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सामाजिक रचनावाद क्या है? | Social Constructivism in Hindi

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सामाजिक रचनावाद क्या है?  (Social Constructivism)

रचनात्मक सिद्धान्तों में सबसे प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त सामाजिक रचनावाद है। इस सिद्धान्त की उपज वाइगोटस्की के रचनात्मक सिद्धान्त से होने का अनुमान है जिसे प्रायः सामाजिक रचनावाद के नाम से जाना जाता है। सामाजिक रचनावाद एक प्रकार का अधिगम सिद्धान्त ही है जो इस तथ्य पर बल देता है कि अधिगम एक सक्रिय सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति एक दूसरे से अन्तः क्रिया करके, विचार-विमर्श करके, वाद-विवाद करके वार्तालाप करके अथवा एक दूसरे के सम्पर्क में आकर नये सन्दर्भों एवं अर्थों की खोज करते हैं, उन्हें सुपरिभाषित करते है, अर्थापन करते हैं, नये आयाम प्रस्तुत करते हैं आदि-आदि । व्यक्ति जिस प्रकार के वातावरण में रहता है वह वातावरण भी ज्ञान की रचना में अथवा ज्ञान सृजन में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस प्रकार ज्ञान वह है जो व्यक्ति द्वारा सामाजिक एवं सांस्कृतिक सन्दर्भों में खोजा जाता है अर्थात् जिस ज्ञान की रचना सामाजिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में की जाती है। इसी अर्थ में वाइगोत्स्की प्याजे से भिन्न विचारधारा रखते थे।

सामाजिक रचनावाद

संक्षेप में, सामाजिक रचनावाद की मुख्य विशेषतायें निम्नलिखित हैं-

  • अधिगम सही अर्थों में एक सक्रिय रूप से अर्थ प्रदान करने की प्रक्रिया है न कि निष्क्रिय रूप से है।
  • नवीन ज्ञान की रचना पूर्व ज्ञान के आधार पर होती है। अर्थात् पूर्व ज्ञान ही नवीन ज्ञान को आधार प्रदान करता है।
  • अधिगमन वातावरण प्रजातांत्रिक एवं विकेन्द्रीकरण होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार के वातावरण में छात्र को अधिगमन स्वतंत्रता प्रदान की जाती है।
  • ज्ञान सृजन का मुख्य आधार सामाजिक अन्तः क्रिया होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि ज्ञान प्राप्ति हेतु अथवा ज्ञान निर्माण हेतु व्यक्ति का सामाजिक होना भी आवश्यक समझा जाता है।
  • प्रामाणिक (वास्तविक) अधिगम कार्यों में अनवरत रूप से सक्रियता एवं सहभागिता चिन्तन कौशलों के निर्माण में मार्ग निर्धारित करने में मदद करती है।
  • अध्यापक अधिगम प्रक्रिया को आगे बढ़ाता है, छात्रों को प्रोत्साहित करता है तथा सही दिशा में मार्ग निर्देशन करता है ताकि उपयोगी अधिगम की प्राप्ति हो सके।

इस दृष्टि से अध्यापक को कक्षा-कक्ष में ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करना चाहिये जिससे छात्र उनमें सक्रिय रूप से भाग ले सके तथा उन तथ्यों के बारे में ठीक से जानकारी प्राप्त कर सके जिनके सम्पर्क में वह आता है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में अध्यापक को इसमें गति लाने की दृष्टि से एक विशिष्ट प्रकार की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ती है। उसे छात्रों को प्रोत्साहित करना चाहिये कि वह सहयोग पर आधारित शिक्षण प्रविधियों को अधिक से अधिक प्रयोग में लायें, जैसे-प्रयोग, वास्तविक संसार से जुड़ी समस्या समाधान, मस्तिष्क उद्वेलन, वाद-विवाद आदि निःसन्देह ये प्रविधियाँ ज्ञान सृजन में सहायक सिद्ध होगी जो छात्र को इस दिशा ज्ञान प्राप्त करायेंगी कि जो उसने किया है या सीखा है उस ज्ञान की दूसरों में चर्चा करे तथा समालोचना के बाद यह निष्कर्ष निकाल सके कि उसके ज्ञान में किस प्रकार परिवर्तन हो रहा है। अध्यापक या पथ-प्रर्दशक को इस प्रक्रिया में आश्वस्त होना चाहिए कि वह छात्र के पूर्व-ज्ञान का ठीक से आकलन करने में समर्थ है, उनकी क्रियाओं को ठीक से दिशा प्रदान कर सकता है जिन पर चलकर वह ज्ञान के नवीन रूप को निर्मित करने में छात्रों को समर्थ बना सकता है। रचनात्मक शिक्षण अपने छात्रों को इस दृष्टि से अनवरत रूप से उत्साहित करता रहता है कि उनकी क्रियाएँ नये ज्ञान सृजन में सहायक सिद्ध हो रही हैं अथवा नहीं। इस प्रकार शिक्षक अपने छात्र को दक्ष अधिगमकर्त्ता बनाने के सभी प्रयास करता है ताकि वह ज्ञान सृजन में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सके।

सामाजिक रचनावाद

बुद्धि की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह पर्यावरण से अनुकूलित होने में व्यक्ति की सहायता करती है। व्यक्ति का सांस्कृतिक पर्यावरण बुद्धि के विकसित होने में एक संदर्भ प्रदान करता है। एक रूसी मनोवैज्ञानिक वाइगोत्सकी ने कहा कि सांस्कृतिक एक ऐसा सामाजिक संदर्भ प्रदान करती है जिसमें व्यक्ति रहता है, विकसित होता है और अपने आस-पास के जगत को समझता है। उदाहरण के लिए तकनीकी रूप से कम विकसित समाज में सामाजिक अंतर्वैयक्तिक संबंधों को बनाने वाले सामाजिक तथा सांवेगिक कौशलों को अधिक महत्त्व प्रदान किया जाता है जबकि तकनीकी रूप से विकसित समाज में तर्क तथा निर्णय लेने की योग्यताओं पर आधारित निजी उपलब्धियों को बुद्धि समझा जाता है।

हम जानते हैं कि संस्कृति रीति-रिवाजों, विश्वासों, अभिवृत्तियों तथा कला साहित्य में उपलब्धियों की एक सामूहिक व्यवस्था को कहते हैं। इन सांस्कृतिक प्राचालों के अनुरूप ही किसी व्यक्ति की बुद्धि के ढलने की संभावना होती है। अनेक सिद्धांतकार बुद्धि को व्यक्ति की विशेषता समझते हैं और व्यक्ति की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की उपेक्षा कर देते हैं।

परन्तु अब बुद्धि के सिद्धान्तों में संस्कृति की अनन्य विशेषताओं को भी स्थान मिलने लगा है। स्टेनबर्ग के सांदर्भिक अथवा व्यवहारिक बुद्धि का अर्थ यह है कि बुद्धि संस्कृतिक का उत्पाद होती है। वाइगॉस्ट्स्की का भी विश्वास था कि व्यक्ति की तरह संस्कृति का भी अपना एक जीवन होता है, संस्कृति का भी विकास होता है और उसमें परिवर्तन होता है। इस प्रक्रिया में संस्कृति ही यह निर्धारित करती है कि अंततः किसी व्यक्ति की बौद्धिक विकास किस प्रकार का होगा। वाइगॉट्स्की के अनुसार, कुछ प्रारंभिक मानसिक प्रक्रियाएँ (जैसे-रोना, माता की आवाज की ओर ध्यान देना, सूँघना, चलना, दौड़ना आदि) सर्वव्यापी होती हैं, परन्तु उच्च मानसिक प्रक्रियाएँ, जैसे- समस्या का समाधान करने तथा चिंतन करने आदि की शैलियाँ मुख्यतः संस्कृति का प्रतिफल होती हैं।

तकनीकी रूप से विकसित समाज बच्चों में विशेष प्रकार के व्यवहार के विकास को बढ़ावा देते हैं जिसे आप तकनीकी-बुद्धि कह सकते हैं। ऐसे समाजों में व्यक्ति अवधान देने, प्रेक्षण करने विश्लेषण करने, अच्छा निष्पादन करने, तेज काम करने तथा उपलब्धि की ओर उन्मुख रहने आदि कौशलों में दक्ष होते हैं। पश्चिमी संस्कृतियों में निर्मित किए गए बुद्धि परीक्षणों में विशुद्ध रूप से व्यक्ति के इन्हीं कौशलों की परीक्षा की जाती है।

गैर-पश्चिमी संस्कृतियों में व्यक्ति की अपनी संज्ञानात्मक सक्षमता के साथ-साथ उसमें समाज के दूसरे व्यक्तियों के साथ सामाजिक संबंध बनाने के कौशलों को भी बुद्धि का लक्षण माना जाता है कुछ गैर-पश्चिमी समाजों में समाज – केंद्रित तथा सामूहिक उन्मुखता पर बल दिया जाता है जबकि पश्चिमी समाजों के सांस्कृतिक प्रभावों के कारण अब यह भिन्नता धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। तकनीकी बुद्धि के संप्रत्यय के विपरीत भारतीय परंपरा में बुद्धि को जिस प्रकार समझा गया है उसे समाकलित बुद्धि कहा जा सकता है जिसमें समाज तथा सम्पूर्ण वैश्विक पर्यावरण से व्यक्ति के संबंधों को अधिक महत्त्व प्रदान किया गया है।

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