वस्तुनिष्ठ परीक्षा का आलोचनात्मक मूल्यांकन
वस्तुनिष्ठ परीक्षा का आलोचनात्मक मूल्यांकन- पराम्परागत निबन्धात्मक परीक्षा की तरह वस्तुनिष्ठ परीक्षा भी एक प्रकार की लिखित परीक्षा है, लेकिन यह परीक्षा-प्रणाली उन सभी त्रुटियों से मुक्त है, जो परम्परागत परीक्षा में पाई जाती है। इसका निर्माण करते समय इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है कि इसमें पाठ्यक्रम के सभी अंशों का समावेश हो सके। इसके लिए प्रश्नों की संख्या अधिकाधिक रखी जाती है। प्रश्न इतने छोटे होते हैं कि उनका उत्तर केवल ‘हाँ’ या ‘नहीं’ तथा ‘शुद्ध’ या ‘अशुद्ध’ का चिह्न लगाकर देना पड़ता है। कुछ प्रश्नों में रिक्त स्थानों को दिए गए शब्दों में से चुनकर भरना पड़ता है। इस प्रकार विद्यार्थी लगभग सौ प्रश्नों का समाधान केवल आधा घंटा या पौन घंटा के भीतर कर लेते हैं, प्रत्येक शुद्ध उत्तर के लिए, एक अंक दिया जाता है। परीक्षकों को अंक देने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती। मूल्यांकन पर परीक्षक के व्यक्तिगत कारकों का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता है। इस परीक्षा-प्रणाली के दो प्रकार हैं-
(i) शिक्षक-निर्मित वस्तुनिष्ठ परीक्षण तथा (ii) मानकीकृत वस्तुनिष्ठ परीक्षण।
शिक्षक-निर्मित परीक्षा उसे कहते हैं जो शिक्षकों द्वारा निर्मित होती है। इसके विपरीत स्तरमानित या मानकीकृत परीक्षा विशेषज्ञों द्वारा निर्मित होती है। शिक्षक-निर्मित परीक्षा का व्यवहार विशिष्ट रूप से तथा स्तर मानकीकृत परीक्षा का उपयोग सामान्य रूप से होता है । शिक्षक – निर्मित परीक्षा के कई प्रकार होते हैं जिनकी समीक्षा यहाँ आवश्यक है-
(i) शिक्षक-निर्मित वस्तुनिष्ठ परीक्षण के प्रकार
शिक्षक द्वारा निर्मित वस्तुनिष्ठ परीक्षा के अग्रलिखित प्रकार हैं-
1. सत्यासत्य परीक्षण – इस प्रकार की वस्तुनिष्ठ परीक्षा में सत्य या असत्य लिखकर अथवा शुद्ध के चिह्न (✓) या अशुद्ध के चिह्न (X) लगाकर उत्तर देना पड़ता है। कभी-कभी किसी कथन के सामने ‘सत्य’ या ‘असत्य’ लिखा हुआ रहता है और विद्यार्थियों को किसी एक के नीचे चिह्न लगाकर उत्तर देना पड़ता है।
उदाहरण – निम्नलिखित वाक्यों को पढ़ें। यदि वे सही हों तो सत्य के नीचे और यदि गलत हों तो असत्य के नीचे चिह्न लगा दें-
(i) स्त्री तथा पुरुष की बुद्धि में काफी अन्तर होता है सत्य असत्य
(ii) चन्द्रमा पर जीव-जन्तु पाए गए हैं सत्य असत्य
(iii) ताजमहल नूरजहाँ की यादगार है। सत्य असत्य
इस प्रकार के अनेक प्रश्न होते हैं। प्रत्येक सही उत्तर के लिए एक-एक अंक दिया जाता है। लेकिन, इस तरह के परीक्षण में अनुमान की काफी संभावना रहती है। यदि कोई विद्यार्थी बिना सोचे-समझे निशान लगाता चला जाए या किसी एक ही शब्द के नीचे चिह्न लगाता जाए तो भी वह कुछ अंक अवश्य ही प्राप्त कर लेगा। इससे बचने के लिए एक सरल तरीका यह है कि प्रत्येक विद्यार्थी के गलत उत्तरों को उसके सही उत्तरों में से घटा लिया जाता है और जो शेष बचता है वही उसका वास्तविक प्राप्तांक समझा जाता है।
2. रिक्त स्थान पूर्ति परीक्षण- इस प्रकार के परीक्षण के प्रश्नों में रिक्त स्थान छोड़ दिए जाते हैं, जिन्हें विद्यार्थियों को भरना पड़ता है।
उदाहरण- निम्नलिखित वाक्यों के रिक्त को भरें-
(i) भारतवर्ष एक……………है।
(ii) मिसीसीपी एक……………है।
(iii) सिपाही विद्रोह……………ई० में हुआ।
इस परीक्षण में भी सत्यासत्य परीक्षण की तरह उत्तरों का मूल्यांकन किया जाता है।
3. बहुविकल्प परीक्षण – इस प्रकार के परीक्षण में एक प्रश्न के कई उत्तर दिए रहते हैं, जिनमें कोई एक ही सही होता है। परीक्षार्थियों से उस सही उत्तर को चुनने के लिए कहा जाता है।
उदाहरण: निम्नलिखित प्रत्येक प्रश्न के कई उत्तर दिए गए हैं। सही उत्तर के नीचे चिह्न लगावें-
(i) प्रश्न- बुद्धि परीक्षण का आविष्कार किसने किया?
उत्तर- (a) टरमन (b) स्पीयर मैन (c) बीने (d) थार्नडाइक
(ii) प्रश्न – पानीपत की दूसरी लड़ाई कब हुई?
उत्तर- (a) 1526 (b) 1545 (c ) 1556 (d) 1761
(iii) प्रश्न- ताजमहल किसने बनवाया ?
उत्तर- (a) नूरजहाँ (b) जहाँगीर (c) शाहजहाँ (d) औरंगजेब।
लेकिन इस परीक्षण में भी अनुमान का हाथ बहुत बड़ा है। एक प्रश्न के उत्तर यदि चार से कम हों तो इसकी संभावना और भी अधिक हो जाता है। अतः यदि उत्तर चार से कम हों तो निम्नलिखित सूत्र का उपयोग करके अनुमान के प्रभाव को कम किया जा सकता है-
4. सुमेल परीक्षण – इस प्रकार के परीक्षण में कई तरह के कथन दिए रहते हैं। विद्यार्थियों को उनमें से दो-दो ऐसे कथनों को मिलाना पड़ता है जिनमें समायोजन होता है। उदाहरण – नीचे कुछ तिथियों तथा उनके प्रसिद्ध होने के कारण दिए गए हैं। तिथियों के सामने दिए गए ब्रैकेट में उनके प्रसिद्ध होने के कारणों की क्रम संख्या को अंकित करें।
प्रसिद्ध होने के कारण तिथियाँ
(i) पानीपत की तीसरी लड़ाई 1869 ( )
(ii) फ्रांस की क्रांति 1761 ( )
(iii) चन्द्रमा पर मानव का विजय 1969 ( )
(iv) भारतवर्ष का स्वतंत्रता दिवस 1947 ( )
(v) बापू का जन्म दिवस 1979 ( )
5. पुनर्व्यवस्थापन परीक्षण – इस प्रकार के परीक्षण में अव्यवस्थित वाक्य दिए जाते हैं, और परीक्षार्थियों से उन वाक्यों को व्यवस्थित करके सार्थक बनाने के लिए कहा जाता है। उदाहरण-
(i) कौआ का पक्षी प्रकार एक।
(ii) केन्द्रित शिक्षा की बात है आज।
(iii) शिक्षा के स्वस्थ के रूप में होना सफल जरूरी मानसिक लिए शिक्षक को।
कभी-कभी इस परीक्षण को और भी जटिल बनाने के लिए विद्यार्थियों को न केवल वाक्यों को सुव्यवस्थित करना पड़ता है बल्कि यह भी बताना पड़ता है कि वे सत्य हैं या असत्य। इसके लिए प्रत्येक वाक्य में सामने लिखे हुए ‘सत्य’, ‘असत्य’ या ‘अज्ञान’ के नीचे चिह्न लगाना पड़ता है। उदाहरण-
(i) बिल्ली का पक्षी है प्रकार एक।
(ii) की तरह पाठ चाहिये शिक्षक तैयारी से को पढ़ाने वाले अच्छी करनी इस।
(iii) नियमों को चाहिए पर समय भूलना को ट्राफिक नहीं चलते सड़क के
वास्तव में यह परीक्षण सत्यासत्य तथा पुनर्व्यवस्थित परीक्षणों का सम्मिलित रूप है।
उपर्युक्त शिक्षक निर्मित वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के अतिरिक्त इसके कई अन्य प्रकार हैं। लेकिन, अधिकांशतः इन्हीं पाँच परीक्षणों का उपयोग विद्यार्थियों के ज्ञानोपार्जन की जाँच में होता है।
(ii) मानकीकृत वस्तुनिष्ठ परीक्षण
मानकीकृत परीक्षण भी एक प्रकार की वस्तुनिष्ठ परीक्षा है। शिक्षक द्वारा निर्मित वस्तुनिष्ठ परीक्षा की अपेक्षा यह अधिक विश्वसनीय है । कारण यह है कि ऐसे परीक्षणों का निर्माण विशेषज्ञ के द्वारा होता है। इस परीक्षण के प्रश्न बड़ी मेहनत से बनाये जाते हैं। हजारों विद्यार्थियों पर उपयोग करने के बाद प्रत्येक वर्ग के लिए कुछ विशेष प्रश्न प्रामणिक स्वीकार किए जाते हैं। इस आधार पर यह मालूम कर लिया जाता है। कि अमुक आयु के विद्यार्थियों को इतने प्रश्नों का समाधान करना आवश्यक प्रारम्भिक जाँचों के बाद इनका उपयोग किसी भी स्कूल या पाठशाला के विद्यार्थियों के ज्ञानोपार्जन के परीक्षण के लिए किया जा सकता है।
मानकीकृत परीक्षणों के निर्मित हो जाने से शिक्षकों को स्वयं परीक्षण बनाने की जरूरत नहीं होती और इस प्रकार उनके समय तथा श्रम की जो बचत होती है, उसका उपयोग वे दूसरे रूप में कर सकते हैं । प्रामाणिक या मानकीकृत परीक्षणों से न केवल विद्यार्थियों की योग्यताओं का मापन होता है, बल्कि उनके द्वारा विभिन्न स्कूलों के शैक्षणिक स्तरों को आँकने में भी सुविधा होती । इसके अतिरिक्त उन परीक्षणों के आधार पर हम यह भी जान पाते हैं कि विद्यार्थियों की शैक्षणिक उपलब्धि तथा उनकी वास्तविक आयु में क्या अनुपात है इसके लिए सूत्र-
मानसिक आयु की तरह शिक्षा-आयु भी निकालते हैं। किसी समूह की उपलब्धि के औसत अर्थात् मध्यमान या माध्यिका को नॉर्म या मानक कहा जाता है। इसी नॉर्म के आधार पर किसी विद्यार्थी की उपलब्धि एक विशेष विषय में मानकीकृत समूह के अनुपात में निकाला जाता है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि उस विद्यार्थी की उपलब्धि समान आयु के विद्यार्थियों से कम है या अधिक उदाहरण के लिए मान लें कि एक विद्यार्थी का प्राप्तांक पढ़ने में औसत दस वर्ष के आयु वाले बालकों के बराबर है तो उसके पढ़ने की आयु दस वर्ष होगी । इसी तरह, लिखने, गणित की समस्या हल करने आदि की आयु निकाली जाती है । इन सभी विषयों की आयु का योग ही उसकी शिक्षा-आयु से होती है। इसके लिए विभिन्न उपलब्धि-परीक्षणों का उपयोग करना पड़ता है। इस प्रकार शिक्षा-आयु निकाल कर उसे वास्तविक आयु भाग देते हैं तथा भागफल को 100 से गुणा करते ही शिक्षा-लब्धि (E.Q.) कहते हैं।
अन्त में जो गुणनफल होता है, उसे मानकीकृत परीक्षणों के आधार पर उपलब्धि-लब्धि (A.Q) भी निकाली जाती है। इससे हम जान पाते हैं कि मानसिक योग्यता तथा शैक्षणिक उपलब्धि में क्या संबंध है। क्या बुद्धिमान बच्चे अपने विषयों में अपनी बुद्धि के अनुपात में निपुण हैं ? क्या निर्बल बुद्धि के बच्चे अपने विषय में भी उसी अनुपात में निर्बल हैं? ऐसे प्रश्नों की व्याख्या के लिए उपलब्धि-लब्धि की आवश्यकता होती है। इसके निकालने का सूत्र है-
इसे और भी स्पष्ट करने के लिए निम्नलिखित तालिका पर ध्यान दें-
विद्यार्थियों का नाम | किसी विशेष विषय की शिक्षा आयु | उ० ल० | बु० ल० |
क ख ग घ ङ च |
8 से 7 महीने 10 से 7 महीने 13 से 5 महीने 9 से 7 महीने 11 से 1 महीने 11 से 1 महीने |
100 100 100 109 95 93 |
83 115 120 88 105 112 |
इस तालिका में विद्यार्थी ‘क’, ‘ख’ तथा ‘ग’ बुद्धि के दृष्टिकोण से भिन्न है, लेकिन इन तीनों में उपलब्धि-लब्धि औसत विद्यार्थियों से समान है। इसका अर्थ यह हुआ कि तीनों अपने स्कूल का काम मेहनत से कर रहे हैं। लेकिन, विद्यार्थी ‘घ’ तथा ‘ङ’ के साथ ऐसी बात नहीं है।
‘घ’ की बुद्धि-लब्धि कम है लेकिन उसकी शिक्षा-लब्धि बुद्धि के अनुपात में अधिक है। इसके विपरीत ‘च’ की बुद्धि-लब्धि अधिक है लेकिन उस अनुपात में शिक्षा-लब्धि क है। इससे सिद्ध होता है कि यह आवश्यक नहीं है कि बुद्धि-लब्धि और शिक्षा-लब्धि सदा समान हो। स्कूल में कुछ तीव्र बुद्धि के बच्चे किसी कारणवश अपने स्कूल के कार्य उचित रूप नहीं कर पाते हैं। फलतः उनकी शिक्षा-लब्धि कम हो जाती है। इसके विपरीत कुछ निम्न बुद्धि के बच्चे अपने परिश्रम के कारण परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर लेते हैं। इन सारी भिन्नताओं के वास्तविक कारणों की व्याख्या के लिए शिक्षा-लब्धि का ज्ञान आवश्य है।
वस्तुनिष्ठ परीक्षा के गुण या लाभ (Merits or Advantages of Objective Type Examination)
वस्तुनिष्ठ परीक्षा के निम्नलिखित गुण हैं-
(i) समय और परिश्रम की बचत (Time and labour saving) – मौखिक या निबन्धात्मक परीक्षा की अपेक्षा वस्तुनिष्ठ परीक्षा के द्वारा विद्यार्थियों के ज्ञानोपार्जन के मूल्यांकन में समय तथा श्रम की काफी बचत होती है। इस परीक्षा में परीक्षार्थियों को अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं होती बल्कि ‘हाँ’ या ‘नहीं’ या ‘अशुद्ध’ अथवा रिक्त स्थानों की पूर्ति के द्वारा वे प्रश्नों के उत्तर बड़ी आसानी से दे सकते हैं। इसी तरह परीक्षकों को भी प्रश्नोत्तरों की जाँच में अधिक समय तक परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार इस परीक्षा में परीक्षार्थियों तथा परीक्षकों दोनों के समय और श्रम में काफी बचत होती है।
(ii) व्यापक क्षेत्र (Extensive coverage) – यह परीक्षा प्रणाली इतना व्यापक है कि इसमें सम्पूर्ण पाठ्क्रम का समावेश हो जाता है। प्रश्नों की संख्या इतनी अधिक होती है कि पाठ्यक्रम के सभी पहलुओं को आसानी से शामिल कर दिया जाता है। इस प्रकार विद्यार्थियों के ज्ञानोपार्जन का व्यापक एवं समग्र रूप से मापन होता है।
(iii) विवेक पर बल (Stress on reasoning)- वस्तुनिष्ठ परीक्षा रट कर याद करने की अपेक्षा, समझ कर याद करने की प्रेरणा देती है। इसके प्रश्न इस प्रकार के होते हैं कि कोई विद्यार्थी बिना विवेक और सूझ के केवल रट कर इनके उत्तर नहीं दे सकता। फलतः इससे विद्यार्थियों को रटने की आदत छोड़ने तथा समझ कर याद करने का प्रोत्साहन मिलता है।
(iv) मूल्यांकन का समान मापदण्ड (Uniform standard of evaluation)- इस परीक्षा का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसमें प्रश्नोत्तरों का मूल्यांकन वैज्ञानिक ढंग से किया जाता है। प्रश्नों के उत्तर निश्चित रहते हैं। अतः सभी परीक्षक समान रूप से उत्तरों की जाँच कर पाते हैं। एक समय में एक परीक्षक जिस उत्तर के लिए जितना अंक देता है दूसरे समय में भी वह उतना ही अंक देता है। इसी तरह विभिन्न परीक्षकों के द्वारा एक उत्तर के लिए एक ही अंक दिया जाता है। स्पष्ट है कि इस परीक्षा का मापदण्ड सदा समान होता है।”
(v) पूर्वधारणा तथा पक्षपात का अभाव (Lack of Prejudice and partiality)— वस्तुनिष्ठ परीक्षा में प्रश्नोत्तरों के मूल्यांकन पर परीक्षक की पूर्वधारणा या पक्षपात का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता है। कारण यह है कि इसमें विद्यार्थियों को अधिक नहीं लिखना पड़ता है इसलिए उनकी भाषा-शैली, लिखावट, तथ्यों के संगठन इत्यादि से परीक्षकों को प्रभावित होने का प्रश्न ही नहीं उठता । इस प्रकार परीक्षक का अपना कोई व्यक्तिगत दृष्टिकोण जो उसकी पूर्वधारणा पर आधारित हो, नहीं होता। इसलिए पूर्वधारणा या पक्षपात का तनिक भी प्रभाव प्रश्नोत्तरों के मूल्यांकन पर नहीं पड़ता है।
(vi) स्वास्थ्य के लिए अहानिकारक (Harmless for health) – परीक्षार्थियों एवं परीक्षकों के मानसिक या शारीरिक स्वास्थ्य पर इस परीक्षा का कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है। परीक्षार्थी तीस या पैतालिस मिनट में ही सौ प्रश्नों का समाधान कर लेते हैं। इससे उनका मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित नहीं होता है। इसी तरह परीक्षकों को प्रश्नोत्तरों की जाँच करने में अधिक समय तथा परिश्रम नहीं करना पड़ता और इस प्रकार उनके स्वास्थ्य पर भी कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है ।
(vii) विसंगति पर नियंत्रण (Control on irrelevancy) – वस्तुनिष्ठ परीक्षा का एक गुण यह भी है कि विद्यार्थियों द्वारा असंबद्ध या अनावश्यक बातों को लिखे जाने की संभावना भी नहीं रहती है। प्रश्न इस प्रकार के होते हैं कि विद्यार्थियों को ‘हाँ’ या ‘नहीं’ में उत्तर देना पड़ता है। कुछ प्रश्नों के उत्तर दिये हुए रहते हैं, जिनमें केवल शुद्ध या अशुद्ध का चिह्न लगाना पड़ता है। इसी तरह कुछ प्रश्नों में रिक्त स्थान छोड़ दिए जाते हैं जिन्हें दिए गए शब्दों में से चुनकर भरना पड़ता है। ऐसी अवस्था में इस बात की संभावना नहीं होती कि विद्यार्थियों को असंगत या अनावश्यक बातों के लिए धोखे से भी एक अंक प्राप्त हो जाए।
इस प्रकार हम देखते हैं कि वस्तुनिष्ठ परीक्षा के उपर्युक्त अनेक गुण हैं जिनके कारणइसका उपयोग व्यापक हो चला है।
वस्तुनिष्ठ परीक्षा के दोष या सीमाएँ (Disadvantages or Limitations of Objective Type Exmination)
इस परीक्षा के निम्नांकित अवगुण हैं-
(i) निर्माण संबंधी कठिनाई (Construction difficulties) – वस्तुनिष्ठ परीक्षा निर्मित करना टेढ़ी खीर है। प्रश्न कुछ इस प्रकार के बनाए जाते हैं कि छोटे होने पर भी सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को अपने में समेट सकें। साथ ही उनसे विद्यार्थियों की न केवल स्मरण शक्ति की जाँच हो सके बल्कि उनके विवेक का भी मापन हो सके। प्रत्येक शिक्षक या अधिकारी ऐसे प्रश्नों का निर्माण नहीं कर सकते। इसके लिए विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है, किन्तु ऐसे विशेषज्ञ बड़ी कठिनाई से मिलते हैं।
(ii) स्मृति निर्माण (Memory test) – इस परीक्षण के संबंध में यह भी कहा जाता है। कि इसके द्वारा मात्र स्मरण शक्ति का ही मापन हो पाता है। इससे विद्यार्थियों के विवेक तथा ज्ञान की गहराई की परीक्षा नहीं हो पाती है। निबन्धात्मक परीक्षा की तरह इस परीक्षा में विद्यार्थी अपने पाठ्यक्रम को रटकर अच्छा अंक प्राप्त कर सकता है। इसलिए कहते हैं। कि “वस्तुनिष्ठ मापन से मात्र स्मृति का मापन होता है।”
(iii) तथ्यपरक परीक्षण (Factual test) – वस्तुनिष्ठ परीक्षा वस्तुतः एक तथ्यपरक परीक्षण है। इससे केवल इस बात की जाँच होती है कि अमुक विद्यार्थी ने अपने पाठ्यक्रम के तथ्यों को किस हद तक याद किया है। इससे परीक्षक यह नहीं जान पाता है कि अमुक विद्यार्थी की रचनात्मक योग्यता कितनी है। अतः कोई विद्यार्थी बिना रचनात्मक योग्यता के भी पाठ्यक्रम के अधिकाधिक तथ्यों को रटकर अच्छा अंक प्राप्त कर सकता है परीक्षा का उद्देश्य न केवल यह देखना है कि अमुक विद्यार्थी ने अपने पाठ्य को कितना पढ़ा। एक आदर्श है, बल्कि यह भी देखना है कि उसकी विवेचनात्मक एवं रचनात्मक योग्यताएँ किस सीमा तक विकिसित हो सकी है। लेकिन खेद है कि इस आदर्श उद्देश्य की पूर्ति वस्तुनिष्ठ परीक्षा से संभव नहीं है इसलिए कहते हैं कि, “नवीन वस्तुनिष्ठ परीक्षणों से किसी व्यक्ति की रचनात्मक योग्यताओं का मापन शायद ही हो पाता है। “
(iv) अनुमान द्वारा हल करना (Solution by conjecture)- वस्तुनिष्ठ परीक्षा में अटकल लगाकर या अनुमान के आधार पर प्रश्नों को हल करने की संभावना अधिक होती है। प्रश्नों का उत्तर लिखते समय यदि विद्यार्थी अन्दाज से ‘हाँ’ या ‘नहीं’ लिखता चला जाए अथवा शुद्ध या अशुद्ध का चिह्न लगाता चला जाए अथवा दिए गए शब्दों में से अनुमान से ही शब्दों को चुनकर खाली जगहों में भरता जाए तो भी वह कुछ अंक प्राप्त कर सकता है। अत: यह कहना बड़ा कठिन है कि किसी विद्यार्थी का प्राप्तांक किस सीमा तक उसके ज्ञानोपार्जन का परिणाम है और किस सीमा तक उसकी अटकलबाजी की उपज है। यद्यपि इस पर नियंत्रण करने का प्रयास किया गया है, फिर भी इसमे पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी है।
(v) लेखन-क्षमता की उपेक्षा (Neglect of writing power) – वस्तुनिष्ठ परीक्षा के उपयोग से विद्यार्थियों की लेखन क्षमता को बढ़ाने को प्रोत्साहन नहीं मिलता है। जीवन में सफलता प्राप्ति के लिए ज्ञान के साथ-साथ लेखन क्षमता की आवश्यकता होती है। इस क्षमता के विकास में अभ्यास का महत्त्वपूर्ण हाथ है, लेकिन इस परीक्षा-प्रणाली में विद्यार्थियों को लिखने का अभ्यास नहीं होने पाता है जिससे लेखन क्षमता उपेक्षित होती रहती है।
स्पष्ट है कि वस्तुनिष्ठ परीक्षा की अपनी सीमाएँ हैं। फिर भी यदि प्रश्नों का निर्माण समुचित हो सके तो एक बड़ी सीमा तक इसकी त्रुटियों को नियंत्रित किया जा सकता है। अतः जिस आदर्श वस्तुनिष्ठ परीक्षा की हम कल्पना करते हैं यदि वह साकार हो जाए तो इससे विद्यार्थियों के विवेक एवं रचनात्मक योग्यताओं को विकसित होने में मदद मिल सकती है।
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