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रचनावाद क्या है? | कक्षा-कक्ष में रचनावाद का प्रारूप

रचनावाद क्या है
रचनावाद क्या है

रचनावाद क्या है? (What is Constructivism?)

रचनावाद मूलतः एक सिद्धान्त अथवा प्रतिमान है जो निरीक्षण एवं वैज्ञानिक अध्ययन पर आधारित होता है। यह हमें बताता है कि व्यक्ति सीखता कैसे है ? यह बताता है कि व्यक्ति इस संसार के बारे में अपनी समझ एवं ज्ञान को अनेक वस्तुओं का अनुभव करके तथा उन्हें अपने जीवन में उतारकर विकसित करता है। जब हम किसी नई वस्तु से जुड़ते हैं तो हम इसे अपने पूर्व विचारों एवं अनुभवों से मिलान करके देखते हैं । यह हो सकता है कि जिन बातों पर हम पहले विश्वास करते थे वे बदल जायें और यह भी हो सकता है कि नवीन जानकारी को निरर्थक समझते हुए हम इसका त्याग कर दें । इन दोनों ही स्थितियों में हम अपने ज्ञान के स्वयं ही सक्रिय रचयिता हैं । इस सन्दर्भ में यह जानने के लिये कि हम कितना जानते हैं, हमें प्रश्न पूछने होंगे, प्रश्नों की खोज करनी होगी तथा स्वयं का मूल्यांकन करना होगा। जब तक अधिगमनकर्त्ता इस सन्दर्भ में सक्रिय नहीं होता कि उसे क्या जानना है तथा कैसे जानना है तब किसी भी प्रकार के ज्ञान या समझ का प्राप्त सम्भव नहीं है।

अधिगम से सम्बन्धित पहलुओं पर विभिन्न विचारधाराएँ देखने को मिलती है, जैसे-अधिगम कैसे होता है? इसे विकसित करने के उत्तम तरीके कौन-कौन से हैं? तथा इससे सम्बन्धित अन्य शंकाएँ, लेकिन यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि अधिगम स्वयं परिलक्षित नहीं होता है-ललित कुमार 2001) विगत कई वर्षों से शोधकर्त्ता का ध्यान इस ओर केन्द्रित हुआ है कि वे कौन सी तरीके हैं जो कक्षा-कक्ष में अधिगम को बढ़ावा दे सकते हैं । ये नये तरीके समान्यतः शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में अधिगमकर्त्ता की बढ़ती सहभागिता पर आधारित हैं गिफिन तथा अन्य ने अपने शोधों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि जिन छात्रों को सक्रिय सहभागिता अनुदेशनात्मक तरीकों से पढ़ाया गया उनमें उच्च स्तरीय चिन्तन कौशलों का विकास अधिक हुआ। सक्रिय सहभागिता अध्यापक के स्वयं के चेतन प्रयासों का परिणाम है जिसकी वजह से छात्र कक्षा-कक्ष में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। किनेल तथा रोबर्ट ने देखा कि इस प्रकार की सहभागिता गणित में उपलब्धि बढ़ाने में प्रभावी सिद्ध हुई।

रचनावाद एक विचार है जो यह विश्वास करता है कि छात्र कक्षा-कक्ष में खाली दिमाग लेकर प्रवेश नहीं करता बल्कि अनेक संरचित विचारों के साथ यह जानने की उत्सुकता लिये प्रवेश करता है कि यह प्राकृतिक संसार किस प्रकार कार्य करता है। पियाजे भी इस बात को महत्त्व देते हैं कि सीखना सक्रिय रूप से भाग लेकर ही सम्भव होता है न कि मात्र निष्क्रिय श्रोता के रूप में बैठकर। अब हम अधिगमकर्त्ता के रूप में किसी अनुभव या परिस्थिति का सामना करते हैं जो हमारे वर्त्तमान सोचने के तरीकों से मेल नहीं खाते तो हमारे मस्तिष्क में एक असंतुलन की स्थिति पैदा हो जाती है। ऐसी स्थिति में संतुलन बनाये रखने की दृष्टि से हमें अपने सोचने के तरीकों में परिवर्तन लाना होता है। ऐसा करने के लिये हमें नये ज्ञान में पुराने ज्ञान को समाहित करना होता है। लेस्टर तथा ओनेर ने कहा कि अधिगमकर्त्ता स्वयं ज्ञान के निर्माता हैं।

भारत में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि शिक्षण को रचनावाद के सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिये । रचनात्मक शिक्षण रचनात्मक सोच को बढ़ावा देती है तथा सक्रिय एवं अभिप्रेरित अधिगमकर्त्ताओं को जन्म देती है। जेमेलमन डेनियल तथा हाइट अनुसार सभी विषयों के अधिगम में नये विचारों की खोज तथा रचना निहित होती है वे कहते हैं कि पाठ्यक्रम में इस रचनात्मक सिद्धान्त को समुचित स्थान दिया जाना चाहिये। रोजेनब्लास्ट कहते हैं कि रचनात्मक कक्षा-कक्ष छात्र केन्द्रित कक्षा-कक्ष होता है। इसी संदर्भ में वॉस ग्लेसरफैल्ड कहते हैं कि अध्यापक को यह स्पष्ट जानकारी होनी चाहिये कि छात्र पहले से कितना ज्ञान एवं समझ रखते हैं ताकि उन्हें नवीन ज्ञान प्रदान करने में संलग्न किया जा सके।

भारतवर्ष में अभी भी परम्परागत शिक्षण विधियों का ही प्रयोग किया जाता है। जैसे – व्याख्यान विधि, पाठ्य-पुस्तक विधि, प्रश्नोत्तर विधि आदि। यहाँ तक कि रचनावाद पर शोधकार्य भी अभी कम ही हुए हैं। संक्षेप में, रचनावाद सीखने की एक विचारधारा है जो इस मान्यता पर टिकी है कि ज्ञान कोई वस्तु नहीं है जो शिक्षक कक्षा के दरवाजे पर पहुँचकर अपनी सीटों पर बैठे छात्रों को आसानी से दे दे। टोमी फुस्नोट ने रचनावाद के सम्बन्ध में चार सिद्धान्त बताये हैं-

1. जो हम पहले से जानते हैं अधिगम उस पर निर्भर करता है।

2. नये विचारों का उदय अपने पुराने विचारों में बदलाव एवं समाहित करने पर होता है।

3.अधिगम विचारों की खोज है न कि मात्र यान्त्रिक तरीके से विचारों का संग्रह।

4. सार्थक अधिगम पुराने विचारों पर पुनः सोचने तथा विचारों के बारे में नवीन निष्कर्ष निकालने से होता है जो हमारे प्राचीन विचारों से मेल नहीं खाते।

ड्राइवर, असोको तथा अन्य के अनुसार, “रचनावाद अधिगम को एक गत्यात्मक एवं सामाजिक प्रक्रिया के रूप में देखता है जिसमें अधिगमकर्त्ता अपनी पूर्व समझ एवं सामाजिक परिवेश के सन्दर्भ में अपने अनुभवों को नया अर्थ प्रदान करता है।”

रचनावाद के सप्रत्यय को जन्म देने वाले सिद्धान्तवादियों में जो नाम प्रमुख है, वे हैं-जॉन डयूवी, मान्टेसरी, पियाजे, वाइगोत्सकी आदि।

कक्षा-कक्ष में रचनावाद का प्रारूप

रचनावाद में इस बात पर बल दिया जाता है कि शिक्षण अध्यापक केन्द्रित न होकर छात्र केन्द्रित हो। कक्षा-कक्ष में अध्यापक की भूमिका ज्ञान के प्रेषक संचारी के स्थान पर ज्ञान को बढ़ाने वाला, अन्वेषक, प्रबन्धक, ज्ञान की खोजबीन करने वाला, मार्ग निर्देशक के रूप में बदल जाती है। साथ ही छात्र की भूमिका मात्र ज्ञान के संयुक्त के स्थान पर ज्ञान निर्माता की हो जाती है। नवीन ज्ञान के निर्माण की प्रक्रिया के दौरान जो पूर्व अनुभवों पर आधारित होती है, छात्र प्रयोग करते हैं तथा दूसरे से अपने परिणामों एवं निष्कर्षों की तुलना करते हैं। रचनात्मकता छात्रों को पूर्ण अकादमिक स्वतंत्रता प्रदान करती है, सहयोगी अधिगम को प्रोत्साहित करती है तथा अपने संगी-साथियों के विचारों एवं आदर्शों में भाग लेने को उत्साहित करती है। रचनात्मक कक्षा-कक्ष की यह एक मुख्य विचारधारा है कि अधिगमन वातावरण का पूर्णरूप से विकेन्द्रीकरण स्वरूप कर दिया जाये जहाँ प्रत्येक व्यक्ति ज्ञान निर्माण एवं ज्ञान संग्रहण की प्रक्रिया में बढ़ चढ़कर भाग ले सकें।

कक्षा-कक्ष में रचनावाद का प्रारूप

कक्षा-कक्ष में रचनावाद का प्रारूप

कक्षा-कक्ष में इस प्रकार की परिस्थितियों का निर्माण किया जाये जिनमें छात्र अथवा अधिगमकर्त्ता सक्रिय रूप से भाग ले सके अथवा उन तथ्यों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सके जो उसे प्रदान किये जाते हैं। लेकिन इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में अध्यापक को अथवा ज्ञान बढ़ाने वाले को एक महति भूमिका निभानी पड़ती है। इस सम्बन्ध में उसे छात्रों को उन सहयोगी विधियों के प्रयोग को अपनाने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये जो नये ज्ञान के निर्माण में तथा उन पर अमल करने के उद्देश्य से उन्हें इस बात का आभास करा सकें कि वे क्या कर रहे हैं तथा उनकी समझ (सोच) किस प्रकार परिवर्तित हो रही है। इस प्रकार की सहयोगी प्रविधियों में प्रयोग वास्तविक जीवन से सम्बन्धित समस्या-समाधान, मस्तिष्क उद्देलन, वाद-विवाद आदि को सम्मिलित किया जा सकता है। इस प्रक्रिया में अध्यापक अथवा ज्ञान को बढ़ाने वाला इस बारे में स्वयं को आश्वस्त करता है कि उसे छात्र के पूर्व संप्रत्ययों की ठीक में समझ है जिनके आधार पर वह उन्हें ठीक से दिशा निर्देश दे पायेगा तथा उन्हें उनके कार्य में सफलता प्रदान करेगा। रचनावादी अध्यापक अपने छात्रों को अनवरत रूप से यह देखने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं कि नवीन ज्ञान प्राप्त करने में उनकी सक्रियता किस प्रकार सहायक सिद्ध हो रही है। स्वयं के बारे में तथा अपनी प्रविधियों के बारे में आकलन करते हुए छात्र रचनात्मक कक्षा-कक्षों में आदर्श रूप में ‘दक्ष अधिगमकर्त्ता’ बन जाते हैं। ऐसा अधिगमकर्त्ताओं को प्रभावी अधिगमन के लिये सशक्त उपकरणों से परिपूर्ण कर देता है। एक सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित कक्षा-कक्ष छात्रों को यह समझाने में सफल होता है कि ठीक से कैसे सीखा जाये। ‘Hoos to Learn Better’

निम्नांकित चित्र यह समझाने में सहायक सिद्ध होगा कि छात्र अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर किस प्रकार तथ्यों एवं समझ को विकसित करते हैं।

Hoos to Learn Better

जब वे अपने अनुभवों पर अनवरत रूप से विचार करते हैं तो उनके विचारों को बल प्रदान होता है तथा उनमें जटिलता आती है तथा वे नवीन ज्ञान को स्वीकृत करने में अपेक्षित सशक्त योग्यताओं का विकास करते हैं। इस सम्बन्ध में शिक्षक का मुख्य कार्य इस प्रकार के अधिगमन को प्रोत्साहित करने तथा उसे व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करने का होता है। इसे एक उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है—

उदाहरण : मान लीजिए, विज्ञान की हाईस्कूल की कक्षा में छात्रों का एक समूह विज्ञान की किसी समस्या पर विचार-विमर्श कर रहे हैं। यद्यपि, अध्यापक उनकी इस समस्या का हल अच्छे से जानता है, फिर भी वह अपना ध्यान इस बात पर केन्द्रित रखता है कि वह छात्रों के आपस में पूछे गये प्रश्नों को लाभदायक तरीके से छात्रों की मदद में प्रयोग कर सके। वह प्रत्येक छात्र को इस बात के लिये प्रोत्साहित करता है कि वह अपने वर्तमान ज्ञान की परख समस्या के आलोक में करे तथा विचार-विमर्श में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले । इस सम्बन्ध में छात्र अनेक स्रोतों से सहायता ले सकता है जैसे-पुस्तकें, वेबसाइट्स, वाद-विवाद फोटो इत्यादि ताकि समस्या के सन्दर्भ में कुछ विचार प्राप्त किये जा सकें। इस प्रक्रिया के दौरान जब कोई छात्र सही या सटीक सप्रत्यय की जानकारी देता है तो शिक्षक उसे तुरन्त झपट लेता है तथा समूह को बताता है कि यह समस्या के हल तक पहुँचने का सही रास्ता हो सकता है। फिर वे अपने विचारों को सही रूप प्रदान करने के लिये उपयुक्त प्रारूप तैयार कर प्रयोग करते हैं। इसके बाद, अध्यापक व छात्र विचार करते हैं कि उसने क्या सीखा है तथा उनके प्रेक्षणों तथा प्रयोगों ने सम्बन्धित प्रत्यय को समझने में उनकी ठीक से मदद की है अथवा नहीं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि रचनावाद का प्रतिमान ज्ञान की प्राप्ति में अध्यापकों एवं अधिगमकर्त्ताओं के पारस्परिक सहयोग पर विशेष बल देता है।

वस्तुतः रचनावाद छात्र को ‘पहिये की पुनः खोज’ के लिये किया जाता है। रचनावाद छात्र की आन्तरिक जिज्ञासा को उजागर करता तथा इस बात पर चोट करता है कि वह इस संसार को ठीक से समझे कि वह किस प्रकार कार्य करता है। छात्र पहिये की पुनः खोज नहीं करता बल्कि वह यह समझने का प्रयास करता है कि यह कैसे चलता है तथा किस प्रकार कार्य करता है । फिर वे अपने वर्तमान ज्ञान व वास्तविक दुनिया के अनुभवों का प्रयोग परिकल्पनाओं के निर्माण, सिद्धान्तों के परीक्षण, एवं अन्ततः अपने परिणामों के आधार पर निष्कर्ष निकालने में करते हैं। यह देखने का सबसे उत्तम तरीका कि रचनावाद कक्षा-कक्ष में क्या अर्थ रखता है, यह है कि आप दूसरों को कार्य करते देखें, दूसरों के साथ बातचीत करें तथा स्वयं पर ही बहुत सी बातों को अपनायें। संक्षेप में कक्षा-कक्ष के अन्तर्गत रचनावाद के तीन मुख्य कार्य है-

  • छात्रों को स्वयं अपने प्रश्नों की रचना करने के लिये प्रोत्साहित करना।
  • विविध प्रकार की बौद्धिक क्षमता का प्रयोग।
  • सामूहिक कार्य को प्रोत्साहन।

रचनात्मक कक्षा-कक्ष में अधिगम का स्वरूप निम्नवत् होता है-

1. रचनात्मक- छात्र मात्र कोरी स्लेट नहीं है जिस पर ज्ञान को उकेरा जा सके। वे अधिगम परिस्थितियों का सामना उनमें पहले से ही उपस्थित ज्ञान, समझ एवं विचारों के आधार पर करते हैं। यह पूर्व ज्ञान एक प्रकार से नये ज्ञान के सृजन में मूल सामग्री का काम करता है।

2. सक्रिय- छात्र वह व्यक्ति है जो नये ज्ञान की खोज स्वयं के लिये ही करता है। अध्यापक का कार्य मात्र उसका दिशा निर्देश करना होता है अथवा उनके विचारों में संशोधन तथा सुझाव देना । वह छात्र को प्रयोग करने, प्रश्न पूछने तथा कुछ बेकार निर्जीव चीजों को सक्रिय बनाने के लिये उत्साहित करता है। अधिगम क्रियाओं में छात्र की पूर्णरूप से संलिप्तता अनिवार्य है। अधिगम प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि वह अपने कार्य के बारे में दूसरों से चर्चा करता है तथा विस्तार से प्रकाश डालता है। साथ ही छात्र के लक्ष्य एवं मूल्यांकन साधनों का भी निर्धारण करता है।

3. प्रतिबिम्बित्- छात्र अपनी अधिगम प्रक्रिया को स्वयं नियंत्रित करते हैं तथा वे अपना रास्ता स्वयं के अनुभवों के आधार पर तय करते हैं। यह प्रक्रिया उन्हें स्व-अधिगम में दक्ष बनाती है । इस सन्दर्भ में अध्यापक उनकी सहायता सही परिस्थितियों का निर्माण करके करता है जहाँ वे खुलकर विचार-विमर्श कर सकें-अकेले में या समूह में। साथ ही, अध्यापक को उन क्रियाओं का भी आयोजन करना चाहिये जिनमें छात्रों के पूर्व ज्ञान एवं अनुभवों की अभिव्यक्ति हो सके । वस्तुतः यह भी एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि क्या सीखा गया तथा किस प्रकार सीखा गया।

4. सहयोगी- रचनात्मक कक्षा-कक्ष छात्रों के मध्य आपसी सहयोग पर अत्यधिक निर्भर करता है। इसके अनेक कारण हैं कि सहयोग अधिगम में क्यों योगदान देता है। रचनावाद में इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि अधिगम स्वयं से ही नहीं सीखते बल्कि वह अपने संगी-साथियों से भी बहुत कुछ सीखते हैं। जब छात्र अधिगम प्रक्रिया के अन्तर्गत साथ-साथ विचार विमर्श करते हैं तब वह एक दूसरे से अनेक प्रकार की प्रविधियों एवं विधियों को अपनाने में समर्थ होते हैं।

5. खोज-आधारित- रचनात्मक कक्षा-कक्ष में सबसे मुख्य क्रिया समस्या समाधान है। छात्र खोज-विधि का प्रयोग प्रश्न पूछने तथा प्रकरण निकालने में करते हैं तथा उनके उत्तर एवं हल खोजने में अनेक साधनों का प्रयोग करते हैं। जैसे-जैसे प्रकरण का विकास करता है वह किसी निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास करता है। प्रकरण के विकास के साथ-साथ निष्कर्षों की पुष्टि में भी मदद मिलती है। साथ ही, प्रश्नों को जन्म देती चली जाती है।

6. विकसित करना- छात्र विचार रखते हैं जिन्हें वे बाद में महसूस कर सकते हैं कि वे विचार वैध नहीं है, सही नहीं है, अपर्याप्त है जिनके आधार पर नवीन ज्ञान की व्याख्या नहीं की जा सकती ये विचार ज्ञान के एकीकरण हेतु अस्थायी सोपान माने जा सकते हैं। रचनात्मक शिक्षण छात्र के वर्तमान संप्रत्ययों को आधार बनाकर ही आगे की रणनीति तैयार करती है। जब कोई छात्र नई जानकारी प्राप्त करता है तो रचनात्मक मॉडल के अनुसार वह इस ज्ञान की तुलना अपने पूर्व ज्ञान से करता है और इस सम्बन्ध में तीन बातें सामने आ सकती हैं-

  • नवीन ज्ञान पुराने ज्ञान से अच्छी तरह मेल खा जाता है। इसलिये छात्र इसे अपने ज्ञान में सम्मिलित कर लेते हैं।
  • नवीन ज्ञान पुराने ज्ञान से मेल नहीं खाता। अतः छात्र को अपने पूर्व ज्ञान में परिवर्तन करना होता है ताकि इसे नवीन ज्ञान से जोड़ा जा सके।
  • नवीन ज्ञान पूर्व ज्ञान से मेल नहीं खाता। इसलिये इसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता।

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