहिक लक्ष्यों को अधिक महत्व देने का परिवेश प्रदान किया जाता है। बच्चों के आत्म-सम्मान पर मित्रों का प्रभाव किशोरावस्था में और भी बढ़ जाता है क्योंकि इस अवधि में उनके जीवन में मित्रों का महत्त्व अधिक हो जाता है, वे उन पर अधिक विश्वास करते हैं।

3. संस्कृति का प्रभाव (Effects of Culture) – यदि विभिन्न संस्कृतियों की तुलना की जाये तो उनमें स्पष्टतः अंतर प्राप्त होगा। उदाहरणार्थ, कुछ संस्कृतियाँ व्यक्तिपरक (Individualistic) होती हैं। अधिकांश पश्चिमी देश इसके उदाहरण हैं, जैसे- अमेरिका, कनाडा एवं आस्ट्रेलिया आदि । इसके विपरीत कुछ देशों में समूहपरक (Collectivitistic) संस्कृति प्रभावी होती है, जैसे—भारत, चीन, जापान एवं कोरिया आदि। विभिन्न अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है व्यक्तिपरक संस्कृति के बच्चों में समग्र आत्म-सम्मान (Global selfesteem) की भावना अधिक तथा समूहपरक संस्कृति के बच्चों में समग्र आत्म-सम्मान का स्तर अपेक्षाकृत निम्न होता है।

यह अंतर क्यों पाया जाता है? उत्तर स्पष्ट है। व्यक्तिपरक (Individualistic) समाज में व्यक्तिगत लक्ष्यों को प्राप्त करने पर अधिक बल दिया जाता है। इसके विपरीत, समूहपरक समाज में अंतर आश्रितता (Interdepence) अधिक पायी जाती है। उनके लिए समूह के प्रति प्रतिबद्धता अधिक महत्वपूर्ण होती है। उनमें यह धारणा प्रबल हो जाती है कि यदि अपने समूह के काम आये तो यह एक बड़ी बात है। उपर्युक्त दोनों प्रकार की संस्कृतियों में बच्चों के पालन-पोषण की विधियों (Rearing practices) में काफी अधिक असमानता पायी जाती है। इसलिए भी इन दो प्रकार की संस्कृतियों में समाजीकृत बच्चों (Socialized children) के समग्र आत्म-सम्मान में भी अंतर पाया जाता है।

आत्म-सम्मान को विकसित करने की विधियाँ (Methods of Self-Esteem Development)

आत्म-सम्मान को विकसित करने की विधियाँ निम्न प्रकार हैं-

1. रिपोर्ट करना (Self Report)- इस विधि में छात्र को किसी कार्य अथवा कार्यशाला की व्यक्तिगत व सामूहिक रिपोर्ट देने के लिये कहा जाता है, जिसमें छात्र को अपने अधिगम का आत्म- मूल्यांकन स्वयं के चेतन व अचेतन स्तर पर करना पड़ता है व अमूर्त चिन्तन और तार्किक चिन्तन प्रक्रिया का प्रयोग कर वह सही व गलत के विषय में अपने तर्क प्रस्तुत करता है। इस प्रकार उसकी स्वायत्तता को विकसित करते हुए उसके आत्म सम्मान के स्तर को विकसित किया जाता है।

2. डायरी लिखना- छात्रों द्वारा प्रतिदिन के क्रियाकलापों का आत्मावलोकन किया जाता है तथा उन्हें प्रतिदिन की क्रियाओं को डायरी में लिखने को कहा जाता है, जो क्रमशः स्व मूल्यांकन से स्वायत्तता के विकास को करती है और छात्र का आत्म-सम्मान व स्वयं के प्रति दृष्टिकोण को बढ़ाती है।

3. वाद-विवाद व विचार-विमर्श – छात्र के दृष्टिकोण व मनोवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए विचार-विमर्श व वाद-विवाद प्रक्रिया में बालक स्वयं के विचारों, दृष्टिकोणों को प्रभावशाली लक्ष्य केन्द्रित भाषा में प्रयोग करने के साथ-साथ आत्म मूल्यांकन भी करता है. और आवश्यकता पड़ने पर दूसरों के दृष्टिकोणों को स्वीकार कर अपने आत्म-सम्मान व स्वायत्तता के गुण को विकसित करता है परंतु यह तभी सम्भव है जब उसके सहभागी का मानसिक स्तर स्वयं छात्र से उच्च हो।

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