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संस्कृति संरुप पर लेख | Articles on culture format in Hindi

संस्कृति संरुप पर लेख

संस्कृति संरुप पर लेख

संस्कृति संरुप पर लेख 

संस्कृति का संरुप (Configuration of Culture) – लिण्टन ने संस्कृति को सीखे हुए व्यवहारों के एक संरुपण अथवा विन्यास के रुप में स्पष्ट किया। आपने यह बताया कि संस्कृति के विभिन्न तत्व एक साथ मिलकर संस्कृति को एक विशेष रुप प्रदान करते हैं। इसका अर्थ है कि एक संस्कृति में कुछ विशेष प्रकार के व्यवहारों और परम्पराओं का समावेश होता है। उन्हीं के द्वारा संस्कृति की अपनी एक खास पहचान बन जाती है और इसीलिए एक संस्कृति को दूसरी संस्कृतियों से पृथक् किया जा सकता है। इसी को कुछ लेखकों ने सांस्कृतिक सापेक्षता’ (Cultural relativism) के नाम से सम्बोधित किया।

संस्कृति के संरुपणात्मक दृष्टिकोण को स्पष्ट करने में रुथ बेनेडिक्ट का योगदान सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। बेनेडिक्ट ने यह स्पष्ट किया कि संस्कृति के अनेक छोटे-बड़े तत्व तथा संस्कृति- संकुल मिलकर एक सांस्कृतिक प्रतिमान का निर्माण करते हैं और अनेक सांस्कृतिक प्रतिमानों के मिलने से ही एक सम्पूर्ण संस्कृति का निर्माण होता है। यह छोटे-बड़े तत्व, संकुल तथा प्रतिमान जिस विशिष्ट ढंग से संयुक्त होकर संस्कृति को एक विशेष रुप प्रदान करते हैं, उसी को संस्कृति विन्यास अथवा ‘संस्कृति का संरुप’ कहा जाता है। इस सम्बन्ध में दो प्रमुख प्रश्न यह उत्पन्न होते हैं कि विभिन्न समाजों में संस्कृति के संगठन की प्रकृति एक-दूसरे से भिन्न क्यों होती है तथा संस्कृति के एकीकरण को किन कारणों तथा प्रवृत्तियों के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है?

पहली स्थिति को स्पष्ट करते हुए बेनेडिक्ट ने बताया कि यद्यपि एक संस्कृति का निर्माण अनेक संस्कृति-तत्वों तथा संस्कृति-प्रतिमानों से होता है, लेकिन इनके विभिन्न संयोगों (Combinations) से संस्कृति के जिस संगठन का विकास होता है, उसकी प्रकृति एक-दूसरे से अत्यधिक भिन्न होती है। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि विभिन्न संस्कृतियों से सम्बन्धित सांस्कृतिक तत्व ऊपरी तौर पर एक-दूसरे के समान हो सकते हैं लेकिन वे तत्व जिस ढंग से एक-दूसरे से सम्बद्ध होते हैं, उनका डिजायन एक-दूसरे से काफी भिन्न होता है। इसका तात्पर्य है कि जिस प्रकार चार-पाँच मुख्य रंगों के विभिन्न संयोगों से अनेक रंग बन सकते हैं, उसी प्रकार संस्कृति-तत्वों के विभिन्न संयोगों से बनने वाले संस्कृति के प्रतिमानों का रुप भी एक-दूसरे से काफी भिन्न होता है।

संस्कृति के विन्यास की प्रवृत्ति को स्पष्ट करते हुए बेनेडिक्ट ने बताया है कि प्रत्येक संस्कृति में एक विशेष दिशा में बढ़ने का झुकाव होता है। इसी को संस्कृति की आत्मा’ कहा जा सकता है। अपनी इस मान्यता को स्पष्ट करने के लिए बेनेडिक्ट ने संस्कृति की दो प्रमुख प्रवृत्तियों (tendencies) का उल्लेख किया है। इन्हें आपने अपोलोनियन (Apollonian) तथा डायोनीशियन (Dionysian) प्रवृत्ति कहा है। अपोलोनियन शब्द ग्रीक ‘अपोलो’ शब्द से बना है। अपोलो ग्रीस के सूर्य देवता का नाम है जो अत्यधिक दयालु और सुख प्रदान करने वाले माने गये हैं। इस प्रकार अपोलोनियन संस्कृति एक ऐसी संस्कृति को स्पष्ट करती है जिसमें शान्ति, दया और सुख का गुण प्रधान होता है। दूसरी ओर डायोनिशयन शब्द ग्रीस के डायोनीसियस देवता से सम्बन्धित है जो अशान्ति, कष्ट और संघर्ष के देवता माने जाते हैं। इन दोनों तरह की संस्कृतियों के संगठन को बेनेडिक्ट ने प्यूब्लो (Pueblo) तथा इण्डोनेशिया की अलोर (Alor) जनजातियों की संस्कृति द्वारा स्पष्ट किया है। अमरीका के दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र में रहने वाली प्युब्लो जनजाति में सभी व्यक्ति शान्ति और सहयोग के द्वारा अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रयत्न करते हैं। यहाँ सभी लोग अपने अधिकारों का उपयोग समाज की मर्यादाओं के अनुसार करते हैं। कोई भी व्यक्ति अपनी परम्पराओं का उल्लंघन करने का प्रयत्न नहीं करता। उनका विश्वास है कि यदि वे शान्ति और सहयोग के द्वारा अपनी आवश्यकताओं को पूरा करेंगे तो खेती, वर्षा और समृद्धि के देवता उनसे सन्तुष्ट रहेंगे तथा उनकी आवश्यकताओं को पूरा करते रहेंगे। इसके विपरीत डायोनिशियन संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाली अलोर जनजाति में प्रत्येक व्यक्ति यह प्रयत्न करता रहता है कि वह किसी न किसी ढंग से दूसरे लोगों पर अपना प्रभाव स्थापित कर ले। इस जनजाति में परम्पराओं का उल्लंघन करना, तनाव तथा झगड़े सामान्य विशेषताएँ हैं। विभिन्न अवसरों पर धन की बरबादी को ही वे अपनी प्रतिष्ठा का मापदण्ड समझते हैं। प्रत्येक व्यक्ति दूसरों को सन्देह की दृष्टि से देखता है। पारिवारिक जीवन में भी बहुत कम सहयोग पाया जाता है। इसके परिणामस्वरुप इस जनजाति में प्रत्येक व्यक्ति का जीवन असुरक्षित रहता है और तथा व्यक्तित्व का विकास समुचित ढंग से नहीं हो पाता।

इस आधार पर बेनेडिक्ट ने यह स्पष्ट किया कि संस्कृति की प्रकृति को संस्कृति में निहित एक अन्दरुनी प्रवृत्ति अथवा झुकाव के आधार पर ही समझा जा सकता है। प्रत्येक संस्कृति में इस झुकाव का रुप एक-दूसरे से भित्र होता है। यही कारण है कि विभिन्न समाजों में संस्कृति का संगठन अथवा एकीकरण भी एक-दूसरे से भिन्न देखने को मिलता है। इसी विचारधारा का समर्थन करते रैडफील्ड ने बताया कि प्रत्येक संस्कृति में जीवन व्यतीत करने तथा सोचने-समझने का एक विशेष ढंग हुए होता है जिससे सम्पूर्ण संस्कृति प्रभावित होती है। यही ढंग संस्कृति में एकीकरण की दशा पैदा करता है। इसका तात्पर्य है कि यदि हम किसी समाज की संस्कृति को समझना चाहते हैं तो हमें उस समाज में पाये जाने वाले जीवन के विशेष प्रकार (style of life) को समझना आवश्यक होगा।

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