राजनीति विज्ञान / Political Science

परम्परावाद एवं व्यवहारवाद में बहस की विवेचना कीजिए।

परम्परावाद एवं व्यवहारवाद में बहस
परम्परावाद एवं व्यवहारवाद में बहस

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परम्परावाद एवं व्यवहारवाद में बहस

परम्परावादी राजनीतिशास्त्री यद्यपि बहुत सी बातों में व्यवहारवादी दृष्टिकोण से सहमत होते हुए दिखाई देते हैं, परन्तु अब भी कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें उनकी बातों को मानने के लिए वे तैयार नहीं है। यह मानते हुए भी कि व्यवहारवाद ने, विकास की अपनी विभिन्न अवस्थाओं में, राजनीति के अध्ययन में महत्त्वपूर्ण योग दिया है, उन्हें इस बात में सन्देह है कि व्यवहारवादी उपागम राजनीतिक व्यवहार अथवा घटनाओं को समझने के लिए अपने आप में पर्याप्त है। उनकी मान्यता है कि व्यवहारवादी उपकरण व्यवस्था के अंगों के, अथवा उन अंगों के आपसी सम्बन्धों, के विश्लेषण में कुछ सीमा तक सहायक हो सकते हैं, परन्तु समग्र व्यवस्था की यथार्थताओं को समझने के लिए वे सर्वथा अपर्याप्त है। राजनीति-मर्मज्ञ के लिए विज्ञान पर बहुत अधिक आग्रह से बचने के लिए वे राजनीतिशास्त्रियों के लिए इस शब्द का प्रयोग करना चाहेंगे- यह आवश्यक है कि वह व्यवहारवादी से कुछ अधिक हो। उनके लिए इतिहासकार, विधिवेत्ता और नीतिविद् होना भी आवश्यक है। मल्फोर्ड सिबली ने लिखा है, “राजनीति को समझने के लिए कलाकार की विशिष्ट अन्तर्दृष्टि का होना उतना ही आवश्यक है जितना वैज्ञानिक की सुनिश्चितता का – अंगों के विश्लेषण के अतिरिक्त सम्पूर्ण के साथ अंगों के अन्तःसम्बन्धों को जानना भी आवश्यक है।” व्यवहारवाद का प्रयोग, जैसा सिबली ने लिखा है, “अनिवार्यतः, मूल्य-सम्बन्धी नीतियों के सन्दर्भ में ही किया जा सकेगा, जिसका समर्थन केवल व्यवहरवादी तकनीकों के द्वारा सम्भव नहीं

राजनीति का अध्ययन, बिना पहले इस बात की व्याख्या किये कि राजनीति क्या है, और राजनीतिक वस्तुओं से उसे कैसे भिन्न किया जा सकता है, करने में, परम्परावादियों की दृष्टि से, प्रमुख खतरा यह है कि राजनीतिशास्त्री समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, मनोरोगशास्त्र आदि क्षेत्रों में विकसित की गयी संकल्पनाओं को स्वीकार करने के लिए तत्पर हो जाता है, बिना इस बात को समझे, हुए कि राजनीति का क्षेत्र समाज अथवा मानव मस्तिष्क के क्षेत्रों में किस प्रकार भिन्न है। सिबली के ही अनुसार, राजनीति के सम्बन्ध में अपनी स्पष्ट और आवश्यकता हो तो, मूल्य-युक्त संकल्पनाओं के लिए बिना आगे बढ़ने का परिणाम यह हुआ कि व्यवहारवाद के इस युग में राजनीतिविज्ञान की शोध का नेतृत्व समाजशास्त्र, मनोविज्ञान और मनोरोग-विद्वानों के हाथों में चला गया है। सत्य तो यह है कि राजनीति की व्यवहारात्मक ढंग से व्याख्या की ही नहीं जा सकती—उसे तो अन्तर्दृष्टि से ही देखा जा सकता। सिबली के शब्दों में, “व्यवहारवादी अध्ययनों को हम कितना ही मूल्यवान क्यों न माने—यहाँ हम वैज्ञानिक सिद्धान्त और सत्यापन की प्रक्रिया दोनों को ही ले सकते हैं—उन विचारों को, जिनसे हम वैज्ञानिक अनुसन्धान का आरम्भ करते हैं, और उन संकल्पनाओं का जो हमें उस दिशा में ले जाती हैं, आधार अन्ततः अन्तर्दृष्टि, जिसे लियो स्ट्रॉस ने प्राग्-वैज्ञानिक ज्ञान कहा है, और कलापरक अनुभव होना चाहिए। जैसा लियो स्ट्रॉस ने एक अन्य स्थल पर लिखा है, कुछ वस्तुएँ ऐसी हैं जिन्हें माइक्रोस्कोप अथवा टेलिस्कोप के माध्यम से ही देखा जा सकता है, परन्तु बहुत सी ऐसी वस्तुएँ होती हैं जिन्हें केवल आँखों के द्वारा देखना ही ठीक रहता है।

परम्परावादी अब हम यह मानने लगे हैं कि, व्यवहारवादी प्रविधियों की सहायता से, वैज्ञानिक अनुसंधान और वैज्ञानिक प्रागुक्ति के क्षेत्रों में बहुत सी उपलब्धियाँ सम्भव हैं। परन्तु वैज्ञानिक प्रागुक्ति का अर्थ यह नहीं है कि भविष्य में होने वाली सभी बातों के सम्बन्ध में हम निश्चित रूप से कुछ कह सकते हैं। नकारात्मक प्रागुक्तियाँ करना आसान है, जिसकी तुलना कार्ल पौपर ने छलनी में पानी ले जाने के सम्बन्ध में भविष्यवाणी करने से की थी। राजनीतिशास्त्री की प्रागुक्तियाँ कितनी भी वैज्ञानिक क्यों न हों, वे ‘यदि तो’ प्रस्थापनाओं से आगे नहीं जा सकती। यदि घटनाएँ एक निश्चित ढंग से होती हैं तो कुछ अन्य घटनाओं के सम्बन्ध में भविष्यवाणी की जा सकती है— जैसे घनघोर घटाओं के घिर जाने पर वर्षा होने के सम्बन्ध में, परन्तु निश्चय के साथ नहीं कहा जा सकता कि भविष्य में जो कुछ भी होगा वह उसी रूप में होगा जिसका अनुमान लगाया जा रहा है-घनी से घनी घटाएँ भी, बिना बरसे, बिखर सकती हैं, और साधारण मेघों के एकत्रित होने पर भी घनी वर्षा हो सकती है। दूसरे शब्दों में, वस्तुओं को समझने, उनकी व्याख्या करने और उनके सम्बन्ध में भविष्यवाणी करने के वैज्ञानिक उपकरण ही एकमात्र उपकरण, व्याख्याएँ अथवा प्रागुक्तियाँ नहीं हैं – बहुत-सी ऐसी बातें हैं जिन्हें समझना राजनीतिशास्त्री के लिए भी आवश्यक है, और जिनके सम्बन्ध में वयवहारवादी शोध, उसे कितना भी परिष्कृत क्यों न बना दिया जाए, हमें यह भी बता सकती हैं कि किन लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना हमारे लिए वांछनीय माना जा सकता है। आर्नाल्ड ब्रेख्त ने अपने प्रसिद्ध ‘वैज्ञानिक मूल्य सापेक्षवाद’ उपागम में यह स्पष्ट है कि (1) कोई वस्तु ‘मूल्यवान’ है अथवा नहीं, इस प्रश्न का वैज्ञानिक उत्तर केवल (अ) उस लक्ष्य अथवा उद्देश्य के सन्दर्भ में दिया जा सकता है जिसे प्राप्त करने की दृष्टि से वह उपयोगी (मूल्यवान) अथवा अनुपयोगी (मूल्यहीन) सिद्ध होती है, अथवा (ब) इस व्यक्ति, अथवा व्यक्तियों के समूह के सन्दर्भ में, जिसके लिए वह मूल्यवान है अथवा नहीं और इस कारण (2) वैज्ञानिक दृष्टि से यह स्थापित करना असम्भव है कि कौन से लक्ष्य अथवा उद्देश्य मूल्यवान हैं, जब तक हम यह न जान लें कि (अ) दूसरे लक्ष्यों अथवा उद्देश्यों को प्राप्त करने की दृष्टि से उनका मूल्य क्या है, अथवा (ब) अन्तिम लक्ष्यों अथवा उद्देश्यों के सम्बन्ध में उस व्यक्ति, अथवा समूह, के अपने विचार क्या हैं।

अन्त में यह कहा जा सकता है कि यह स्वीकार करते हुए भी व्यवहारवादी उपागम की अपनी उपयोगिता है, परम्परावादी मानते हैं कि यह उपयोगिता बहुत अधिक है। हम ‘वैज्ञानिक प्रविधि’ का प्रयोग, किसी और सभी समस्याओं में करने के लिए कितने ही आतुर क्यों न हों, मनोविज्ञानवेत्ता जोसेफ आर. रौयस के शब्दों में, “जीवन के विभिन्न खण्डों को एक साथ जोड़ देने का काम सदा ही एक अत्यन्त व्यक्तिपरक और व्यक्तिगत काम होगा… जिसका वैज्ञानिकीकरण यदि – तो नहीं किया जा सकता है।” इस विचार का समर्थन करते हुए सिबली लिखता है, “… व्यवहारवादी विज्ञान हमें राजनीतिक ‘यथार्थता’ के विराट विश्व से बहुत दूर, शुद्ध वैज्ञानिक परिकल्पनाओं की दिशा में, ले जाता है, और इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि जिस नये जगत् में प्रवेश करने का नियन्त्रण व्यवहारवादी वैज्ञानिक हमें देता है वह एक महत्त्वपूर्ण जगत् है।” परन्तु, सिबली आगे चलकर लिखता है, “राजनीति का अध्ययन यदि केवल इसी आधार पर नहीं करना है कि व्यक्ति का व्यवहार निर्दिष्ट परिस्थितियों में क्या हो सकता है परन्तु इस आधार पर भी कि वह आज क्या है, कल क्या था, भविष्य में क्या होगा और कैसा होना चाहिए….. तो हमारा काम केवल व्यवहारवाद से नहीं चलेगा, हमें राजनीतिक चिन्तन के इतिहास, नीति दर्शन, सांस्कृतिक इतिहास, शास्त्रीय परम्परा के परिकल्पना-शील राजनीति-दर्शन, राजनीतिक विवरण, और प्रत्यक्ष राजनीतिक अनुभव, सभी से सहायता लेनी होगी।”

परम्परावादी व्यवहारवादी उपागम की अपर्याप्तता की आलोचना नीति-निर्माण के उस दृष्टिकोण से भी करता है जिसमें उसके नैतिक, आनुभविक और विधि सम्बन्धी सभी पक्ष आ जाते हैं। नैतिक दृष्टि से, जिसमें मूल्यों की श्रेणी-बद्धता के सम्बन्ध में सतर्कता और उसका निरूपण आते हैं, वह कोई योगदान नहीं दे सकता। आनुभविक क्षेत्र में उसका कुछ उपयोग हो सकता है, परन्तु इस क्षेत्र में भी वह विभिन्न अंगों की प्रक्रियाओं अथवा उनके अन्तः सम्बन्धों को, समझ लेने की स्थिति से आगे बढ़कर सम्पूर्ण को समझने में, जिनमें ऐतिहासिक राजनीति का अध्ययन सम्मिलित हैं, समर्थ नहीं हो पाता। तीसरे, विधि-निर्माण के क्षेत्र में तो उसका उपयोग बिल्कुल ही नहीं हो पाता क्योंकि उसका समस्त आधार व्यावहारिक विज्ञान और दर्शन की नींव पर रखा जाता है। इन सब आपत्तियों के उत्तर में एक दलील यह दी जाती है कि इस प्रकार की समस्याओं को सुलझाना व्यवहारवादी विज्ञान के लिए आज, जब वह अपने विकास के प्राथमिक चरण में हैं, चाहे सम्भव न हो, परन्तु जब उसका पर्याप्त विकास हो जाए और वह वृहत्तर समस्याओं को समझने के लिए अधिक परिष्कृत उपकरणों का आविष्कार कर लेगा तब इन सभी समस्याओं को समझ लेना उसके लिए सरल हो जायेगा। इसके उत्तर में परम्परावादियों का कहना है कि व्याहारवादी विज्ञान की कमियों का कारण यह नहीं है कि उसका अभी पर्याप्त विकास नहीं हुआ है, ये कमियाँ तो प्राक्कल्पनात्मक ज्ञान की ‘यदि तो’ प्रकृति में ही अन्तर्निहित हैं। संक्षेप में, उसका कहना है, “राजनीति को समझने के लिए व्यवहारवाद से प्राप्त वक्तव्यों से कुछ अधिक की आवश्यकता है….

किसी वस्तु को समझने के लिए विज्ञान के अतिरिक्त अन्य साधन भी है।” यद्यपि इस कथन से परम्परावादियों का अर्थ यह नहीं है कि उनके अपने उपागमों में कुछ गम्भीर कमियाँ नहीं है। एल्फ्रेड कौबन के शब्दों में, “ व्यवहारवादी उपागम को अन्य सभी उपगामों से श्रेष्ठ ठहराने के प्रयत्नों, और केवल वैज्ञानिक प्रविधियों पर ही निर्भर रहने का परिणाम यह हुआ कि राजनीति विज्ञान आज एक ऐसी युक्ति बनकर रह गया है, जिसका आविष्कार विश्वविद्यालय के व्याख्याताओं ने राजनीति के खतरनाक विषय को अपने पाठ्यक्रमों से दूर रखने के लिए किया है, परन्तु उसे विज्ञान बनाने में असफल रहे हैं।”

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