राजनीति विज्ञान / Political Science

स्थानीय प्रशासन को स्पष्ट कीजिए एवं इसके उद्देश्य एवं कार्यों का उल्लेख कीजिए।

स्थानीय प्रशासन
स्थानीय प्रशासन

स्थानीय प्रशासन

पंचायती संस्थाओं का तात्पर्य ग्रामीण प्रसासनिक संस्थाओं से है। भारत में प्राचीनकाल से ही पंचायती संस्थाओं का अस्तित्व रहा है, क्योंकि भारत के ग्रामों के विकास के बिना देश की उन्नति असम्भव है और ग्रामों का विकास ग्रामीण प्रशासन द्वारा ही सम्भव है। भारत में वैदिक काल में ग्राम प्रशासन का उत्तरदायित्व ग्राम पर ही था जो ग्राम के प्रमुख व्यक्तियों की सहायता से काम करता था। मौर्य काल में भी ग्राम पंचायतों का उल्लेख मिलता है। मौर्य काल में इन अधिकारियों के लिए स्थानीय उत्तरदायित्व का सिद्धान्त लागू किया गया था। गुप्त काल में ग्राम प्रशासन के लिए 5 सदस्यी समितियों की स्थापना की गई थी। और इनको पर्याप्त अधिकार प्राप्त थे। चोल शासन में तो पूर्ण स्वायत्व ग्रामीण शासन की महत्वपूर्ण व्यवस्था थी। सल्तनतकाल एवं मुगलकाल में भी ग्रामीण व्यवस्था अपरिवर्तित रही। अंग्रेजी शासन काल में ग्रामीण प्रशासन में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। धीरे-धीरे ग्रामीण प्रशासन के स्रोत-पंचायत संस्थाएं समाप्त हो गई। सभी कार्य प्रादेशिक सरकारें करने लगीं। जमींदारों को ग्रामीण क्षेत्र में कुछ अधिकार दिये गये। सन् 1882 में गवर्नर जनरल रिपन ने ग्रामीण शासन की स्थापना का प्रयत्न किया। सर्वप्रथम कांग्रेस द्वारा ग्रामीण प्रशासन के लिए पंचायतों को पुनर्जीवित करने की मांग सन 1909 के लाहौर अधिवेशन में रखी गई। 14 फरवरी, 1916 को गाँधीजी ने इस माँग को मद्रास मिशनरी सम्मेलन में पुनः उठाया। ब्रिटिश शासकों ने ग्रामीण प्रशासन की स्थिति की जाँच की माँग करने तथा उनके सम्बन्ध में सिफारिश करने के लिए सन् 1882 1907 एवं 1920 में शाही आयोग नियुक्त किये। आयोग ने ग्रामीण प्रशासन के विकास पर बल दिया। सन् 1920 में संयुक्त प्रांत, असम, बंगाल, बिहार, मद्रास और पंजाब में ग्रामीण उत्थान के लिए पंचायतों की स्थापना के लिए कानून बनाये गये।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात जब संविधान निर्माताओं ने पंचायती राज की उपेक्षा कर दी तो इसका महत्मा गाँधी ने कहा विरोध किया। उन्होंने कहा ‘आजादी में जनता की इच्छा मुखरित होनी चाहिये इसलिए पंचायतों को न केवल पुनः जीवित किया जाना चाहिये बल्कि इन्हें अधिक अधिकार दिये जाने चाहिये।’ इस कथन की व्यापक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप संविधान के नीति निर्देशक सिद्धान्तों में अनुच्छेद 40 एवं राज्य सूची के अन्तर्गत राज्यों को पंचायतों के गठन का निर्देश दिया गया।

2 अक्टूबर, 1952 को नेहरू जी द्वारा पंचायती राज्य एवं सामुदायिक विकास मन्त्रालय के तत्वाधान में सामुदायिक विकास कार्यक्रम का आरम्भ किया गया, जिससे कि आर्थिक नियोजन एवं सामाजिक पुनरुद्धार की राष्ट्रीय योजनाओं में देश की ग्रामीण जनता में सक्रिय रुचि एवं सहयोग उत्पन्न किया जा सके। इस कार्यक्रम के अधीन विकास खण्ड (ब्लाक) को इकाई मानकर ब्लांक में विकास हेतु सरकारी कर्मचारी के साथ सामान्य जनात को विकास की प्रक्रिया से जोड़ने का प्रयास किया गया। लेकिन जनता को अधिकार न दिये जाने के कारण सरकारी अधिकरियों तक सीमित रह गया और विफल हो गया। 2 अक्टूबर, 1953 को प्रारम्भ राष्ट्रीय प्रसार सेवा कार्यक्रम भी असफल सिद्ध हो गया।

सामुदायिक विकास कार्यक्रम पर पर्याप्त धनराशि व्यय हो चुकने के बाद इसकी जाँच के लिए सन् 1957 में बलवन्त राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। सन 1957 के अन्त में अपनी रिपोर्ट में समिति ने कहा कि सामुदायिक विकास कार्यक्रम मूल कमी यह रही है कि जनता का इसमें सहयोग प्राप्त नहीं स्थानीय नेताओं को जिम्मेदारी और अधिकार नहीं सौंपे जो संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों का राजनीतिक और विकास सम्बन्धी लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सकता। इसलिए विकेन्द्रीकरण और सामुदायिक विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत ग्रामीण प्रशासन को सफल बनाने के लिए त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्थाओं की स्थापना की जानी चाहिये।

(i) ग्राम पंचायत,

(ii) पंचायत समिति या जनपद पंचाय (विकास खण्ड स्तर पर),

(iii) जिला परिषद (जिला स्तर पर)।

बलवन्त राय मेहता समिति की सिफारिश पर पण्डित जवाहरलाल नेहरू द्वारा 2 अक्टूबर, 1959 को नागौर (राजस्थान) से पंचायती राज संस्थाओं का श्रीगणेश निम्नांकित उद्देश्यों से किया गया।

‘गाँवों के लोग अपने शासन का उत्तरदायित्व स्वयं सम्भालेंगे यह आवश्यक है कि गाँवों के निवासी कृषि, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सफाई शिक्षा, सिंचाई, पशुपालन, परिवहन, बाजार-हाट आदि से सम्बन्धित विकास प्रक्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग ले और उन्हें यह अधिकार प्राप्त होना चाहिये कि वे अपनी आवश्यकताओं और अनिवार्यताओं के विषय में स्वयं  ही निर्णय ले सकें। लोग अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से स्थानीय नीतियों का निर्धारण करे और जनता की वास्तविक आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए उनके अनुसार ही अपने कार्यक्रम को लागू करे।’

कालान्तर में असम, चेन्नई, कर्नाटक, उड़ीसा, पंजाब उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में ग्रामीण प्रशासन की पंचायती राज योजना को लागू कर दिया गया। वर्तमान में मध्यप्रदेश सहित भारत के लगभग सभी राज्यों में यह योजना प्रभावी है।

ग्रामीण प्रशासन के उद्देश्य 

ग्रामीण प्रशासन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित है-

(i) कृषि उत्पादन में वृद्धि करना।

(ii) उद्योगों का विकास करना

(iii) सहकारी संस्थाओं को विकसित करना। करना ।

(iv) पंचायतों के क्षेत्र में उपलब्ध प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों का पूर्ण उपयोग

(v) ग्रामीण समुदाय के कमजोर वर्ग के लोगों को आर्थिक दशा में सुधार करना।

(vi) सत्ता का विकेन्द्रीकरण करना और एच्छिक संगठनों का विकास करना।

(vii) ग्रामीण प्रशासन की पंचायती राज प्रणाली परस्पर सहयोग और सहकारिता की भावना पर आधारित है।

ग्रामीण प्रशासन के कार्य

ग्रामीण प्रशासन के अन्तर्गत पंचायतों को अनेक कार्य सम्पन्न करने पड़ते हैं। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण कार्य निम्नांकित हैं-

(i) गाँवों में कृषि उत्पादन के कार्यक्रम तैयार करना।

(ii) इन कार्यक्रमों को चलाने के लिए बजट तैयार करना तथा वित्तीय साधनों की व्यवस्था करना।

(iii) गाँव तक सरकारी सहायता पहुँचाने के लिए मध्यस्थ का कार्य करना।

(iv) कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए कृषि के न्यूनतम स्तर को प्राप्त करना ।

(v) व्यर्थ पड़ी हुई भूमि को कृषि कार्य हेतु उपयोग में लाना।

(vi) जिस भूमि पर भूस्वामी कृषि कार्य नहीं करते उन पर कृषि की अन्य व्यवस्था करना ।

(vii) ग्रामीण भूमि पर सरकारी प्रबन्ध हेतु व्यवस्था करना ।

(viii) ग्रामीण विकास के कार्यक्रमों में सहयोग देना ।

(ix) न्यायालयों के रूप में कार्य करना ।

(x) ग्रामों में सामान्य सुविधाएँ जैसे- सार्वजनिक मार्गों, नालियों, विद्युत व्यवस्था, स्वास्थ्य सुविधाओं, सफाई, शिक्षा, जलापूर्ति आदि की व्यवस्था करना ।

संक्षेप में ग्रामीण प्रशासन का प्रमुख कार्य गाँवों का पुनर्स्थापन और विकास करना है। साथ ही ग्रामवासियों में सहभागिता का विकास करना है।

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