B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

धर्मनिरपेक्षता से सम्बन्धित शिक्षा के संवैधानिक प्रावधान

धर्मनिरपेक्षता से सम्बन्धित शिक्षा के संवैधानिक प्रावधान
धर्मनिरपेक्षता से सम्बन्धित शिक्षा के संवैधानिक प्रावधान

धर्मनिरपेक्षता से सम्बन्धित शिक्षा के संवैधानिक प्रावधान

उदयोन्मुख भारतीय समाज में धर्मनिरपेक्षता सामाजिक और राजनैतिक जीवन का प्रमुख आधार है। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म का त्याग नहीं है अपितु सभी धर्मों के प्रति सम्मान का भाव रखना है। धर्मनिरपेक्षता का तात्पर्य धर्म का विरोध नहीं है बल्कि अपने-अपने धर्म पर गहरी निष्ठा रखना है। व्यक्ति अपने धर्म पर श्रद्धा रखे, उपासना या पूजा करे । उससे किसी अन्य धर्मावलम्बी को कोई कष्ट न हो, इन बातों का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है। धर्मनिपरपेक्षता शब्द का प्रचलन उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुआ। धर्म के नाम पर किसी प्रकार का विद्वेष न हो। इस विचारधारा ने धर्म की कट्टरता को कम किया । धर्म से निरपेक्ष रहना अधिक श्रेयस्कर है। ईश्वर पर विश्वास रखना या ईश्वर पर विश्वास न रखना इस विचारधारा का मूल मंत्र है। ईश्वर पर आस्था रखना या न रखना अज्ञेयवाद के नाम से जाना गया। इस विचारधारा के लोगों का मत था कि जीवन में सद्व्यवहार का पालन करना चाहिए। सद्व्यवहार का धर्म से कोई अधिकार नहीं है कि वह जनता को शिक्षित करने का भार अपने ऊपर ले लो। पाश्चात्य देशों में शिक्षा का धर्म का वर्चस्व था । कालक्रम से शिक्षा का दायित्व राज्य पर आ गया और पादरियों का काम केवल धार्मिक शिक्षा देना रह गया। सामान्य शिक्षा के ऊपर से उनका आधिपत्य समाप्त हो गया। भारत में भी धर्मनिरपेक्षता को इसी अर्थ में ग्रहण किया है। संविधान के 25 वें परिच्छेद में प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार दिया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी श्रद्धा और आस्था के अनुसार अपने धर्म का पालन करें और अपने ढंग से उपासना करें। डॉ. राधाकृष्णन ने धर्मनिरपेक्षता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है “मैं अधिकारपूर्वक कहना चाहता हूँ कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ नास्तिकवाद नहीं है। इसका अर्थ है कि हम सभी धर्मों और मतों का आदर करें, हमारा राज्य किसी एक धर्म से सम्बन्धित नहीं हैं।” गाँधीजी ने भी कहा था, “मैं अन्य धर्मों का उतना ही आदर करता हूँ जितना अपने धर्म का करता हूँ ।” वास्तव में देखा जाय तो भारत में प्राचीन काल से ही अनेक धर्मों का अस्तित्व रहा है। भारतीय समाज की यह विशेषता रही है कि यहाँ अनेक धर्म फलते-फूलते रहे। उनमें कभी भी कटुता नहीं आई। दुनियाँ के कई देशों में एक राष्ट्र तथा धर्म की स्थापना की गई परन्तु हमारे देश में एक राष्ट्र और अनेक धर्मों की अवधारणा को सुदृढ़ करने का प्रयास किया गया है। इसलिए भारत सरकार ने धर्मनिरपेक्षता को राष्ट्र धर्म माना है। धर्म निरपेक्षता का व्यापक अर्थ है सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान भाव अथवा सर्वधर्मसमभाव । धर्म का संकुचित अर्थ लेने से धर्म के नाम पर कट्टरता आती है तथा आपसी कलह पैदा होता है। कभी-कभी तो दो धर्मावलम्बियों के बीच संघर्ष की स्थिति आ जाती है। कई धर्मावलम्बी एक-दूसरे के प्रति घृणा तथा विद्वेष रखने लगते हैं । यह धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध है। इसलिए भारतीय संविधान के 42वें अनुच्छेद में ” धर्मनिरपेक्ष समाज” (Secular Society) शब्द का प्रयोग किया गया है और इससे ही धर्मनिरपेक्षता (Secularism) का निर्माण हुआ है । हमारी भारतीय राज्य व्यवस्था धर्मनिरपेक्ष है जिसका अर्थ है कि शासन किसी विशेष धर्म का पोषण नहीं करेगा। सरकारी अनुदान लेने वाली शिक्षा संस्थाएँ तथा सरकारी शिक्षा संस्थाएँ धार्मिक शिक्षा नहीं दे सकती। संविधान ने हर व्यक्ति को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की है। धर्म एक वैयक्तिक बात है, राज्य उसमें दखलन्दाजी नहीं करेगा। हर व्यक्ति को इस प्रकार का निर्णय लेना है। शासन किसी विशेष धर्म का पक्ष नहीं लेगा और न धर्म पर आधारित किसी प्रकार का भेदभाव करेगा । शासन की दृष्टि से सभी समान होंगे। इसी दृष्टिकोण को धर्मनिरपेक्षता कहा जाता है। इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता का असली अर्थ सर्वधर्मसमभाव हुआ। भारतीय समाज में सभी धर्मों को समान महत्त्व प्राप्त है। भारत में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध तथा सिख प्रमुख धर्म हैं। सभी धर्मावलम्बियों को उनकी आस्था तथा श्रद्धा के अनुसार उपासना, पूजा तथा धार्मिक क्रियाकलाप करने का अधिकार है। इस प्रकार उदयोन्मुख भारतीय समाज में राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से सभी धर्मों में समानता का भाव होना परमावश्यक है। धर्म साधना में प्रत्यक्ष अनुभव को महत्त्व है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी साधना के द्वारा आध्यात्मिक अनुभूति से उच्च शिखर तक पहुँच सकता है। प्रत्येक धर्म में आत्मानुभूति द्वारा आत्मानुभव को बहुत महत्त्व दिया गया है। धर्म साधना के द्वारा व्यक्ति अपनी आत्मिक विकास कर सकता है और उन्नति के शिखर पर पहुँच सकता है। धर्म के इस तत्त्व को आत्मसात करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है। धर्म व्यक्ति को उदार तथा सहिष्णु बनाता है । परन्तु आज यह देखने में आता है कि धर्म अंधविश्वास, हठधर्मिता, प्रतिगामिता, कट्टरता, शोषण और निहित स्वार्थों की पूर्ति का साधन बन गया है। यह प्रवृत्ति समाज के लिए अकल्याणकारी है। वास्तव में धर्म को एक जीवन पद्धति के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए । धर्म का मार्ग कल्याणकारी है, वह व्यक्ति को परिष्कृत तथा सुसंस्कृत बनाता है। धर्म के तीन तत्त्व हैं- (1) अध्यात्मिक आधार, (2) अनुष्ठानिक, (3) नीति संहिता । प्रत्येक संगठित धर्म के आध्यात्मिक आधार तथा अनुष्ठानिक संस्कार भिन्न-भिन्न होते हैं परन्तु सभी धर्मों में संकीर्णता आ गई और वे धर्मान्धता तथा कट्टरता का पोषण कर रहे हैं। इसलिए सभी विचारक तथा शिक्षा शास्त्री नैतिक शिक्षा देने का समर्थन करते हैं। शिक्षा के माध्यम से नैतिक गुणों का विकास किया जा सकता है। हमारे विद्यालय इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं इसलिए विद्यालयों में किसी विशेष धर्म की शिक्षा न देकर नैतिक शिक्षा देना अनिवार्य है। नैतिक के अभाव में हमारा देश और समाज पतन की ओर जा रहा है। हर क्षेत्र में अवमूल्यन हो रहा है। नैतिक शिक्षा ही हमें पतन और अवमूल्यन से बचा सकती है।

भारत ने अपने को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित कर सभी नागरिकों को दूसरे धर्मों का अनादर किए बिना अपना धर्म पालन करने और उसका प्रचार-प्रसार करने की स्वतंत्रता दी है। हमारा धर्म पालन हमारे सार्वजनिक जीवन को अव्यवस्थित नहीं करना चाहिए और न समाज में अशांति पैदा करनी चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक नागरिक को स्वधर्म पालन करने की पुरी स्वतंत्रता है। किसी भी धर्मावलम्बी के धार्मिक कार्यों में कोई भी व्यक्ति किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर सकता। संक्षेप में किसी भी नागरिक को आगे बढ़ने तथा विकास करने के समान अवसर तथा अधिकार हैं। किसी के विकास में धर्म आड़े नहीं आएगा।

धर्मनिरपेक्ष राज्य के निम्नलिखित लक्षण है

1. राज्य का कोई अपना धर्म नहीं होगा ।

2. राज्य किसी विशेष धर्म के अनुयायी को वरीयता नहीं देगा।

3. राज्य धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं करेगा ।

4. धार्मिक भेदभाव के बिना सभी नागरिक सरकारी सेवा में प्रवेश कर सकेंगे।

भारतीय संविधान के शिल्पकार डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर ने कहा था, “धर्मनिरपेक्ष राज्य का यह अर्थ नहीं है कि हम लोगों को धार्मिक भावनाओं को ध्यान में नहीं रखेंगे। धर्मनिरपेक्ष राज्य का अर्थ केवल यही है कि संसद लोगों पर कोई भी विशेष धर्म थोपने के लिए सक्षम नहीं होगी। संविधान में केवल यही अंकुश स्वीकार किया गया है।” अतः धर्मनिरपेक्ष राज्य में नैतिक शिक्षा से शैक्षिक कार्यक्रमों का अभिन्न अंग होनी चाहिए तथा धार्मिक शिक्षा देना परिवार और धार्मिक संस्थाओं का काम होगा ।

यदि भारत की जनता को अपनी जीवन पद्धति धर्म पर अधिष्ठित करनी है तो शिक्षा का यह कर्त्तव्य है कि वह धर्मनिरपेक्षता के निम्नलिखित पाँच गुणों को आत्मसात करें-

(i) प्रेम की शिक्षा

(ii) सहिष्णुता की शिक्षा

(iii) सत्य की शिक्षा

(iv) शांति की शिक्षा

(v) श्रद्धा की शिक्षा ।

धर्मनिरपेक्षता का एक आवश्यक अंग यह है कि लोगों के मन में सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता और समान आदर का भाव पैदा हो। इसके लिए सार्वजनिक अवसरों पर विभिन्न धर्मों के धर्म ग्रन्थों का एक साथ पाठ कराया जाय। इस उपक्रम से भी धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ किया जा सकता है। उदयोन्मुख भारतीय समाज के लिए धर्मनिरपेक्षता अनिवार्य ही नहीं अपितु आवश्यक है । संविधान के 27वें परिच्छेद में धार्मिक संस्थाएँ जनकल्याण के लिए स्थापित की जा सकती है तथा ये संस्थाएँ चल और अचल सम्पत्ति रख सकती है। किसी से दान प्राप्त कर सकती हैं परन्तु किसी को दान के लिए बाध्य नहीं कर सकती । संविधान के 28वें परिच्छेद के अनुसार धार्मिक संस्थाएँ अपने धर्म के प्रचार के लिए शिक्षा संस्थाएँ भी शुरूआत कर सकती हैं परन्तु उन्हें सरकार की ओर से अनुदान नहीं मिल सकेगा। अनुदान प्राप्त शिक्षा संस्थाएँ विशिष्ट धर्म की पूजा या उपासना विद्यार्थियों के ऊपर जबरदस्ती लाद नहीं सकती। यदि अभिभावक और विद्यार्थियों ने इस प्रकार की कोई शिकायत की तो सरकार ऐसी संस्थाओं पर उचित कार्यवाही कर सकती है और उनका अनुदान बंद कर सकती है।

उदयोन्मुख भारतीय समाज में मानव धर्म की आवश्यकता है। आधुनिक समाज इसी की अपेक्षा करता । नागरिकों को सर्वधर्मसम्भाव का पालन करना चाहिए। नागरिकों का व्यवहार मानवता का पोषण करने वाला होना चाहिए। तात्विक दृष्टि से देखा जाए तो कोई भी धर्म अमानवीयता, द्वेष तथा क्रूरता का समर्थन नहीं करता बल्कि उसके गुणों और जीवन के उच्च मूल्यों को आत्मसात करने की शिक्षा देता है; जैसे सत्य बोलना, बड़ों का आदर करना, दीन-दुखियों की सेवा करना तथा परोपकार आदि । ये मूल्य सर्वधर्म समभाव, प्रेम, स्नेह तथा आत्मीयता से रहने की शिक्षा देते हैं और मानव कल्याण का पोषण करते हैं। 

 जीव-विज्ञान की दृष्टि से सभी मनुष्य समान हैं तथा आध्यात्मिक दृष्टि से सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की सृष्टि है। इसका ज्ञान हर मनुष्य को होना चाहिए। अपने समान ही दूसरों सुख-दुख की भावना है, अपने में जो आत्मचेतना है, वही आत्मचेतना दूसरों में भी है। यदि मनुष्य को इन सब तथ्यों का सच्चा ज्ञान हो जाय तो व्यक्ति विश्व के सभी प्राणियों को समान दृष्टि से देखेगा। उसमें समदृष्टि पैदा होगी। सभी प्राणियों में ईश्वर का दर्शन करना उच्च आध्यात्मिकता है तथा यह आध्यात्मिकता मनुष्य को उदार तथा व्यापक दृष्टि प्रदान करती है। मनुष्य के पास यदि कोई श्रेष्ठतम वस्तु है तो वह उसकी मनुष्यता । मनुष्य अपने प्राणियों से इसलिए श्रेष्ठ । मनुष्य में सात्विक तथा दैवी गुण होते हैं। मनुष्य दूसरों के उपकार के लिए त्याग कर सकता है तथा मानवता के लिए अपना आत्मबलिदान कर सकता है। किसी कवि ने ठीक लिखा है

“वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।”

हम दूसरों से जिस प्रकार के व्यवहार की आशा करते हैं, हमें दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए। अंग्रेजी में कहा गया है— “Do unto others as you would like others to do unto you.” हमें मानव कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए । समाज में प्रेम और शांति का वातावरण सद्व्यवहार से ही निर्मित किया जा सकता है। शिक्षा के माध्यम से इन गुणों को छात्रों में प्रतिबिम्बित किया जाना चाहिए। धर्मनिरपेक्षता के लिए नैतिक विकास बहुत आवश्यक है क्योंकि नैतिकता की नींव मानव कल्याण पर निर्मित है । ध्रुवाचर ने कहा हैं, “नैतिक नियम आचरण के वे प्रतिमान है जिन्हें मनुष्यों ने सदियों के पारस्परिक सम्बन्धों से अत्यन्त आनन्ददायक तथा कल्याणकारी पाया है।” (Morals are simply the conduct patterns which men in association with other men over centuries have found most productive of human happiness and wel fare.) सन् 1956 में भारत सरकार ने एक समिति नियुक्त की थी जिसके अध्यक्ष थे श्री प्रकाश जी । इस कमेटी ने सन् 1960 में अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। कमेटी ने यह सिफारिश की कि विद्यालयीन पाठ्यक्रम में धार्मिक शिक्षा को समाविष्ट करना चाहिए। धार्मिक शिक्षा में उच्च नैतिक तथा सामाजिक मूल्यों के रूप में इनका समावेश किया जाय । श्री प्रकाश समिति ने अपने प्रतिवेदन में कहा था, “Special stress should be laid on teaching good manners and promoting the virtues of reverence and cour tesy which are badly needed in our society.” माध्यमिक शिक्षा आयोग ने भी कहा था, “धार्मिक और नैतिक निर्देशन चरित्र विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।” (Religious and moral instruction also play an important part in the growth of character.) कोठारी आयोग ने भी आध्यात्मिक तथा नैतिक मूल्यों का संरक्षण करना शिक्षा का उद्देश्य कहा है। प्रो. हुमायूँ कबीर ने भी धार्मिक शिक्षा का समर्थन करते हुए कहा है, “धर्म मनुष्य को बन्धनों से मुक्त करता है इसलिए मनुष्य की उन्नति के लिए धर्म तत्त्वों की शिक्षा आवश्यक है। धर्म के द्वारा उदात्त गुणों की सीख देना आवश्यक है। धर्म में आडम्बर तथा अन्धश्रद्धा को कोई स्थान नहीं दिया जाना चाहिए ।”

धर्म की अवधारणा बहुत व्यापक है । महाभारत में कहा गया है, “धारणाद धर्म इति आहु धर्मों धारयति प्रजा।”

अर्थात् जिसे मनुष्य धारण करें वही धर्म है दूसरे शब्दों में अपने कर्त्तव्यों का विधिवत। पालन करना ही धर्म है । वास्तव में धर्म सत्यान्वेषण का साधन है। धर्म के द्वारा सौन्दर्य की प्राप्ति की जा सकती है। इनकी प्राप्ति के लिए व्यक्ति का नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास आवश्यक है| अतः शिक्षा धर्म की प्रथम सीढ़ी है तथा धर्म शिक्षा को उन्नति के शिखर पर ले जाने वाला प्रेरक तत्त्व है।

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