कर्ट लेविन का क्षेत्र सिद्धान्त (Field theory of Cart Levien)
इस सिद्धान्त के प्रतिपादक कर्ट लेविन हैं। कोहलर और कोफका के साथ कार्य करने के पश्चात् लेविन जर्मनी छोड़कर अमेरिका चले गये। उनका सिद्धान्त सीखने के ज्ञानात्मक सिद्धान्तों के अन्तर्गत आता है। कर्ट लेविन के क्षेत्रीय सिद्धान्त का विकास सीखने के सिद्धान्त के रूप में नहीं हुआ है बल्कि उसने अपने सिद्धान्त के माध्यम से मनोविज्ञान की एक प्रणाली प्रस्तुत की है। जिसे क्षेत्रीय मनोविज्ञान, तलरूप या सदिश मनोविज्ञान कहते हैं। वस्तुतः क्षेत्र सिद्धान्तों का प्रतिपादन साहचर्य सिद्धानों की प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप हुआ है।
लेविन का क्षेत्रीय सिद्धान्त पूर्णाकार (गेस्टाल्ट) सिद्धान्त के ही समान है। परन्तु यह थोड़ा-सा भिन्न है क्योंकि यह अनुभव के स्थान पर व्यवहार को अधिक महत्त्व देता है तथा मानवीय अभिप्रेरण पर भी बल देता है। कर्ट लेविन ने अपने मत का आधार वातावरण में व्यक्ति की स्थिति को बताया। लेविन ने जीवन-स्थल के आधार पर व्यक्ति के अनुभवों की व्याख्या की है। उसके अनुसार जीवन-स्थल वह वातावरण है जिसमें व्यक्ति रहता है और उससे प्रभावित होता है। किसी व्यक्ति का यह जीवन-स्थल मनोवैज्ञानिक शक्तियों पर निर्भर करता है। लेविन के अनुसार सीखना कोई अनोखी क्रिया नहीं है। उसने बताया कि सीखने की क्रिया को समझने के लिये हमें केवल यह समझना होता है कि जीवन-स्थल का नव संगठन किस प्रकार होता है तथा मनोवैज्ञानिक संसार की संरचना किस प्रकार होती है। अतः सीखना हमारे अनुभवों या जीवन-स्थल की संरचना में परिवर्तन लाने से होता है। लेविन ने आगे बताया कि वास्तव में, सीखना वातावरण का संगठन है।
कर्ट लेविन ने अपने मत का आधार वातावरण में व्यक्ति की स्थिति को बताया । उसके अनुसार “व्यक्ति के व्यवहार को समझने के लिये व्यक्ति की स्थिति को उद्देश्यों से सम्बन्धित मानचित्र में निर्धारित करने एवं प्रयत्नों की जानकारी आवश्यक है ।”
सिद्धान्त की व्याख्या— यह सिद्धान्त मनुष्य तथा उसके सीखने की प्रक्रिया को निरपेक्ष या यान्त्रिक नहीं मानता वरन् सापेक्षिक अर्थात एक दूसरे से सम्बन्धित मानता है । यह सिद्धान्त अनुभव के स्थान पर व्यवहार को अधिक महत्त्व देता है तथा प्रेरणाओं आदि का अधिक प्रयोग करता है। लेविन ने अपने सिद्धान्त की व्याख्या करने में गणित के पारिभाषिक शब्दों, जैसे—क्षेत्रफल, जीवन विस्तार, तलरूप, शक्ति, वेक्टर आदि का प्रयोग किया है । सीखने की व्याख्या भी लेविन ने व्यक्ति, वातावरण, बाधायें, बाधाओं पर विजय तथा उद्देश्य की प्राप्ति की व्याख्या करके की है। लेविन के मतानुसार सीखने की प्रक्रिया में कोई विचित्र बात नहीं है। अधिगम या सीखने को स्पष्ट रूप से समझने के लिए इतना ही समझना पर्याप्त होगा कि जीवन विस्तार किस प्रकार पुनः व्यवस्थित होता है और किस प्रकार मनोवैज्ञानिक संसार की संरचना होती है।
लेविन के सिद्धान्त में भर्त्सना, लक्ष्य तथा अवरोधक प्रमुख तत्त्व हैं। किसी व्यक्ति को लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अवरोधक को पार करना आवश्यक है। यह अवरोधक मनोवैज्ञानिक अथवा भौतिक हो सकता है। ऊपर संकेत दिया जा चुका है लेविन के सिद्धान्त का विकास सीखने के सिद्धान्त के रूप में नहीं हुआ । इसका विकास अभिप्रेरणा और प्रत्यक्षीकरण के सिद्धान्त के रूप में हुआ है। इसलिये लेविन सीखने की क्रिया में प्रेरणा तथा प्रत्यक्षीकरण पर बल देते हैं। प्रत्यक्षीकरण का अर्थ है कि कोई व्यक्ति किसी परिस्थिति को किस प्रकार देखता है। व्यक्ति किसी लक्ष्य या उद्देश्य से प्रेरित होता है। लक्ष्य प्रायः धनात्मक और ऋणात्मक शक्तियों से परिपूर्ण होते हैं।
व्यक्ति धनात्मक शक्ति से प्रेरित होकर लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है और ऋणात्मक शक्ति उसे सीखने के लिए प्रेरित करती है। व्यक्ति को लक्ष्य तक पहुँचने के मार्ग में अनेक अवरोधक मिलते हैं जिससे वह सरलता से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर पाता। इसलिये लक्ष्य तक पहुँचने के लिये इन अवरोधकों को दूर करना आवश्यक हो जाता है। इस प्रकार जीवन-स्थल की संरचना या व्यवस्था बदल जाती है। अतः इस सिद्धान्त के अनुसार कहा जा सकता है कि सीखना जीवन-स्थल का पुनर्संगठन है। जीवन-स्थल में व्यक्ति और लक्ष्य के बीच के अवरोधकों को दूर करने के लिये व्यक्ति में अन्तर्दृष्टि या सूझ का विकास होता है। इस प्रकार यह सीखने का लक्ष्य सूझ सिद्धान्त भी कहा जाता है निम्न चित्र से यह बात अधिक स्पष्ट हो जायेगी।
चित्र में व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करता है परन्तु उसके मार्ग में एक यू आकार की बाधा उपस्थित है। वह इस बाधा के कारण अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असमर्थ है। इसी बीच मानव की अन्तर्दृष्टि उसके जीवन-विस्तार में परिवर्तन लाती है तथा उसके व्यवहार में परिवर्तन करके वातावरण में एक संगठन उत्पन्न करती है तथा अब वह इस समस्या का समाधान करने के लिये यू (U) के खुले सिरे से ‘चक्कर का मार्ग’ बनाता है और अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। इस प्रकार लेविन व उसके समर्थकों का कहना है कि सीखने में कोई नवीन अथवा विभिन्न समस्या नहीं है। यह तो जीवन विस्तार की पुनः संरचना मात्र का विषय है। यदि हम संरचना के मुख्य नियम अथवा जीवन – विस्तार के प्रबन्ध को हल करा सकते हैं तो हम मनोविज्ञान की सभी महत्त्वपूर्ण समस्याओं को समझ सकेंगे तथा उनके आधार पर अधिगम को भी समझ सकेंगे।
क्षेत्र सिद्धान्त के प्रमुख आधार
कर्ट लेविन के क्षेत्र सिद्धान्त के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रत्यय इस प्रकार है—
1. क्षेत्र- लेविन के अनुसार क्षेत्र का तात्पर्य मानव के उस सम्पूर्ण मनोवैज्ञानिक जगत से है जिसमें वह रहता है तथा किसी समय विशेष में भ्रमण करता है। इस प्रकार के मनोवैज्ञानिक संसार में व्यक्ति स्वयं, उसके विचार, तथ्य, धारणायें, कल्पनायें, विश्वास एवं आशायें सब कुछ आ जाती हैं। यह क्षेत्र प्रत्येक व्यक्ति के लिये अलग होता है, जैसे एक नक्षत्र वेत्ता क्षेत्र का प्रयोग तारों के लिए करता है, भौतिकशास्त्री परमाणु संरचना के अध्ययन के लिये आदि।
2. जीवन-विस्तार- जीवन-विस्तार का आशय उस वातावरण से है जिसमें मनुष्य और उस वातावरण का प्रभाव व्यक्ति पर निरन्तर पड़ता है। वातावरण से तात्पर्य प्राकृतिक, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक वातावरण है जिसमें व्यक्ति लगातार संघर्ष करता रहता है और उससे प्रभावित होता रहता है। मानव की अपनी कुछ आवश्यकतायें होती हैं, कुछ योजनायें होती हैं, कुछ सीमायें होती हैं और इन सबके चारों ओर उसका वातावरण होता है तथा यह वातावरण जीवन-विस्तार की सीमा से घिरा होता है। लेकिन जीवन-विस्तार की संरचना के लिये इन सभी को बराबर महत्त्व देते हैं।
3. व्यक्ति- लेविन के अनुसार व्यक्ति या मानव को उसकी योग्यताओं के सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है व्यक्ति का आशय मस्तिष्क या शरीर या दोनों से ही नहीं है (सीमित) ।
यह संकेत करता है ‘मैं’ ‘मेरा’ ‘मुझे’ आदि । प्रत्येक व्यक्ति की अपनी कुछ आवश्यकताएँ होती हैं जो उसके व्यवहार की दिशा निर्धारित करती हैं तथा यह दिशा व्यक्ति को लक्ष्य की ओर मोड़ देती है जो व्यक्ति में तनाव भर देती है। व्यक्ति जब तक अवरोधों को पार करके लक्ष्य तक नहीं पहुँच जाता, तब तक वह बराबर प्रयत्नशील बना रहता है ।
4. विदेशी माल- विदेशी माल को बाह्य आवरण भी कहते हैं। यह आवरण शक्ति के मनोवैज्ञानिक वातावरण के बाहर चारों ओर रहता है। यह प्राणी से सम्बन्धित वातावरण के उन पक्षों से निर्मित होता है जिसका प्रत्यक्षीकरण व्यक्ति स्वयं नहीं कर पाता किन्तु उस व्यक्ति का अध्ययन करने वाले लोग उसका प्रत्यक्षीकरण कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, समस्त अमनोवैज्ञानिक तथ्यों का वह मिश्रण जो जीवन विस्तार के चारों ओर घिरा रहता है, विदेशी माल कहलाता है। इसके अन्तर्गत मनुष्य के शारीरिक तथा सामाजिक वातावरण के वे भाग आते हैं जो समय विशेष में व्यक्ति के जीवन-विस्तार के अंग नहीं होते लेकिन कभी भी अंग हो सकते हैं। यह व्यक्ति की व्यावहारिक सम्भावनाओं को सीमित करता है।
5. तलरूप- क्षेत्र सिद्धान्त को तलरूप सिद्धान्त भी कहते हैं। तलरूप का यह प्रत्यय रेखागणित से लिया गया है। कर्ट लेविन ने गणित के आधार पर मानव व्यवहार को समझाने का प्रयास किया है। तलरूप में दूरी, आकार व आकृति का कोई महत्त्व नहीं होता अर्थात् इसका लम्बाई, चौड़ाई तथा मोटाई से कोई सम्बन्ध नहीं होता है बल्कि इसमें अन्दर बाहर तथा सीमा के प्रत्ययों की विवेचना की जाती है। तलरूप रेखागणित की दृष्टि से वृत्त, दीर्घवृत्त, सम या विषम बहुभुजों में कोई अन्तर नहीं होता है। पानी की एक बूँद तथा पृथ्वी दोनों ही तलरूप की दृष्टि से एक समान समझे जाते हैं। तलरूप उद्देश्य तथा उनकी प्राप्ति के मध्य बाधाओं के संदर्भ में व्यक्ति की स्थिति को स्पष्ट करता है।
6. सदिश – सदिश को वेक्टर भी कहते हैं। वस्तुतः वेक्टर का प्रत्यय भौतिक शास्त्र से लिया गया है। मनोविज्ञान में सदिश एक बल का प्रतिनिधित्व करता है जो व्यक्ति के व्यवहार को लक्ष्य की ओर अथवा लक्ष्य से दूर जाने की ओर संकेत करता है। सदिश में एक विशेष दिशा में जाने की प्रवृत्ति होती है तथा यह शक्ति एवं दिशा दोनों को अभिव्यक्त करता है। शक्ति एवं दिशा मिलकर प्रेरक को शक्ति प्रदान करती हैं। इस प्रकार सदिश में तीन बातें निहित होती हैं- दिशा, शक्ति तथा प्रयोग बिन्दु । सदिश यह भी अभिव्यक्त करता है कि किस परिस्थिति में क्या होने वाला है अथवा क्या हो रहा हैं। साथ ही, यह जीवन-विस्तार के विभिन्न प्रदेशों की कर्षण शक्तियों को भी व्यक्त करता है।
7. कर्षण शक्ति- कर्षण शक्ति को वेलेन्सी भी कहते हैं। जीवन-विस्तार के किसी क्षेत्र या प्रदेश में दो प्रकार की शक्तियाँ होती हैं जिन्हें आकर्षण तथा प्रतिकर्षण शक्तियाँ कहते हैं। ये शक्तियाँ सकारात्मक तथा नकारात्मक दो प्रकार की होती हैं। इस शक्तियों में दिशा तथा परिणाम दोनों होते हैं। जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु के प्रति आकर्षित होता है तब हम कहते हैं कि उस वस्तु में आकर्षण शक्ति है और इसके विपरीत, जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु से दूर हटता है तब हम कहते हैं कि उस वस्तु में विकर्षण शक्ति है। कर्षण शक्ति के सम्बन्ध में यही विचार मौरिस एल बिग्गी ने भी व्यक्त किये हैं।
8. अवरोध- अवरोध को बेरियर भी कहते हैं। यह वातावरण का एक गत्यात्मक पहलू है जो व्यक्ति के लक्ष्य या उद्देश्य तक पहुँचने के मार्ग में आ खड़ा होता है तथा उसके आगे बढ़ने की गति को अवरुद्ध कर देता है। संक्षेप में, व्यक्ति को अपने लक्ष्य तक पहुँचने में अनेक समस्याओं एवं अवरोधों का सामना करना पड़ता है। यदि व्यक्ति को इन अवरोधों को दूर करने हेतु अभिप्रेरण मिलता रहे तो वह अपने लक्ष्य को आसानी से प्राप्त कर लेता है। इसके विपरीत स्थिति में वह या तो अपना लक्ष्य ही बदल लेता है अथवा हताश, निराश एवं कुण्ठा का शिकार हो जाता है। बार-बार की सफलता से व्यक्ति की आकांक्षा का स्तर ऊपर उठता है तथा बार-बार असफल होने पर आकांक्षा का स्तर नीचे गिरता है।
9. द्वन्द्व – ऐसा समझा जाता है कि व्यक्ति के जीवन क्षेत्र में ऐसे उपक्षेत्र भी होते हैं जिनमें कि एक ही समय में विभिन्न प्रकार के कर्षण सक्रिय होते हैं। विशेषकर उप परिस्थिति में जब आकर्षण और विकर्षण उत्पन्न करने वाली दोनों शक्तियाँ समान हों। ऐसी स्थिति में द्वन्द्व का उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है। लेविन ने द्वन्द्व तीन प्रकार के बताये हैं-पहला, वह द्वन्द्व जिसमें दोनों शक्तियाँ सकारात्मक हों। जैसे—किसी व्यक्ति को बैंक में क्लर्क नियुक्त कर लिया जाये और एल०आई०सी० में भी। दूसरा, वह द्वन्द्व जिसमें दोनों शक्तियाँ नकारात्मक हों। जैसे—आगे कुआँ, पीछे खाई। तीसरा, वह द्वन्द्व जिसमें एक शक्ति सकारात्मक व एक नकारात्मक हो। जैसे—एक छोटी लड़की आइसक्रीम भी खाना चाहती है और उसे इस बात का भी डर है कि कहीं वह मोटी न हो जाये।
सिद्धान्त की आलोचना
इस सिद्धान्त की आलोचना के प्रमुख बिन्दु इस प्रकार हैं-
(1) वास्तव में यह सिद्धान्त मानवीय अभिप्रेरणा के अध्ययन से मुख्यतया सम्बन्धित है। इसी कारण यह सिद्धान्त सीखने के सिद्धान्त की तरह विकसित नहीं हुआ वरन् अभिप्रेरणा एवं प्रत्यक्षीकरण के सिद्धान्त के रूप में सामने आया परन्तु इतना अवश्य है कि लेविन अपने इस सिद्धान्त का उपयोग सीखने की परिस्थितियों में भी करना चाहता है।
(2) इस सिद्धान्त में व्यक्ति को अधिक महत्त्व दिया गया है तथा वह सम्पूर्ण वातावरण के प्रभाव से अपना व्यवहार प्रदर्शित करता है, परन्तु क्या वातावरण ही सबसे अधिक प्रभावशाली है ? व्यक्ति की कुछ आन्तरिक इच्छायें, आवश्यकताएँ भी उसे व्यवहार करने को प्रेरित करती है ।
(3) यह सिद्धान्त अनुभव के स्थान पर व्यवहार को अधिक महत्त्व देता है।
(4) लेविन ने अपने सिद्धान्त की व्याख्या गणित के परिभाषित शब्दों, जैसे—क्षेत्रफल, , जीवन विस्तार, तलरूप, शक्ति, सन्तुलन, वेक्टर आदि के द्वारा की है वास्तव में इन सब शब्दों को समझना बड़ा कठिन है।
- जॉन डीवी के शिक्षा दर्शन तथा जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा व्यवस्था
- जॉन डीवी के शैक्षिक विचारों का शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धतियाँ
- दर्शन और शिक्षा के बीच संबंध
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 [ National Policy of Education (NPE), 1986]
इसे भी पढ़े…
- अराजकतावाद तथा साम्यवाद में समानताएं | अराजकतावाद तथा साम्यवाद में असमानताएं | अराजकतावाद एवं साम्यवाद में अन्तर
- औपनिवेशिक परिप्रेक्ष्य पर प्रकाश डालिए। अथवा उपनिवेशवाद राजनीतिक विचारधारा
- राज्य का वास्तविक आधार इच्छा हैं, बल नहीं | राज्य के आधार इच्छा है, शक्ति नहीं
- आदर्शवाद की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।
- आदर्शवाद क्या है? आदर्शवाद के प्रमुख सिद्धान्त क्या हैं?
- मार्क्सवादी मार्क्यूजे के विचारों पर प्रकाश डालिए।
- हेबर मास के राजनीतिक विचारों पर प्रकाश डालिए।
- राष्ट्रीयता तथा राष्ट्रवाद की परिभाषा | राष्ट्रीयता के मुख्य तत्व
- एक राजनीतिक शक्ति के रूप में राष्ट्रवाद के गुण और दोष
- एक राष्ट्र एक राज्य के सिद्धान्त की सत्यता का विवेचन कीजिए।
- अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धान्त की समीक्षा कीजिए।
- अधिकारों के वैधानिक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
- सिद्धान्त निर्माण में डेविड ईस्टन के विचार
- सिद्धान्त निर्माण पर आर्नाल्ड ब्रेख्त के विचार
- सिद्धान्त निर्माण पर कार्ल डायश के विचार
- सिद्धांत निर्माण की प्रक्रिया
- भारत के संविधान की प्रस्तावना एवं प्रस्तावना की प्रमुख विशेषताएँ
- भारतीय संविधान की विशेषताएँ
- नागरिकता से क्या आशय है? भारत की नागरिकता प्राप्त करने की प्रमुख शर्तें