अर्थशास्त्र / Economics

विनिमय का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएँ, शर्ते, प्रकार, गुण, लाभ, तथा कठिनाइयाँ- in Hindi

 विनिमय का अर्थ तथा परिभाषा

विनिमय का अर्थ तथा परिभाषा

 विनिमय का अर्थ तथा परिभाषा

सभ्यता के प्रारम्भ में मनुष्य आत्मनिर्भर था और उसकी आवश्यकताएँ सीमित थीं। वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं कर लेता था। ज्ञान व सभ्यता के विकास के साथ-साथ मनुष्य की आवश्यकताओं में वृद्धि होती चली गई। अब मनुष्य के लिए यह असम्भव गया कि वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं कर ले। इस प्रकार मनुष्य को दूसरे मनुष्यों के सहयोग की आवश्यकता अनुभव हुई और विनिमय का प्रारम्भ हुआ। विनिमय क्रिया के अन्तर्गत एक मनुष्य अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ, सेवाएँ या धन दूसरे व्यक्तियों से प्राप्त करता है तथा बदले में दूसरे व्यक्तियों को उनकी आवश्यकता की वस्तुएँ, सेवाएँ या धन प्रदान करता है। अत: यह कहा जा सकता है कि विनिमय क्रिया में दो पक्षों का पारस्परिक हित निहित होता है।

कुछ विद्वानों ने विनिमय की परिभाषा निम्नलिखित दी है-

मार्शल के अनुसार, “दो पक्षों के बीच होने वाले धन के ऐच्छिक, वैधानिक तथा पारस्परिक हस्तान्तरण को ही विनिमय कहते हैं।”

प्रो० जेवेन्स के अनुसार, “कम आवश्यक वस्तुओं से अधिक आवश्यक वस्तुओं की अदल-बदल को ही विनिमय कहते हैं।”

ए० ई० वाघ के अनुसार, “हम एक-दूसरे के पक्ष में स्वामित्व के दो ऐच्छिक हस्तान्तरणों को विनिमय के रूप में परिभाषित कर सकते हैं।”

इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि वस्तुओं के आदान-प्रदान को विनिमय कहते हैं, परन्तु वस्तुओं के सभी आदान-प्रदान को विनिमय नहीं कहा जा सकता। अर्थशास्त्र में केवल वही आदान-प्रदान विनिमय कहलाता है जो पारस्परिक, ऐच्छिक एवं वैधानिक हो।

विनिमय का लक्षण या विशेषताएँ

विनिमय क्रिया में निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं-

(1) दो पक्ष- विनिमय क्रिया के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों या पक्षों का होना आवश्यक है। केवल एक पक्ष या एक व्यक्ति विनिमय प्रक्रिया को सम्पन्न नहीं कर सकता।

(2) वस्तु, सेवा या धन का हस्तान्तरण- विनिमय क्रिया में दोनों पक्षों के बीच सदैव वस्तु, सेवा या धन का हस्तान्तरण किया जाता है। बाधि

(3) वैधानिक हस्तान्तरण- विनिमय क्रिया में धन का वैधानिक हस्तान्तरण होता है, धन का अवैधानिक हस्तान्तरण विनिमय नहीं है।

(4) ऐच्छिक हस्तान्तरण- विनिमय क्रिया में वस्तुओं व सेवाओं अर्थात् धन का हस्तान्तरण ऐच्छिक होता है। किसी भी प्रकार के दबाव के अन्तर्गत किया गया हस्तान्तरण विनिमय नहीं कहा जाएगा।

इन विशेषताओं के आधार पर “दो पक्षों के बीच होने वाले धन व वस्तुओं के ऐच्छिक, वैधानिक तथा पारस्परिक हस्तान्तरण की क्रिया ही विनिमय कहलाती है।”

विनिमय के शर्ते

(1) दो पक्ष- विनिमय की क्रिया के सम्पन्न होने के लिए दो पक्षों का होना आवश्यक है।

(2) दोनों पक्षों की तत्परता- यह भी आवश्यक है कि दोनों पक्षों को एक-दूसरे की वस्तु की आवश्यकता हो तथा के दोनों उनका लेन-देन करने को तत्पर हों।

(3) कम-से-कम दो वस्तुएँ- विनिमय कार्य सम्पन्न होने के लिए कम-से-कम दो वस्तुएँ भी होनी चाहिए, जिससे उनका लेन-देन हो सके। दो वस्तुओं में एक वस्तु द्रव्य हो सकती है।

(4) दोनों पक्षों को लाभ- विनिमय क्रिया में दोनों पक्षों को उपयोगिता का लाभ होना भी आवश्यक है। एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की वस्तु से अपेक्षाकृत अधिक उपयोगिता प्राप्त होने की सम्भावना होनी चाहिए तथा दूसरे व्यक्ति को भी पहले व्यक्ति की वस्तु से अपेक्षाकृत अधिक उपयोगिता प्राप्त होने की सम्भावना होनी चाहिए।

विनिमय के प्रकार

विनिमय दो प्रकार का होता है-(i) प्रत्यक्ष विनिमय या वस्तु विनिमय या अदल-बदल प्रणाली तथा (ii) अप्रत्यक्ष विनिमय अथवा द्रव्य द्वारा क्रय-विक्रय प्रणाली।

प्रत्यक्ष विनिमय या वस्तु-विनिमय प्रणाली- “जब दो व्यक्ति परस्पर अपनी वस्तुओं तथा सेवाओं का प्रत्यक्ष रूप से आदान-प्रदान करते हैं, तब इस प्रकार की क्रिया को हम अर्थशास्त्र में वस्तु-विनिमय (Barrer) कहते हैं।”

उदाहरणार्थ- एक समय भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में अनाज देकर सब्जी प्राप्त की जाती थी तथा नाई, धोबी, बढ़ई आदि को सेवाओं के बदले में अनाज दिया जाता था।

अप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय-विक्रय प्रणाली- जब विनिमय प्रक्रिया में मुद्रा (द्रव्य) का लेन-देन भी किया जाता है  तो इस प्रणाली को क्रय-विक्रय अथवा अप्रत्यक्ष विनिमय कहते हैं। दूसरे शब्दों में, जब कोई व्यक्ति मुद्रा लेकर किसी वस्तु या सेवा को क्रय करता है या किसी वस्तु या सेवा को देकर मुद्रा प्राप्त करता है, तब इस क्रिया को अप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय-विक्रय प्रणाली कहते हैं।

वस्तु-विनिमय प्रणाली के गुण

वस्तु-विनिमय प्रणाली के मुख्य गुण निम्नलिखित हैं-

(1) सरलता- वस्तु-विनिमय प्रणाली एक सरल प्रक्रिया है। अनपढ़ लोग मुद्रा का ठीक-ठीक हिसाब नहीं लगा पाते हैं। ऐसी स्थिति में वे वस्तुओं का परस्पर आदान-प्रदान करके अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करते हैं।

(2) पारस्परिक सहयोग- वस्तु-विनिमय प्रणाली सीमित क्षेत्र तक ही वहाँ उपयोग में लाई जा सकती है, जहाँ के निवासी एक-दूसरे की आवश्यकताओं से परिचित रहते हैं। वे आपस में वस्तुओं एवं सेवाओं का आदान-प्रदान करके आवश्यकताओं की सन्तुष्टि सरलता से कर लेते हैं, जिससे उनमें पारस्परिक सहयोग की भावना बलवती होती है।

(3) धन का विकेन्द्रीकरण- वस्तु-विनिमय प्रणाली सीमित क्षेत्र व न्यूनतम स्तर तक ही कार्य कर पाती है। व्यक्तियों को वस्तुओं के नष्ट होने का भय बना रहता है। इस कारण वे वस्तुओं का संग्रहण अधिक मात्रा में नहीं कर पाते। मुद्रा पद्धति के अभाव के कारण धन का केन्द्रीकरण कुछ ही हाथों में न होकर समाज के सीमित क्षेत्र के लोगों में बँट जाता

(4) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए उपयुक्त- विभिन्न देशों की मुद्राओं में भिन्नता के कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में भुगतान की समस्या बनी रहती है, परन्तु वस्तु-विनिमय द्वारा इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है, क्योंकि वस्तुओं के माध्यम से भुगतान सरलता से हो जाता है।

(5) मौद्रिक पद्धति के दोषों से मुक्ति- मौद्रिक पद्धति में मुद्रा प्रसार व मुद्रा संकुचन की स्थिति उत्पन्न होती रहती है, परन्तु वस्तु विनिमय प्रणाली में इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। इस प्रकार वस्तु-विनिमय प्रणाली मौद्रिक अवगुणों से मुक्त व्यवस्था है।

उपयोगिता का लाभ

विनिमय की क्रिया उन्हीं व्यक्तियों द्वारा की जाती है जिनके पास वस्तुओं का आधिक्य होता है और इन अतिरिक्त वस्तुओं की उपयोगिता उनके लिए अपेक्षाकृत कम होती है। यह एक स्वाभाविक बात है कि व्यक्ति अपनी कम उपयोगी वस्त को देकर ही अधिक उपयोगी वस्तु को प्राप्त करना चाहते हैं। यह तथ्य दोनों पक्षों पर ही समान रूप से लागू होता है। दोनों पक्षों को विनिमय की क्रिया से उपयोगिता का लाभ होता है। यदि किसी पक्ष को हानि होगी तब विनिमय सम्पन्न ही नहीं होगा। इस तथ्य का स्पष्टीकरण निम्नलिखित उदाहरण द्वारा किया जा सकता है-

माना प्रिया व अरुणा के पास क्रमश: आम व सेब की कुछ इकाइयाँ हैं। वे परस्पर विनिमय करना चाहते हैं। दोनों को एक-दूसरे की वस्तु की आवश्यकता है। क्रमागत तुष्टिगुण ह्रास नियम के अनुसार, प्रिया व अरुणा की आम व सेब की इकाइयों का तुष्टिगुण क्रमश: घटता जाता है, परन्तु जब विनिमय प्रक्रिया दोनों के मध्य प्रारम्भ होती है तब दोनों के पास आने वाली इकाइयों का तुष्टिगुण अधिक होता है तथा बदले में दोनों अपनी अतिरिक्त इकाइयों का त्याग करती हैं जिनका तुष्टिगुण अपेक्षाकृत कम होता है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक दोनों पक्षों को तुष्टिगुण का लाभ मिलता रहता है।

उपर्युक्त तालिका के अनुसार प्रिया व अरुणा में विनिमय प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। प्रिया आम की एक इकाई देकर अरुणा से सेब की एक इकाई प्राप्त करती है। प्रिया को सेब की प्रथम इकाई से प्राप्त तुष्टिगुण अधिक होता है। उसे सेब की पहली इकाई से 25 इकाई तुष्टिगुण मिलता है। सेब के बदले में वह आम की अन्तिम इकाई, जिसका तुष्टिगुण 6 इकाई है, देती है। इस प्रकार उसे 25-6 = 19 तुष्टिगुण का लाभ होता है। इसी प्रकार अरुणा सेब की अन्तिम इकाई, जिसका तुष्टिगुण 4 है, को देकर आम की पहली इकाई जिसमें उसे 20 तुष्टिगुण मिलता है, प्राप्त करती है। उसे 20-4 = 16 तुष्टिगुण के बराबर लाभ मिलता है। विनिमय की यह प्रक्रिया आम व सेब की तीसरी इकाई तक निरन्तर चलती रहती है, क्योंकि विनिमय प्रक्रिया से दोनों पक्षों को लाभ होता रहता है। परन्तु दोनों पक्ष चौथी इकाई के विनिमय हेतु तैयार नहीं होते हैं, क्योंकि अब विनिमय प्रक्रिया से उन्हें हानि होती है। इस प्रकार दोनों पक्ष उस सीमा तक ही विनिमय करते हैं, जब तक दोनों पक्षों को लाभ प्राप्त होता है। अत: यह कथन कि विनिमय से दोनों पक्षों को तुष्टिगुण का लाभ प्राप्त होता है, सत्य है।

वस्तु-विनिमय की असुविधाएँ या कठिनाइयाँ

वस्तु-विनिमय प्रणाली की प्रमुख कठिनाइयाँ या असुविधाएँ निम्नलिखित हैं-

(1) आवश्यकताओं में दोहरे संयोग का अभाव- वस्तु-विनिमय प्रणाली की सबसे बड़ी कठिनाई दोहरे संयोग का अभाव है। इस प्रणाली के अन्तर्गत मनुष्य को ऐसे व्यक्ति की खोज में भटकना पड़ता है, जिसके पास उसकी आवश्यकता की वस्तु हो और वह व्यक्ति अपनी वस्तु के बदले में स्वयं उस मनुष्य की वस्तु लेने के लिए तत्पर हो। इस प्रकार दो पक्षों का ऐसा पारस्परिक संयोग, जो एक-दूसरे की आवश्यकता की वस्तुएँ प्रदान कर सके, मिलना कठिन हो जाता है।

(2) मूल्य के सर्वमान्य माप का अभाव- वस्तु -विनिमय की एक अन्य कठिनाई मूल्य के सर्वमान्य माप का अभाव है। इस प्रणाली में मूल्य का कोई ऐसा  सर्वमान्य माप नही होता, जिसके व्दारा प्रत्येक वस्तु के मुल्य को विभिन्न वस्तुओं के सापेक्ष निश्चित किया जा सके। इस स्थिति में दो वस्तुओं के बीच विनिमय दर निर्धारित करना तीन बातों पर निर्भर करता था- (i) विनिमय-दर प्रायः दोनों पक्षों की सौदा करने की शक्ति पर निर्भर करती थी, (ii) प्रत्येक वस्तु के लिए प्रत्येक बार नये सिरे से विनिमय -दर निर्धारित करनी होती थी  तथा (iii) इस प्रकार की व्यवस्था में लेखा करना असम्भव था- दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी वस्तु का अधिक मूल्य आँकते थे तथा वस्तु-विनिमय कार्य में कठिनाई होती थी।

(3) वस्तु के विभाजन की कठिनाई- कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिनका विभाजन नहीं किया जा सकता, क्योंकि विभाजन करने से उनकी उपयोगिता समाप्त हो जाती थी; जैसे-घोड़ा, हाथी, टी०वी०, साइकिल, कार आदि। अतः वस्तु-विनिमय प्रणाली में वस्तुओं की अविभाज्यता भी बहुधा कठिनाई का कारण बन जाती और ऐसी वस्तुओं के बदले उनके स्वामी को प्राय: उनका उचित मूल्य प्राप्त नहीं होता था।

(4) मूल्य संचय की असुविधा- वस्तु-विनिमय प्रणाली में बहुधा वस्तुओं को अधिक समय तक संचित करके नहीं रखा जा सकता, क्योंकि अनेक वस्तुएँ नाशवान् होती हैं, उनके मूल्य भी स्थिर नहीं रहते हैं; उपभोक्ताओं की आदत (स्वभाव) में परिवर्तन हो जाने के कारण उनकी उपयोगिता भी कम हो जाती है। अत: वस्तुओं को धन के रूप में संचित करना कठिन होता है।

(5) हस्तान्तरण की असुविधा- वस्तु-विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत बहुत-सी वस्तुओं को हस्तान्तरित करने में कठिनाई उत्पन्न होती है; जैसे-भवन, भूमि, पशु, बड़ी वस्तु आदि। इस क्रिया में धन, श्रम तथा समय का अपव्यय भी होता है।

(6) स्थगित भुगतानों में कठिनाई- वस्तु-विनिमय प्रणाली में वस्तु के मूल्य स्थिर नहीं होते तथा वस्तुएँ कुछ समय के पश्चात् नष्ट होनी प्रारम्भ हो जाती हैं। इस कारण उधार लेने-देने में असुविधा रहती है। यदि वस्तुओं के मूल्य का भुगतान तुरन्त न करके कुछ समय के पश्चात् किया जाता है, तब सर्वमान्य मूल्य मापक के अभाव के कारण समस्या उत्पन्न हो जाती है।

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