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अभिप्रेरणा की प्रकृति एवं स्रोत | Nature and Sources of Motivation in Hindi

अभिप्रेरणा की प्रकृति एवं स्रोत
अभिप्रेरणा की प्रकृति एवं स्रोत

अभिप्रेरणा की प्रकृति एवं स्रोत (Nature and Sources of Motivation)

अभिप्रेरणा की प्रकृति को निम्न बिन्दुओं की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है-

(i) अभिप्रेरणा प्रक्रिया एवं परिणाम दोनों हैं।

(ii) प्रक्रिया रूप में अभिप्रेरणा व्यक्ति के अंदर एक ऐसी शक्ति अथवा ऊर्जा उत्पन्न करने की प्रक्रिया है जो व्यक्ति को किसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु कार्य विशेष करने की ओर प्रवृत्त करती है और परिणाम रूप में यह वह आन्तरिक शक्ति अथवा ऊर्जा है जो व्यक्ति को किसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु कार्य विशेष करने की ओर प्रवृत्त करती है।

(iii) अभिप्रेरणा का जन्म किसी-न-किसी आवश्यकता से होता है।

(iv) अभिप्रेरणा एक प्रबल भावात्मक उत्तेजना की स्थिति होती है जिसके कारण व्यक्ति में मनोवैज्ञानिक तनाव उत्पन्न होता है जिसे कम करने के लिये वह क्रियाशील होता है।

(v) अभिप्रेरणा व्यक्ति को तब तक क्रियाशील रखती है जब तक कि उद्देश्य प्राप्ति नहीं हो जाती है।

अभिप्रेरणा के स्रोत (Sources of Motivation)

अभिप्रेरणा किसी आवश्यकता से प्रारम्भ होती है और उद्देश्य प्राप्ति के बाद समाप्त हो जाती है। इसमें अन्तर्नोद और प्रोत्साहन की भी अपनी ही भूमिका होती है। इसलिये अभिप्रेरणा के निम्न स्रोत हैं—

(i) आवश्यकताएँ (Needs) – आवश्यकता प्राणी में किसी कमी की पूर्ति का द्योतक होती है। जैसे—प्राणी के शरीर में पानी की कमी की पूर्ति के लिये पानी की आवश्यकता का अनुभव होना। मनुष्य की आवश्यकताओं को सामान्यतः दो वर्गों में विभाजित किया जाता है- शारीरिक अथवा जैविक और मनो-सामाजिक। शारीरिक आवश्यकताओं में मनुष्य की शारीरिक अथवा जैविक आवश्यकताएँ आती है; जैसे—भोजन, जल, वायु व मल-मूत्र विसर्जन आदि और मनो-सामाजिक आवश्यकताओं में मनुष्य में उसके सामाजिक पर्यावरण के कारण उत्पन्न मनोसामाजिक आवश्यकताएँ आती हैं। जैसे—आत्मसम्मान, सामाजिक स्तर एवं अर्थ आदि। ये आवश्यकताएँ मनुष्य में तनाव उत्पन्न करती हैं और वह इनकी पूर्ति के लिए क्रियाशील हो जाता है और तब तक क्रियाशील रहता है जब तक कि उसकी आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो जाती। जैसे—भूख लगने पर मनुष्य को भोजन की आवश्यकता अनुभव होती है, यह उसमें एक तनाव उत्पन्न कर देती है और इस तनाव के कारण वह भोजन की प्राप्ति के लिये क्रियाशील हो उठता है और यह तनाव की स्थिति उसमें तब तक रहती है जब तक उसे भोजन प्राप्त नहीं हो पाता। बोरिंग और लैंगफील्ड ने आवश्यकता को तनाव के रूप में ही परिभाषित किया है। उनके शब्दों में’आवश्यकता प्राणी के अन्दर का वह तनाव है जो उसे उद्देश्यलक्षित निश्चित प्रोत्साहनों की ओर प्रवृत्त करता है और उनकी प्राप्ति हेतु क्रियाओं को उत्पन्न करता है।”

(ii) अन्तर्नोद या चालक (Drive)— आवश्यकता प्राणी के अंदर तनाव पैदा करती है, यह तनाव जिस रूप में अनुभव किया जाता है उसे अन्तनोंद अथवा चालक कहते हैं। जैसे भोजन की आवश्यकता होने पर भूख लगना एवं पानी की आवश्यकता होने पर प्यास लगना आदि । ये चालक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्राणी को क्रियाशील करते हैं। जैसे—भूख लगने पर भोजन की तलाश करना और प्यास लगने पर पानी प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना । शेफर व अन्य के अनुसार – ” अन्तर्नोद या चालक वह शक्तिशाली एवं सतत् उद्दीपक है जो किसी समायोजन की अनुक्रिया की माँग करता है।”

(iii) प्रोत्साहन (Incentive ) — प्रोत्साहन को उद्दीपन भी कहते हैं। प्रोत्साहन बाह्य वातावरण से प्राप्त होने वाली वह वस्तु है जो प्राणी की आवश्यकता की पूर्ति कर आवश्यकता के कारण उत्पन्न अन्तनोंद अथवा चालक को शांत करती है; जैसे—भूख की पूर्ति के लिये भोजन। भोजन भूख प्रेरक को शांत करने के संदर्भ में प्रोत्साहन है। इसी प्रकार काम चालक का उद्दीपन/प्रोत्साहन है— दूसरे लिंग का व्यक्ति क्योंकि उसी से यह चालक संतुष्ट होता है अतः हम बोरिंग, लैंगफील्ड एवं बील्ड के शब्दों में कह सकते हैं कि “उद्दीपन की परिभाषा उस वस्तु, स्थिति या क्रिया के रूप में की जा सकती है, जो व्यवहार को उद्दीप्त, उत्साहित ओर निर्देशित करती है।”

हिलगार्ड ने इसे निम्नलिखित रूप परिभाषित किया है— “सामान्यतः उचित प्रोत्साहन वह है जिसके प्राप्त होने से अन्तर्नोद की तीव्रता कम होती है।”

(iv) प्रेरक (Motives)— प्रेरक अति व्यापक शब्द है। इसके अंतर्गत उद्दीपन/प्रोत्साहन, चालक, तनाव व आवश्यकता सभी आ जाते हैं। गेट्स के अनुसार- “प्रेरकों के विभिन्न स्वरूप हैं और इनको विभिन्न नामों से पुकारा जाता है; जैसे—आवश्यकतायें, इच्छायें, तनाव, स्वाभाविक स्थितियाँ, निर्धारित प्रवृत्तियाँ, अभिवृत्तियाँ, रुचियाँ और स्थायी उद्दीपक आदि।”

प्रेरक क्या हैं ? इस सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं। कुछ इनको जन्मजात या अर्जित शक्तियाँ मानते हैं, कुछ इनको व्यक्ति की शारीरिक या मनोवैज्ञानिक दशाएँ मानते हैं और कुछ इनको निश्चित दिशाओं में कार्य करने की प्रवृत्तियाँ मानते हैं। पर सभी विद्वान इस बात से सहमत हैं कि ‘प्रेरक’ व्यक्ति को विशेष प्रकार की क्रियाओं या व्यवहार करने के लिये उत्तेजित करते हैं । वास्तव में प्रेरक ही व्यक्ति को उद्देश्यों की प्राप्ति की ओर ले जाते हैं।

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