किशोरावस्था में नैतिक विकास (Moral Development in Adolescence)
किशोरावस्था में किशोर के नैतिक विकास पर उसके मानसिक और सामाजिक विकास का महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। अनेक अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि इस आयु में लड़के-लड़कियों में काम-प्रवृत्ति विशेष रूप से तीव्र होती है। अतः इस आयु में अच्छे-बुरे की धारणाओं का काम सम्बन्धी व्यवहार से विशेष रूप से सम्बन्धित होना स्वाभाविक ही है। परन्तु विभिन्न संस्कृतियों में काम-प्रवृत्ति सम्बन्धी क्रियाओं के विषय में विभिन्न नियम होने के कारण किशोरों के नैतिक आचार-विचार में अन्तर पाया जाता है। इस आयु में यौन शिक्षा का नैतिक विकास पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। वास्तव में इस आयु में दमन से अधिक शोधन और मार्गान्तरीकरण से काम करना चाहिए। अनेक शिक्षा मनोवैज्ञानिक स्कूलों में नैतिक शिक्षा और धार्मिक शिक्षा की भी राय देते हैं। परन्तु सामान्य रूप से सभी यह मानते हैं कि नैतिक शिक्षा केवल पुस्तकों और उपदेशों से नहीं, बल्कि शिक्षक द्वारा स्वयं अच्छे आदर्श उपस्थित करके दी जानी चाहिए। इसी प्रकार अभिभावकों द्वारा अच्छे आदर्श उपस्थित किया जाना भी अत्यन्त आवश्यक है। इस सम्बन्ध में स्कूल के वातावरण का महत्त्व भी किसी प्रकार से कम नहीं है। स्कूल और परिवार के अलावा सामान्य सामाजिक वातावरण भी व्यक्ति के नैतिक विकास को प्रभावित करता है। इसीलिए सभ्य और असभ्य समाजों में व्यक्ति के नैतिक आचार-विचार में भारी अन्तर देखा जा सकता है। समाज में ही व्यक्ति के मूल्य निश्चित होते हैं । यद्यपि विचारशील व्यक्ति समाज की नैतिकता का अंधानुकरण नहीं करते, परन्तु समाज के अधिकतर व्यक्ति सामान्य नैतिक विचारों का ही अनुगमन करते हैं। अतः देश के नेताओं, महापुरुषों, साधु-संतों, विद्वानों, वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, अभिनेताओं आदि ऐसे सभी लोगों का व्यक्ति के नैतिक विकास पर प्रभाव पड़ता है जो कि उसके सामने उदाहरणस्वरूप होते हैं। इसके अलावा वयस्कावस्था में नौकरी मिलने, न मिलने, इच्छानुसार व्यवसाय न मिलने पर परिवार की आर्थिक स्थिति, व्यावहारिक सामंजस्य तथा परिवार की सुख-शांति, व्यक्ति की सामाजिक, बौद्धिक और शैक्षिक स्थिति, उसके साथियों का नैतिक स्तर, समाज में अनैतिक संस्थाओं, जैसे वेश्या आदि की उपस्थिति आदि का उसके नैतिक विकास पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।
सामान्य रूप से व्यक्ति के विकास में नियमों, परम्पराओं, धार्मिक आदेशों, रीति-रिवाजों आदि से उसके नैतिक विचार निश्चित होते हैं परन्तु अनेक अवस्थाओं में इसके अपवाद दिखाई पड़ेते हैं। न तो व्यक्ति सदैव दूसरों द्वारा उचित समझी जाने वाली बातों को उचित समझता है और न सदैव अपने द्वारा उचित समझे जाने वाले सिद्धान्तों पर ही चलता है। अतः नैतिक विकास एक जटिल प्रक्रिया है और उसमें व्यक्ति और उसके चारों ओर के मनुष्यों की क्रिया-प्रतिक्रिया का बड़ा महत्त्व है। नैतिक विकास में भारी व्यक्तिगत अन्तर देख जा सकता है। किस परिस्थिति का नैतिक विकास पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह शत-प्रतिशत निश्चित नहीं किया जा सकता। फिर भी अच्छी परिस्थितियों का सामान्य रूप से वांछनीय प्रभाव पड़ता है।
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