रचनात्मक अधिगम की प्रभावशाली विधियाँ (Effective methods of Construction Learning)
किसी नई क्रिया या नये पाठ को सीखने के लिये विभिन्न विधियों का प्रयोग किया जा सकता है। यहाँ उन विधियों में से केवल उन विधियों का वर्णन किया जा रहा है जिनको मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर अधिक उपयोगी और प्रभावशाली पाया गया है। ये विधियाँ अग्रांकित हैं-
1. कहानी विधि
अधिगम या सीखने में कहानी विधि का प्रयोग बड़े प्रभावशाली ढंग से किया जा सकता है। छोटे बालक कहानी सुनने में एक विशेष आनन्द का अनुभव करते हैं अतः पाठ्य सामग्री को कहानी के माध्यम से सुनाकर बालकों में पढ़ने के प्रति रुचि जाग्रत की जा सकती है। गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, महात्मा गाँधी, शिवाजी आदि महापुरुषों की कथायें रोचक ढंग से बालकों के सम्मुख प्रस्तुत की जानी चाहिए। कहानी सुनाते समय अध्यापक को भाषा की सरलता और प्रवाह पर विशेष ध्यान देना चाहिए। कहानी अधिक लम्बी भी नहीं होनी चाहिए और इसके माध्यम से बालकों को हल करने के लिये प्रश्न भी दिये जा सकते हैं।
कहानी विधि का महत्त्व
प्रसिद्ध विद्वान एफ. आर. वार्टस ने कहानी विधि के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुये लिखा है-” कहानी 13 वर्ष की अवस्था तक के बालकों को इतिहास पढ़ाने का मुख्य साधन होना चाहिए।” भूगोल के शिक्षण में भी कहानी विधि का प्रयोग किया जा सकता है। कहानी विधि द्वारा बालकों का भौतिक विकास भी किया जा सकता है व उन्हें प्रभावी अधिगम भी कराया जा सकता है।
कहानी विधि में रखी जाने वाली सावधानियाँ
1. कहानी सुनाने से पूर्व उसका चुनाव सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए। कहानी छात्रों के मानसिक स्तर के अनुकूल होनी चाहिए।
2. कहानी जिस ऐतिहासिक या भौगोलिक तथ्य से सम्बन्धित हो उसकी अध्यापक को पूर्ण जानकारी होनी चाहिए।
3. अध्यापक को चाहिए कि वह कहानी को कभी भी किसी पुस्तक से पढ़कर न सुनाये।
4. कहानी सुनाने में काल क्रम का ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए ।
2. अभिनय विधि
यह शिक्षण का सर्वाधिक सजीव एवं प्रभावशाली विधियों में से एक है। इसमें किसी घटना या पाठ्यवस्तु को जीवित रूप में प्रदर्शित करके छात्रों की सृजनात्मक शक्तियों का विकास किया जा सकता है और इससे छात्रों को स्व-क्रिया द्वारा शिक्षा प्राप्त करने के पर्याप्त अवसर भी मिलते हैं। यह विधि छात्रों में आत्मविश्वास तथा आत्माभिव्यंजन की शक्तियों का विकास करती है।
अभिनय विधि का महत्त्व
इस अभिनय या नाटकीकरण विधि का ऐतिहासिक अध्ययन में महत्त्व बताते हुये श्री माथुर ने लिखा है—“शिक्षा में शिक्षक समय-समय पर आवश्यकतानुसार पाठ में रोचकता तथा सरसता लाने के लिये या सूक्ष्म भावनाओं को प्रदर्शित करने एवं छात्रों को वास्तविक स्थिति का ज्ञान कराने के लिये अभिनय विधि का प्रयोग करते हैं। अभिनय करने से छात्रों की भावना और कल्पना शक्ति का विकास होता है। अभिनय करके छात्र स्वयं जीवन की विभिन्न परिस्थितियों का अनुभव प्राप्त करते हैं।”
इसके अन्तर्गत स्वास्थ्य के नियमों, सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वासों, ग्रामीण समस्याओं आदि पर अभिनय विधि का प्रयोग बड़ी सफलता के साथ किया जा सकता है। छोटी कक्षाओं में अभिनय विधि का विशेष महत्त्व होता है क्योंकि बालक इस स्तर पर खेल-खेल में ज्ञान प्राप्त करने में विशेष आनन्द लेते हैं और उनकी झिझक दूर हो जाती है तथा आत्माभिव्यक्ति के अवसर प्राप्त होने से अभिव्यंजना शक्ति का विकास होता है।
अभिनय विधि में रखी जाने योग्य सावधानियाँ
(1) अभिनय विधि का प्रयोग आवश्यकता से अधिक न किया जाये।
(2) इस विधि के प्रयोग के पूर्व पूरी तैयारी कर लेनी चाहिए।
(3) सामाजिक जीवन की विभिन्न समस्याओं को भी अभिनीत किया जाना चाहिए।
(4) नाटक ऐसा हो जिसमें कक्षा के अधिक से अधिक छात्र भाग ले सकें।
(5) जिस घटना या तथ्य को अभिनय विधि से प्रदर्शित करना हो, उसके विषय में अध्यापक को पूर्ण जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए ।
3. खेल विधि
छोटे बालकों की यह स्वभावगत प्रवृत्ति होती है वे खेल में विशेष रुचि लेते हैं और हर समय खेलना ही अधिक पसंद करते हैं और यदि उनके खेल में बाधा डाली जाये तो वे क्रोधित होने लगते हैं। इस प्रकार खेल बालकों की स्वाभाविकता, स्वतंत्रता और आनन्द से परिपूर्ण एक मनोरंजक क्रिया है। खेल के अभाव में बालकों का शारीरिक व मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। अतः पर्यावरण शिक्षण में भी बालकों को खेल विधि से अवबोध या अधिगम कराना बहुत सरल हो जाता । ‘कुक’ महोदय ने कहा है कि खेल विधि पर ही समस्त विषयों का शिक्षण आधारित होना चाहिए। उनके अनुसार खेल द्वारा शिक्षा देने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि कठिन विषय भी बालकों के लिये बड़ा सरल बन जाता है। अतः खेल विधि वास्तव में एक अत्यंत मनोवैज्ञानिक विधि है क्योंकि इसमें बालकों को अपनी रुचि तथा मानसिक क्षमता के अनुसार काम करने की स्वतंत्रता प्राप्त हो जाती है और उनकी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक शक्तियाँ गतिशील हो जाती हैं तथा बालक अपने ज्ञान का प्रयोग जीवन की यथार्थ परिस्थितियों में करना सीखता है विद्वान स्टर्न के शब्दों में―”जो कार्य हम स्वेच्छा से स्वतंत्रतापूर्ण वातावरण में करें वही खेल है।” अतः खेल बालकों को स्वतंत्र वातावरण प्रदान करता है।
खेल विधि में रखी जाने योग्य सावधानियाँ
(1) इस विधि में किसी भी विषय का शिक्षण करते समय बालकों को यथासंभव स्वतंत्रता दी जाये। खेल विधि में बंधन रहने से उसका उद्देश्य ही नष्ट हो जाता है।
(2) खेल और पाठ्य सामग्री का समन्वय विशेष सावधानी से करना चाहिए।
(3) खेल विधि का प्रयोग करते समय बालकों की रुचि व शारीरिक क्षमता का विशेष रूप से ध्यान रखा जाना चाहिए।
(4) यथासंभव खेल इस प्रकार के हों जिनका सम्बन्ध, पाठ्य सहगामी व विषय के अतिरिक्त बालक के दैनिक जीवन से भी हो।
4. अवलोकन विधि
निरीक्षण का अर्थ है किसी घटना या वस्तु को ध्यान या सावधानी से देखना। अतः जब हम किसी वस्तु का निरीक्षण करते हैं तो उस वस्तु पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं और यदि निरीक्षण ध्यानपूर्वक नहीं होता है तो वह निरीक्षण न होकर केवल देखना ही होता है। ‘योकम’ तथा ‘सिम्पसन’ के अनुसार “निरीक्षण ज्ञानेन्द्रिय सम्बन्धी सीखने की विधि है जिसमें व्यक्ति को अपने चारों ओर के संसार का ज्ञान प्राप्त होता है।”
अवलोकन विधि का महत्त्व
(1) यह मनोवैज्ञानिक विधि है, जिससे छात्रों की ज्ञानेन्द्रियों का विकास होता है।
(2) इससे छात्रों की चिंतन व तर्क शक्ति का विकास होता है।
(3) इसके प्रयोग से बालक के ज्ञान भण्डार की स्थायी वृद्धि होती है।
(4) इस विधि से छात्रों में रुचि व जिज्ञासा स्वतः ही उत्पन्न हो जाती है। अवलोकन
विधि में रखी जाने योग्य सावधानियाँ
(1) जिन वस्तुओं व परिस्थितियों का निरीक्षण करना है, वे बालकों के मानसिक स्तर के अनुकूल होनी चाहिए।
(2) परिस्थितियाँ यथासंभव छात्रों के जीवन से सम्बन्धित होनी चाहिए।
(3) छात्रों को निरीक्षण के लिये पर्याप्त समय दिया जाना चाहिए।
(4) निरीक्षण / अवलोकन के पश्चात् जो निष्कर्ष निकाले जायें, उनमें सावधनी रखी जाये।
5. वाद-विवाद विधि
दो या दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा किये गये विचारशील चिंतन को वाद-विवाद कहते हैं। वास्तव में वाद-विवाद सामूहिक निर्णय लेने अथवा विचार निर्माण करने की एक व्यवस्थित प्रक्रिया है। अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सोद्देश्य, सार्थक, तार्किक व ज्ञानयुक्त विचार-विमर्श ही वाद-विवाद है।
वाद-विवाद विधि का महत्त्व
(1) यह विधि छात्रों में स्वाध्याय की प्रवृत्ति का विकास करती है।
(2) इस विधि से छात्रों में तार्किक शक्ति का समुचित विकास होता है।
(3) यह विधि छात्रों में स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर बल देती है ।
(4) यह विधि छात्रों की व्यक्तिगत वैचारिक विभिन्नताओं पर आधारित है।
वाद-विवाद विधि में रखी जाने योग्य सावधानियाँ
(1) इसमें सभी छात्रों को अपने स्वतंत्र विचार व्यक्त करने का अवसर प्रदान करना चाहिए।
(2) वाद-विवाद का प्रारम्भ एवं तैयारी का संपादन भली-भाँति किया जाना चाहिए।
(3) वाद-विवाद कराने से पूर्व ‘समस्या’ का चयन सही प्रकार से किया जाना चाहिए।
(4) वाद-विवाद को सुविधा की दृष्टि से छोटे-छोटे समूहों में विभक्त किया जा सकता है।
6. भ्रमण विधि
इस विधि के जन्मदाता पेस्टॉलोजी हैं। यह प्रकृतिवादी दर्शन शिक्षा पर आधारित है। शिक्षा-शास्त्रियों ने कहा है-“पयर्टन बालक की शिक्षा का महत्त्वपूर्ण साधन है।”
वास्तव में पर्यटन / भ्रमण ऐसा साधन है जिसके द्वारा छात्र अपने ज्ञान को प्रत्यक्ष देखकर स्थायी एवं सुदृढ़ बनाता है। जैसे—विद्युत उत्पादन के लिये बिजलीघर ले जाकर उसे दिखाना । इस विधि से बालक को सूक्ष्म निरीक्षण करने, अपनी मानसिक शक्तियों का विकास करने, अपनी जिज्ञासा एवं अन्वेषण प्रवृत्ति का उचित उपयोग करने का अवसर प्राप्त होता है। इसके साथ ही उसके दृष्टिकोण में वैज्ञानिकता व रचनात्मकता आती है। इसके आयोजन के लिये उचित स्थान का चयन आवश्यक है। इसमें वैज्ञानिक तथ्यों, नियमों, घटनाओं और प्रक्रियाओं का अवलोकन किया जाये ताकि उनसे कुछ परिणाम निकाले जा सकें। स्थान के चुनाव के सम्बन्ध में प्राकृतिक, सामाजिक, औद्योगिक क्षेत्र देखना आवश्यक है। तालाब, पवर्त शृंखला, वाटिकायें, नदियाँ, मुर्गी पालन केन्द्र, स्वास्थ्य केन्द्र, रेलवे स्टेशन, आकाशवाणी, अभयारण्य व राष्ट्रीय उद्यान आदि को भी बालकों को भ्रमण द्वारा दिखाया जा सकता है।
भ्रमण विधि का महत्त्व
(1) भ्रमण विधि अध्यापन की नीरसता को दूर कर उसे सरस और आकर्षक बनाती है।
(2) भ्रमण द्वारा बालकों की सामान्य बुद्धि का विकास होता है।
(3) यह पाठ्यक्रम के अनुभवों को समृद्ध एवं स्थायी बनाती है।
(4) इससे बालक सामाजिक व प्राकृतिक वातावरण का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते हैं।
भ्रमण विधि में रखी जाने योग्य सावधानियाँ
(1) छात्रों को जिस स्थान का भ्रमण कराना हो वहाँ यह देखना आवश्यक है कि क्या वहाँ जाने से शिक्षण का उद्देश्य पूरा होता है।
(2) यह पहले से ही निश्चित कर लिया जाये कि भ्रमण के समय किन-किन स्थलों का भ्रमण करना है।
(3) भ्रमण पर जाने से पूर्व भ्रमण का काल निश्चित कर लेना चाहिए।
(4) प्राथमिक स्तर के छात्रों को सर्वप्रथम आस-पास के स्थल का ही भ्रमण कराया जाये।
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- राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 [ National Policy of Education (NPE), 1986]
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