जातिवाद की अवधारणा तथा इसके दुष्परिणाम
‘जाति’ शब्द किसी समाज या प्राणी वर्ग के समूह का द्योतक है। जन्म से पूर्व व्यक्ति या कोई भी प्राणी कहाँ होता है ? कैसा होता है ? कोई उत्तर नहीं है। यहाँ उत्तर एक समस्या है, किन्तु जन्मोपरान्त प्राणी किसी न किसी जाति का सदस्य अवश्य होता है। संसार की सभी जातियाँ या प्रजातियाँ अपने समूह की रक्षा के प्रति सम्वेदनशील होती हैं किन्तु उससे भी अधिक सम्वेदनशीलता उनमें पायी जाती है जो दूसरे वर्ग या जात की रक्षा के प्रति भी चैतन्यशील होते हैं और सभी के अधिकारों की रक्षा को अपना कर्त्तव्य मानते हैं । जातिवाद आज के परिप्रेक्ष्य में निषेधात्मक या विकृत होता चला जा रहा है । राजनैतिक दल जाति के आधार पर सरकार बनाने की गोटें बिछा रहे हैं। समीकरणों का जाल तैयार किया जाता है और दूसरी जातियों का शोषण करने का प्रयत्न जैसे विचार देखे जा सकते हैं। राष्ट्रीय विकासार्थ ऐसे तत्वों को स्थान नहीं मिलना चाहिये। जातिवाद की इस व्यवस्था से समाज में विघटन उत्पन्न होता है। जातिवाद की इस व्यवस्था ने भारत के सम्पूर्ण शरीर को क्षत-विक्षत कर दिया है जिससे सम्पूर्ण प्रक्रिया आहत हो रही है। सच तो है कि हम किसी सन्देह के स्वप्निल संसार में जी रहे हैं। जो जाति व्यवस्था यह प्राचीनकाल में परस्पर सभी की विजय तथा एकता का प्रतीक थी, आज इसी जातिवाद के हथियार से हम स्वयं घायल हो चुके हैं। शिक्षा सभी को प्रेमपूर्वक जाति विहीन बनकर जीने का पाठ पढ़ाती है । जातिवाद एक जटिल सामाजिक तथा राष्ट्रीय समस्या है। भारत में अधिकार-विहीन (निम्न जातियों के व्यक्ति) व्यक्तियों की प्रस्थिति में, विशेषत: जन-जातियों तथा उन जातियों एवं वर्गों में, जिन्हें जन्म के कारण निम्न स्थान दिया जाता है, में सुधार लाना किसी भी सरकार के लिये जो लोकतन्त्र के प्रति वचनबद्ध है, एक महत्वपूर्ण लक्ष्य होना चाहिये।
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