B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

विकास के सिद्धांत | Principles of Development in Hindi

विकास के सिद्धांत
विकास के सिद्धांत

विकास के सिद्धान्त (Principles of Development)

विकास के सिद्धांत- बालक के विकास की प्रक्रिया उसके गर्भ में आने से ही आरम्भ हो जाती है और उस समय तक चलती रहती है जब तक वह प्रौढ़ता को प्राप्त नहीं हो जाता। मुनरो (Munore) ने लिखा है, ‘“विकास परिवर्तन-शृंखला की वह अवस्था है जिसमें बालक भ्रूणावस्था से प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है।” विकास के सिद्धान्त का क्या तात्पर्य है यह जानना आवश्यक है। गैरीसन और अन्य (Garrison and Others) का मत है, “जब बालक विकास की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है तब हम उसमें कुछ परिवर्तन देखते हैं। अध्ययन ने सिद्ध कर दिया है कि इनं परिवर्तनों में पर्याप्त निश्चित सिद्धान्तों का अनुसरण करने की प्रवृत्ति होती है। इन्हीं को विकास का सिद्धान्त कहा जाता है।” बाल विकास की प्रक्रिया किन्हीं निश्चित सिद्धान्तों से नियन्त्रित होती है।

(1) निश्चित दिशा का सिद्धान्त (Principle of Definite Direction)

विकास की निश्चित दिशा से हमारा अभिप्राय विकास की प्रकृति से है। विकास सामान्य से विशेष क्रम की ओर बढ़ता है। विकास के सभी विभागों में, चाहे वे क्रियात्मक हों अथवा मानसिक, आरम्भ में बालक की अनुक्रियायें सामान्य होती हैं, फिर वे विशेष की ओर अग्रसर होती हैं। गर्भावस्था एवं उसके उपरान्त दोनों प्रकार के विकासों में क्रियायें सामान्य से विशेष होती जाती हैं। उदाहरण के लिए बच्चा पहले हाथों को चलाना, फिर हाथों की सहायता से विशेष कार्यों को करना सीखता है। कहने का तात्पर्य यह है कि विकास की एक निश्चित दिशा है जो कि सामान्य से विशेष की ओर उन्मुख होती है।

(2) निरन्तर विकास का सिद्धान्त (Principle of Continuous Growth)

गर्भाधान के समय से लेकर परिपक्वता के समय तक विकास अबाध गति से चलता रहता है। विकास की प्रक्रिया निरन्तर चलती है। किसी समय इसकी गति तीव्र होती है और किसी समय मन्द, मानसिक व शारीरिक दोनों प्रकार के गुणों का विकास प्रौढ़ावस्था तक अपनी अधिकतम सीमा से निरन्तर हुआ करता है। चूँकि निरन्तर विकास होता रहता है, अतः एक अवस्था का प्रभाव दूसरी अवस्था पर पड़ता है।

(3) व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Individual Difference)

इस सिद्धान्त के अनुसार विकास वैयक्तिक गुणों और मानसिक गुणों के आधार पर होता है। प्रत्येक बालक के विकास का अपना निजी रूप होता है। एक ही आयु के प्रत्येक बालक और बालिका के शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक विकास में स्पष्ट रूप से भिन्नता दिखाई देती है।

(4) विकास-क्रम का सिद्धान्त (Principle of Development Sequence)

बालक का विकास एक निश्चित क्रम से होता है। बालक के गामक (Motor) अर्थात् गति और भाषा सम्बन्धी विकास में एक क्रम पाया जाता है। विभिन्न मनोवैज्ञानिक परीक्षणों से यह सिद्ध हुआ है कि जन्म के समय शिशु केवल रोता है, तीसरे माह में वह गले से एक विशेष प्रकार की आवाज निकालने लगता है। छठवें माह से वह खिल-खिलाकर हँसता है और सातवें माह में ‘माँ’, ‘पा’, ‘बा’, ‘दा’ आदि शब्दों को बोलने का प्रयास करता है। गति-विकास में सबसे पहले बालक बैठना सीखता है, उसके पश्चात् खड़ा होना और फिर चलना । इस प्रकार शारीरिक विकास में सबसे पहले वह शरीर पर नियन्त्रण प्राप्त करता है और तत्पश्चात् स्थान-स्थान पर वह ऊपर से नीचे के क्रम से अन्य अवयवों पर नियन्त्रण प्राप्त करता है। सबसे पहले उसके बाहर के दाँत आते हैं और उसके पश्चात् बगल वाले दाँत आते हैं। इसी तरह बालक की भाषा, सामाजिक और संवेगात्मक विकास का भी एक निश्चित क्रम होता है।

(5) सह-सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Co-relation) 

बालक के शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक विकास में सह-सम्बन्ध होता है। शारीरिक विकास के साथ ही उसकी रुचि, ध्यान और व्यवहार में परिवर्तन होता जाता है और इस तरह उसका गामक (Motor) और भाषा का विकास होता है। शारीरिक विकास, बौद्धिक विकास को प्रभावित करता है। गैरीसन और अन्य ने लिखा है, “शरीर-सम्बन्धी दृष्टिकोण व्यक्ति के विभिन्न अंगों के विकास में सामंजस्य और परस्पर सम्बन्ध पर बल देता है।”

(6) समान प्रतिमान का सिद्धान्त (Principle of Uniform Pattern)

इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक जाति अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है।

मानव-जाति के बालकों के विकास का प्रतिमान समस्त संसार में एक ही है और उसमें किसी प्रकार का अन्तर नहीं होता। बालक चाहे भारत में उत्पन्न हुआ हो, इंग्लैण्ड में, चाहे अमेरिका में अथवा रूस में उसका शारीरिक, मानसिक, भाषा, गति और संवेगात्मक विकास सामान्य रूप से होता है।

हरलॉक ने इस सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘प्रत्येक जाति चाहे पशु-जाति हो अथवा मानव-जाति अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है।”

(7) वंशानुक्रम एवं पर्यावरण में अन्तः क्रिया का सिद्धान्त (Principle of Interaction of Heredity and Environment)

बालक का विकास वंशानुक्रम एवं वातावरण में अन्तःक्रिया के फलस्वरूप होता है। स्किनर ने लिखा है, “वंशानुक्रम उन सीमाओं को निश्चित करता है, जिनके आगे बालक का विकास नहीं किया जा सकता है।” इसी प्रकार यह प्रमाणित किया जा चुका है कि जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में दूषित वातावरण, गम्भीर रोग जन्मजात योग्यताओं को कुंठित या कमजोर बना सकता है।

(8) सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धान्त (Principle of General to Specific Responses)

विकास के सभी पक्षों में बालक पहले सामान्य प्रतिक्रिया करता है और तत्पश्चात् विशिष्ट प्रतिक्रिया की ओर बढ़ता है। नवजात शिशु पहले अपने सम्पूर्ण शरीर का संचालन करता है और तत्पश्चात् किसी विशेष अंग का। किसी वस्तु को प्राप्त करने के हेतु पहले सामान्यतः वह केवल हाथ ही नहीं बढ़ाता बल्कि अन्य अंगों को भी हिलाता है, परन्तु शनैः शनैः उसे प्राप्त करने के लिए वह विशिष्ट रूप से हाथ बढ़ाता है। हरलॉक का मत है, “विकास की समस्त अवस्थाओं में बालक और प्रतिक्रियायें विशिष्ट बनने से पूर्व सामान्य प्रकार की होती हैं।”

विकास के सिद्धान्तों का शैक्षणिक महत्त्व (Educational Implication of the Principles of Development)

विकास के सिद्धान्तों की जानकारी शैक्षणिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह तीन कारणों से आवश्यक है। इनका उल्लेख यहाँ संक्षेप में किया जा रहा है-

(i) विकास के सिद्धान्तों से हमें यह जानकारी प्राप्त करने में सहायता मिलती है कि हम विकास के सम्बन्ध में किस आयु के बालक से किस तरह की अपेक्षा करें तथा कब करें? यदि हमें विकास के सिद्धान्तों की जानकारी नहीं होगी तो हमारी प्रवृत्ति बालक से एक विशेष अवस्था में, अधिक अथवा कम ही अपेक्षा करने की होगी। यदि बालक से आवश्यकता से अधिक अपेक्षा की जाती है तो उसमें ‘अपूर्णता की भावना’ (Felling of Inadequacy) आ जाती है और यदि आवश्यकता से कम की अपेक्षा की जाती है तो उसकी भावनाओं एवं कार्यों को प्रोत्साहन नहीं मिलता। इसका परिणाम यह होता है कि जिन कार्यों को करने की उसमें क्षमता होती है, वह उन्हें भी नहीं कर पाता।

(ii) विकास किस तरह होता है यह जानने से एक अन्य लाभ यह है कि बड़ों को यह ज्ञात हो जाता है कि बालक को वृद्धि और विकास के लिए कब अधिक और कब कम प्रयास करना चाहिए ? इस तरह की जानकारी बालक के विकास के हेतु उपयुक्त वातावरण | तैयार करने में सहायक होती है। उदाहरण के लिए जब शिशु बैठना आरम्भ करता है तो उसे बैठने के हेतु पूर्ण अवसर, उपयुक्त सामग्री और वातावरण प्रदान किया जाना चाहिए। उपयुक्त वातावरण के अभाव और उसकी ओर ध्यान देने के कारण वह देर से चलना प्रारम्भ करता है।

(iii) सामान्य विकास का क्या रूप होता है ? इसकी जानकारी प्राप्त करके माता-पिता, शिक्षक और अन्य बड़े व्यक्ति बालक को भविष्य में होने वाले परिवर्तनों हेतु तैयार कर सकते हैं।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि विकास के सिद्धान्तों का शिक्षा से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। फलस्वरूप अभिभावकों और शिक्षकों को विकास की दशाओं को ध्यान में रखते हुए शारीरिक और मानसिक विकास के हेतु उपयुक्त वातावरण एवं साधन प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए।

Important Links…

Disclaimer

Disclaimer:Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment