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विद्यालय अनुशासन अध्यापक की भूमिका | Role of School Discipline Teacher in Hindi

विद्यालय अनुशासन अध्यापक की भूमिका | Role of School Discipline Teacher in Hindi
विद्यालय अनुशासन अध्यापक की भूमिका | Role of School Discipline Teacher in Hindi

विद्यालय अनुशासन अध्यापक की भूमिका का उल्लेख कीजिए।

विद्यालय अनुशासन अध्यापक की भूमिका- विद्यालय में बालक जो भी अनुभव प्राप्त करते हैं उन्हें तभी अच्छी तरह से ग्रहण करने में सफल हो पाते है। जबकि ऐसा करने के लिए उन्हें योग्य एवं कुशल अध्यापक के रूप में एक अच्छा नेतृत्व प्राप्त हो। अपने विद्यार्थियों के कल्याण हेतु तथा समुदाय, समाज एवं राष्ट्र की सेवा में अपनी आहुति देने में एक विद्यालय जो भी योगदान दे सकता है, उस सबका श्रेय उस विद्यालय के उन अध्यापकों को ही जाता है जो अपनी निष्ठा एवं लगन से अपने विद्यार्थियों को एक अच्छा नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता रखते हैं।

अध्यापकों को अपने विद्यार्थियों को जहाँ तक हो सके एक प्रभावी लोकतंत्रात्मक नेतृत्व (Democratic Leadership) ही प्रदान करना चाहिए, तानाशाही, स्वेच्छाचारिता तथा ऊपर से थोपा जाने वाला नेतृत्व नहीं। इसी प्रकार का नेतृत्व प्रदान करने वाला अध्यापक सही अर्थों में विद्यार्थियों का नायक तथा उनके स्वप्नों का आदर्श हो सकता है तथा वे उसके सच्चे अनुगामी बनकर, उसके दिखाये हुए रास्ते पर चलते हुए अपने-अपने विद्यालय, समाज तथा राष्ट्र के नाम को रोशन करने की क्षमता रख सकते हैं।

अध्यापक की अपनी नेतृत्व सम्बन्धी भूमिका केवल छात्रों को कक्षा में अधिकगम अनुभव प्रदान करने तक सीमित नहीं रहती वह विद्यालय की समस्त गतिविधियों का सूत्रधार तथा केन्द्र बिन्दु होता है। पाठ्य सहगामी क्रियाओं के आयोजन एवं प्रबन्ध से लेकर खेलकूद, अनुशासन, मार्गदर्शन एवं परामर्श, परीक्षा एवं मूल्यांकन एवं रजिस्टरों का रख-रखाव तथा समाज एवं राष्ट्र सेवा सम्बन्धी कार्यों में सम्पादन तक जो कुछ भी विद्यालय में घटित होता है, सभी में अध्यापक के कुशल नेतृत्व की आवश्कता होती है। एक अध्यापक को इस दृष्टि से अपनी नेतृत्व सम्बन्धी भूमिका का निर्वाह करने हेतु कई प्रकार के कर्तव्यों एवं कार्यों के सम्पादन में कुशल बनाना पड़ता है। सामान्य तौर पर एक अध्यापक द्वारा निभाये जाने वाले विभिन्न विद्यालय कार्यों एवं. कर्तव्यों को निम्न प्रकार से वर्गीकृत करके समझा जा सकता है-

(1) शैक्षणिक कर्त्तव्य एवं कार्य (Teaching Duties and Functions)

अध्यापकों का सबसे प्रमुख कार्य और उत्तरदायित्व अध्यापन ही हातो है। इसी कार्य के सफल सम्पादन में ही उनके नाम की सार्थकता है। वास्तव में देखा जाये तो एक अध्यापक को अपनी – निजी पहचान और छाप शैक्षणिक दायित्वों तथा कर्तव्यों को ठीक प्रकार से निर्वाह करने से ही होती है। इस प्रकार के कर्त्तव्य एवं कार्यों की सूची में निम्न बातें आती हैं-

  1. जिन विषयों को अध्यापक पढ़ाता है उन पर पूरा अधिकार करना।
  2. विषयों को शिक्षण के लिए नवीनतम तथा श्रेष्ठतम विधियों एवं तकनीकों की जानकारी ग्रहणकर उन्हें उपयोग में लाना।
  3. कक्षा में पढ़ाते समय पूर्ण अनुशासन रखना।
  4. विद्यार्थियों को कक्षा-शिक्षण में पर्याप्त रूप से सक्रिय भागीदार बनाना।
  5. अपने पाठ को पूरी तैयारी के साथ पढ़ना, आवश्यक पाठ योजना तथा प्रयोग परीक्षण तथा दृश्य-श्रव्य साधनों आदि के बारे में आवश्क पूर्व तैयरीकर उन्हें कक्षा में प्रस्तुत करना।
  6. कक्षा में उचित प्रश्न पूछना, प्रश्न पूछने को प्रोत्साहित करना, अभ्यास कार्य एवं गृहकार्य आदि को ठीक प्रकार करना आदि।
  7. प्रयोगशाला सम्बन्धी प्रयोग कार्यों में छात्रों को उचित रूप से पूरी-पूरी सहायता करता।
  8. कक्षा में प्राप्त अधिगम अनुभवों को व्यावहारिक रूप से प्रयोग में लाने में छात्रों की सहायता करना।
  9. विद्यार्थियों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाने हेतु प्रयास करना।
  10. विद्यार्थियों को उसकी योग्यताओं तथा शनियों के विकास तथा अभिव्यक्ति में पूरी सहायता करना।

(2) परीक्षा एवं मूल्यांकन सम्बन्धी कर्त्तव्य एवं कार्य-

शिक्षण अधिगम के जो भी उद्देश्य निर्धारित किये जाते हैं उनके अनुकूल शिक्षक अपने शैक्षणिक दायित्वों को निभाते हुए तथा विद्यालय के अन्य कायों द्वारा विद्यार्थियों को उचित अनुभव-ग्रहण करने में मदद करता रहता है। विद्यार्थियों ने इस प्रकार की शिक्षा से क्या लाभ उठाया, इनके व्यवहार में किस प्रकार के परिवर्तन आये तथा व्यक्तित्व का किस स्तर तक विकास हुआ—इसका उचित मूल्यांकन किया जाना भी आवश्यक है। उपलब्धि स्तर की जाँच भी होनी जरूरी है ताकि बालकों को दूसरी कक्षाओं में पढ़ाने अथवा उनकी कमजोरियों को जानकर उन्हें उपचारात्मक शिक्षा देने की व्यवस्था की जा सके। अतः एक अध्यापक को निश्चित रूप से विद्यार्थियों की जाँच या मूल्यांकन करते रहने का कर्त्तव्य अवश्य ही निभाना चाहिए। इस प्रकार के उत्तरदायित्वों सम्बन्धी प्रमुख कार्य निम्न प्रकार के हो सकते हैं-

  1. परीक्षा प्रश्न-पत्रों तथा मूल्यांकन सामग्री का निर्माण करना।
  2. समय-समय पर किये जाने वाले प्रशिक्षणों तथा परीक्षाओं के आयोजन में सक्रिय सहयोग प्रदान करना।
  3. परीक्षाओं में निरीक्षक तथा आयोजकों के रूप में कार्य करना।
  4. परीक्षा उत्तर-पुस्तिकाओं की जाँच कार्य में परीक्षक बनकर अपना उत्तरदायित्व निभाना।
  5. आन्तरिक मूल्यांकन कार्य में पर्याप्त रूप से सहयोग करना।
  6. छात्रों के मूल्यांकन परिणामो से छात्रों तथा अभिभावकों के उचित रूप से परिचित कराना।

(3) विद्यालय संगठन तथा प्रबन्ध सम्बन्धी कर्त्तव्य एवं कार्य-

यूँ तो विद्यालय संगठन एवं प्रबन्ध की मुख्य जिम्मेदारी मुख्याध्यापक के कंधों पर ही होती है। परन्तु वह अपना उत्तरदायित्व निभाने के लिए जिनकी प्रमुख रूप से सहायता लेता है, वे अध्यापक ही होते हैं। दूसरे, आज का अध्यापक कल का मुख्याध्यपक भी होता है और इस रूप में भी उसे अपने आपकों आने वाले समय के लिए तैयार करने में संगठन एवं प्रबन्ध सम्बन्धी जिम्मेदारियों का निर्वाह करना काफी उपयोगी ही सिद्ध होता है। इस क्षेत्र में सम्बन्धित विभिन्न कर्त्तव्यों एवं कार्यों की सूची निम्न प्रकार की हो सकती है-

  1. विद्यालय समय सरणी के निर्माण एवं क्रियान्वयन में सहयोग करना।
  2. विद्यालय में उचित, अनुशासन बनाये रखने में सहयोग करना।
  3. विद्यालय के नियम, आदर्शों तथा आचार संहिता का पालन करने में सहायता करना।
  4. विद्यालय भवन, फर्नीचर, शिक्षण साधनों एवं उपकरणों आदि के निर्माण,संगठन तथा रख-रखाव में सहायता करना।

(4) विद्यालय अभिलेखों तथा रजिस्टरों के रख-रखाव सम्बन्धी कर्त्तव्य एवं कार्य–

विद्यालय की गतिविधियों के संचालन हेतु विद्यालय में कई तरह के अभिलेख एवं रजिस्टरों के रख-रखाव की आवश्यकता होती है। विद्यालय के कार्यालय तथा क्लकों की इस कार्य में प्रमुख भूमिका रहती है, परन्तु फिर भी कई तरह के अभिलेखों एवं रजिस्टरों के रख-रखाव की पूरी जिम्मेदारी अध्यापकों के कंधों पर ही होती है। ऐसे कुछ कार्य एवं कर्त्तव्य निम्न हैं-

  1. विद्यार्थियों के उपस्थिति रजिस्टर का रख-रखाव करना।
  2. विद्यार्थियों की फीस तथा अन्य धनराशि का हिसाब रखना तथा सम्बन्धित रजिस्टर का रख-रखाव करना।
  3. सम्पत्ति, रजिस्टर (Property Register) की देखरेख करना।
  4. छात्रों को शैक्षिक उपलब्धियों का हिसाब-किताब रखने में सहायता करना तथा उनकी प्रगति रिपोर्ट इत्यादि तैयार करने में सहायता करना।

(5) मार्गदर्शन एवं निर्देशन सम्बन्धी कर्त्तव्य एवं कार्य-

अध्यापकों का प्रमुख कार्य अपने विद्यार्थियों का सभी प्रकार से हित करना होता है। शिक्षण के द्वारा उन्हें उचित अधिगम अनुभव करने के अतिरिक्त विद्यार्थियों को अपेक्षित मार्गदर्शन तथा निर्देशन प्रदान करने की जिम्मेदारी भी संभालनी होती है। उनके द्वारा दिये जाने वाले कुछ कार्य तथा कर्तव्यों का  निम्न रूप हो सकता है-

  1. विद्यार्थियों को शैक्षिक मार्गदर्शन एवं निर्देशन प्रदान करना।
  2. विद्यार्थियों को उचित व्यावसायिक एवं व्यक्तिगत निर्देशन एवं परामर्श प्रदान करना।
  3. शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए तथा धीमी गति से सीखने वाले बालकों को कमी तथा कठिनाइयों को समझकर उन्हें उपयुक्त मार्गदर्शन तथा उपचारात्मक शिक्षण प्रदान करना।

(6) मधुर सम्बन्ध स्थापित करने सम्बन्धी कर्त्तव्य एवं कार्य-

अध्यापक की अपने उद्देश्य में सफलता इस बात पर भी निर्भर करती है कि वे किस सीमा तक दूसरों को भली-भाँति समझ-बूझ कर उनके साथ उचित व्यवहार कर सकें तथा आपसी सम्बन्धों में पर्याप्त मधुरता बनाये रख सकें। इस प्रकार के कुछ कार्य एवं उत्तरदायित्व निम्न प्रकार के हो सकते हैं-

  1. विद्यार्थियों को भली-भाँति जानने और उन्हें उनकी अच्छाइयों तथा कमियों के साथ स्वीकार करने का प्रयत्न करना।
  2. व्यक्तिगत ध्यान देना तथा उनके साथ न्यायसंगत व्यवहार करना।
  3. विभिन्न क्रिया-कलापों के माध्यम से विद्यार्थियों के निकट आने तथा उनके साथ आत्मीय सम्बन्ध बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
  4. साथी अध्यापकों से प्रेम, सहयोग तथा विश्वासयुक्त मधुर सम्बन्ध बनाने के प्रयत्न करना।
  5. प्रधानाध्यापक तथा अन्य सम्बन्धित अधिकारियों को उचित सुझाव देते हुए उसकी विद्यालय संगठन तथा प्रबन्ध कार्यों में उचित मदद करना।

(7) समाज एवं राष्ट्र-सेवा सम्बन्धी कर्त्तव्य एवं कार्य–

विद्यालय समाज का ही लघु रूप होता है और उसके अस्तित्व का प्रयोजन ही समाज एवं समुदाय का कल्याण करना होता है। अतः सामुदायिक प्रगति, विकास एवं राष्ट्रहित का सम्पादन प्रत्येक विद्यालय और उस विद्यालय में कार्यरत अध्यापकों का परम उद्देश्य होना ही चाहिए। इस दृष्टि से विद्यालय अध्यापकों को कुछ निम्न प्रकार के कर्त्तव्य एवं कार्यों का सम्पादन करना आवश्यक-सा ही हो जाता है।

  1. समुदाय एवं समाज की आवश्यकताओं को जानकर विद्यालय तथा उसके कार्यों द्वारा इनकी पूर्ति के प्रयत्न करना।
  2. विद्यार्थियों को समुदाय, समाज एवं राष्ट्र की मुख्यधारा में बने रहकर अपना यथेष्ट योगदान देने के लिए प्रेरित करना तथा उन्हें इस योग्य बनाना।

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