सार्वजनिक परीक्षाओं में पारदर्शिता (Transparency in Public Examination)
सार्वजनिक परीक्षाएँ वास्तव में परीक्षा परिणामों की जनस्वीकृति (Public Acceptance) के लिए आयोजित की जाती हैं। मौखिक एवं लिखित परीक्षाओं का प्रचलन होने के उपरान्त भी एक लम्बी अवधि तक शिक्षा संस्था द्वारा ली जाने वाली आन्तरिक परीक्षाओं के आधार पर छात्रों को उनकी शैक्षिक निष्पत्ति के बारे में प्रमाणपत्र दिए जाते रहे थे। समाज इन प्रमाणपत्रों को स्वीकार करके सम्बन्धित व्यक्ति को उनकी योग्यतानुसार सम्मान एवं रोजगार के अवसर उपलब्ध कराता था । परन्तु, कालान्तर में विभिन्न कारणों से आन्तरिक परीक्षाओं के आधार पर दिए जाने वाले इन प्रमाणपत्रों की विश्वसनीयता धीरे-धीरे कम होने लगी एवं एक समय ऐसा आ गया कि बाह्य निकाय के द्वारा आयोजित परीक्षाओं की अपेक्षा की जाने लगी। सार्वजनिक परीक्षाओं का प्रादुर्भाव इसी पृष्ठभूमि में हुआ होगा प्रारम्भ होने के उपरान्त एक लम्बी अवधि तक सार्वजनिक परीक्षाएँ भी बिना किसी आलोचना के आयोजित होती रहीं, परंतु कालान्तर में छात्रों, अध्यापकों, अभिभावकों एवं समाज के अन्य प्रबुद्ध वर्ग के द्वारा सार्वजनिक परीक्षाओं की भी विभिन्न आधारों पर आलोचना की जाने लगी वस्तुतः आज केन्द्र एवं राज्यों की माध्यमिक शिक्षा परिषदों तथा विश्वविद्यालयों द्वारा ली जाने वाली परीक्षाओं की साख (Creditibility) लगभग समाप्त हो गई है एवं आगामी कक्षा में प्रवेश के लिए अधिकांश शिक्षा संस्थाएँ तथा रोजगार प्रदान करने वाले विभिन्न संगठन स्वयं की प्रवेश/चयन परीक्षाएँ लेकर ही अभ्यर्थियों का चयन करने लगे हैं। सार्वजनिक परीक्षाओं में संलग्न व्यक्तियों के नैतिक मूल्यों में गिरावट एवं परीक्षा आयोजन में अन्तर्निहित कतिपय दोषों तथा परीक्षा संचालन में व्याप्त तरह-तरह के अनुचित तरीकों के प्रचलन के कारण इन परीक्षाओं की साख पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लग गया है। वस्तुत: आज के अधिकांश छात्र तथा उनके अभिभावकों का परीक्षा प्रणाली में कोई विश्वास नहीं रह गया है तथा उनका मानना है कि गोपनीयता की आड़ में परीक्षा प्रणाली में संलग्न व्यक्ति परीक्षार्थियों के साथ तरह-तरह से धोखाधड़ी कर रहे हैं। परीक्षकों एवं परीक्षा कार्यों में संलग्न अन्य व्यक्तियों की लापरवाही इस स्थिति को और भी अधिक भयावह बना देती है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में छात्र तथा अभिभावकों के विश्वास की कमी ने पारदर्शिता के प्रश्न को शिक्षाविदों के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया है।
आज के छात्र तथा अभिभावक परीक्षा से सम्बन्धित विभिन्न तथ्यों को जानकर सुनिश्चित होना चाहते हैं कि अंकतालिका में उन्हें प्रदान किए गए अंक उन्हें मिलने वाले वास्तविक अंकों को ही इंगित कर रहे हैं। छात्रों की यह आम शिकायत होती है कि परीक्षा में उनके द्वारा दिए गए उत्तरों पर अपेक्षा से कम अंक मिले हैं। यद्यपि कुछ परीक्षा संस्थाओं में पुनः योग (Re-totaling) अथवा पुनर्मूल्यांकन (Re-evaluation) जैसी सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं । फिर भी प्रायः छात्रगण इनसे संतुष्ट नहीं हो पाते हैं। परीक्षकों एवं परीक्षा परिणाम तैयार करने वाले व्यक्तियों के द्वारा की जाने वाली लापरवाही के कारण होने वाली त्रुटियों के अतिरिक्त परीक्षकों की विषयनिष्ठता (Subjectivity) भी निश्चय ही इस सबके लिए काफी हद तक उत्तरदायी है। पुनर्योग में नौ के नब्बे अंक हो जाने या सैंतीस के सत्तासी अंक हो जाने या पैंतीस के पिच्चासी अंक हो जाने तथा सत्रह के सत्तानवें अंक हो जाने के कुछ वास्तविक उदाहरण दृष्टिगत होते रहते हैं। ऐसी स्थिति में पारदर्शिता की अपेक्षा करते हुए छात्रों के द्वारा उन्हें उत्तरपुस्तिका दिखाए जाने की मांग करना स्वाभाविक ही है।
यद्यपि परीक्षाओं में पारदर्शिता की मांग पहली नजर में आकर्षक प्रतीत होती है परन्तु इसके कुछ जटिल निहितार्थ भी। यदि परीक्षाओं में पारदर्शित से तात्पर्य परीक्षा सम्बन्धी समस्त सूचनाओं अथवा दस्तावेजों को सार्वजनिक करने से है तो यह कालान्तर में अनेक नई-नई समस्याओं का कारण बनकर सम्पूर्ण परीक्षा प्रणाली को ही नष्ट कर सकती हैं। परन्तु यदि पारदर्शिता से आशय छात्रों एवं अभिभावकों के विश्वास को पुनः स्थापित करना है तब यह एक सुखद मांग कही जा सकती है। परीक्षा प्रणाली के द्वारा छात्रों के साथ न्याय किया जाना चाहिए तथा यह न्याय नजर भी आना चाहिए। परन्तु, प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों की तर्कसंगत सीमा से बाहर जाकर परीक्षाओं की समस्त गोपनीय सूचनाओं को सार्वजनिक करने अथवा छात्रों को यह सुनिश्चित करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता है कि उन्हें मिलने वाले अंक सही हैं अथवा गलत हैं। अतः, एक सीमा तक ही परीक्षाओं में पारदर्शिता का प्रश्न उठाया जा सकता है।
किसी भी परीक्षा आयोजन को तीन मुख्य सोपानों—
(i) पूर्व परीक्षा सोपान,
(ii) परीक्षा सोपान, तथा
(iii) परीक्षोपरान्त सोपान में बाँटा जा सकता है।
पूर्व परीक्षा सोपान में प्रश्नपत्रों का निर्माण, परीक्षा केन्द्र अधीक्षकों तथा कक्ष निरीक्षकों की नियुक्ति जैसे कार्य आते हैं। वास्तविक परीक्षा होने से पूर्व प्रश्नपत्र निर्माताओं तथा संशोधकों के नामों को गोपनीय रखना अत्यंत आवश्यक है। वास्तविक परीक्षा संचालन सोपान में संलग्न व्यक्ति उच्च विश्वसनीयता वाले तथा ईमानदार होने चाहिए अनुचित साधनों के प्रयोग रोकने संबंधी नियमों का पालन कठोरता से करना चाहिए। नि:संदेह ये सभी क्रियाकलाप पारदर्शिता के साथ संचालित होने चाहिए। परीक्षोपरान्त के तृतीय सोपान में उत्तरपुस्तिकाओं का अंकन तथा परीक्षा परिणाम तैयार करने से संबंधित क्रियाकलाप सन्निहित रहते हैं। इस स्तर पर भी पारदर्शिता की मांग की जाती है जो कुछ सीमा तक सही प्रतीत होती है निःसन्देह छात्रों को उनकी उत्तरपुस्तिकाओं दिखलाना किसी भी सार्वजनिक परीक्षा संस्था के लिए इसलिए सम्भव नहीं हो सकता क्योंकि बहुत बड़ी संख्या में परीक्षार्थी उस परीक्षा में सम्मिलित होते हैं परन्तु इन परीक्षा संस्थाओं को छात्रों एवं अभिभावकों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को महसूस करते हुए अधिक से अधिक पारदर्शी होना चाहिए पुनर्मूल्यांकन, पुनर्योग तथा पुनर्परीक्षा के साथ-साथ परीक्षा परिणाम घोषित हो जाने के उपरान्त परीक्षकों के नाम सार्वजनिक कर देना अथवा श्रेष्ठतम व निम्नतम अंक पाने वाले कुछ परीक्षार्थियों की उत्तरपुस्तिकाओं की फोटोस्टेट प्रतियाँ सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराने जैसे कुछ नूतन कार्य सरलता से किए जा सकते हैं। इनसे परीक्षा में पारदर्शिता आने के साथ-साथ छात्रों एवं अभिभावकों का विश्वास परीक्षा प्रणाली में पुनर्स्थापित हो सकने में सहायता मिल सकेगी।
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