Biography

कबीरदास का जीवन परिचय | KabirDas Biography in Hindi

कबीरदास का जीवन परिचय
कबीरदास का जीवन परिचय

कबीरदास का जीवन परिचय (Kabir Das Biography In Hindi )- ‘साधारण स्थिति में हिंदू-मुसलमानों के मध्य का गतिरोध स्पष्ट नजर आता है, किंतु असाधारण स्थिति हो जाए तो दोनों का गतिरोध समाप्त हो जाता है।’ उक्त कथन को संत कबीर के परिप्रेक्ष्य में यदि देखा जाए तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि दोनों ही संप्रदाय कबीर को स्वयं का साबित करना चाहते थे। कबीर योग्य व्यक्ति थे और इनकी हिंदू अथवा मुसलमान की निश्चित पहचान नहीं थी। यही कारण था कि हिंदू इन्हें हिंदू साबित करते थे और मुसलमान इनके मुस्लिम होने का दावा किया करते थे।

कबीरदास का जीवन परिचय (Kabir Das Biography In Hindi )

पूरा नाम कबीरदास
उपनाम कबिरा, कबीर
जन्म-तिथि सन 1398
जन्म-स्थान वाराणसी, उत्तर प्रदेश
पिता का नाम नीरू
माता का नाम नीमा
प्रसिद्धि कवि, संत, दार्शनिक
मृत्यु सन 1518
मृत्यु-स्थान मगहर, उत्तर प्रदेश
रचनाएँ साखी, सबद, रमैनी

यह तो ऐतिहासिक रूप से भी सिद्धप्राय है कि विख्यात संत कबीर के जन्म के बारे में विद्वान इतिहासकार भी सहमत नहीं रहे। कुछ विद्वान इनका जन्म 1398 के आसपास मानते हैं। मान्यता रही है कि ये एक विधवा ब्राह्मणी की संतति थे, जिन्हें वह लोकलाज के भय से वाराणसी के पास लहरताला तालाब के तट पर त्याग गई थी। वहां से शिशु को नीरू नाम के जुलाहे व उसकी पत्नी नीमा ने उठाकर अपने घर में आश्रय देकर इनकी परवरिश की थी, लेकिन कुछ अन्य विद्वानों को यह स्वीकार नहीं। उनका मत सर्वथा भिन्न है। उनका मानना है कि कबीर का जन्म 1500 के इर्द-गिर्द ऐसी जुलाहा जाति में हुआ था, जो कुछ ही पीढ़ी पूर्व हिंदू से मुसलमान हुई थी, किंतु जिसके भीतर तब भी कई हिंदू संस्कार श्वासित थे। इसी तरह कबीर की शादी के बारे में भी दो राय है, कबीरपंथी इन्हें आजीवन ब्रह्मचारी कहते हैं, लेकिन इनके पदों में उल्लिखित नामों के आधार पर कुछ लोग इन्हें लोई नामक स्त्री का पति व कमाल नामक पुत्र व कमाबी नामक पुत्री का पिता भी घोषित करते रहे हैं।

कबीर काशी के विख्यात संत रामानंद के शिष्य थे। राजनैतिक रूप से इनका जीवन का समय अस्थिर काल था। लोदी वंश की धर्मांधता अपने चरमोत्कर्ष पर थी। ऐसे में कबीर ने सभी बाहरी आडंबरों को त्याग करके मानव समुदाय को प्रेम की धरा को अपनाने की शिक्षा प्रदान की थी। इनके विचारों पर हिंदू संतों व मुस्लिम सूफियों दोनों का ही असर रहा था। ये हिंदू-मुस्लिम में कोई फर्क नहीं देखते थे। दोनों को एक ही मिट्टी के जाए कहते थे। इनकी मान्यता थी कि राम और रहीम एक हैं। इनकी आस्था न मंदिर में थी, न ही मस्जिद में। जुलाहे का कार्य करते हुए ही इन्होंने लोगों को मानवीय बनाने का प्रयास किया। कबीर अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन परमज्ञान के ज्ञाता थे। अपनी बातें इन्होंने बेहद सरल भाषा में कहीं। मान्यता यह भी है कि इनके भक्त इनके संबोधनों को लिख लिया करते थे। इनकी ‘साखियों’ और ‘सब्दों’ का व्यापक साहित्य रहा है। उनमें कबीर के अद्वैत मत की अनुगूंज स्पष्ट झलकती है।

जन्म की तरह कबीर की मृत्यु के बारे में भी संसार में एक जनश्रुति प्रचलित रही है। उस दौरान यह यकीन किया जाता था कि काशी में देह त्यागने से स्वर्ग और मगहर में मरने से नरक मिलता है। इस यकीन को झूठा साबित करने के लिए कबीर निधन के समय मगहर चले गए थे। इनकी मौत के पश्चात् शव को लेकर जब हिंदू व मुसलमानों में विवाद गहराया तो लोगों ने पाया कि मृत देह के स्थान पर कुछ पुष्प ही शेष रह गए हैं। जहां कबीर की मृत्यु हुई थी, वहां एक चारदीवारी के भीतर मंदिर और मस्जिद दोनों ही बने हैं। कबीर का निधन 1518 में हुआ माना जाता है।

संत कबीर का जीवन यह स्पष्ट दर्शाता है कि धर्म या संप्रदाय स्वयं कुछ नहीं कहता, लेकिन उसके ठेकेदार अवश्य ही उन वस्तुओं व व्यक्तियों पर अपना दावा करते हैं, जो किसी भी रूप में मूल्यवान हो। लाखों गरीब जिनमें कोई खूबी नहीं होती और जब वे लावारिस मरते हैं तो धर्म व संप्रदाय के यही ठेकेदार मृतक को दूसरे धर्म का बताते हैं। कबीर ने इस सच्चाई को अपने जीवन में बहुत पहले ही समझ लिया था।

प्रमुख रचनाएं – साखी, सबद और रमैनी।

भाव पक्ष –

प्रेम भावना और भक्ति – कबीर ने ज्ञान को महत्व दिया है। उनकी कविता में स्थान – स्थान पर प्रेम और भक्ति की उत्कृष्ट भावना परिलक्षित है।

कला पक्ष –

भाषा – कबीर दास की भाषा अपरिष्कृत है। इसमें पंजाबी, राजस्थानी, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं के शब्दों का विकृत रूप से प्रयोग किया है। उनकी भाषा को पांच मेल, खिचड़ी या सधुक्कड़ी भी कहा जाता है।

शैली – इन्होंने अपनी रचना में सरल, सहज व सरस शैली में उपदेश दिए हैं।

छंद – इन्होंने अपनी रचनाओं में दोहा व चौपाई छंद को विशेष रूप से अपनाया है।

साहित्य में स्थान

साहित्य में स्थान – कबीर दास एक उच्च कोटि के साधन के उपासक और ज्ञान के अन्वेषक है। इनका समस्त साहित्य एक जीवन मुक्त संत के गुढ एवं एक गंभीर अनुभवों का भंडार है। यह समाज सुधारक एवं युग निर्माता के रूप में सदैव याद किए जाएंगे।

कबीर के दोहे ( Kabir Ke Dohe Quotes )

कबीरदास के दोहे सुनने में और मन ही मन गुनगुनाने में बड़ा अच्छा लगता है। कबीर के कुछ दोहे अर्थ सहित नीचे दिये गए हैं –
 
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागौं पाय,
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।  
 
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि एक बार गुरु और ईश्वर एक साथ खड़े थे तभी शिष्य को समझ में नहीं आ रहा था कि पहले किसके पाऊं छुए, इस पर ईश्वर ने कहा कि तुम्हें सबसे पहले अपने गुरु के पाव छूने चाहिए।
 
दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करें न कोय ,
जो सुख में सुमिरन करें, तो दुख काहे को होय। 
 
अर्थ- कबीरदास कहते हैं कि लोग जब दुखी होते हैं तो ईश्वर को याद करते हैं जबकि सुख में लोग ईश्वर को याद नहीं करते। अगर लोग सुख में भी ईश्वर को याद करें उनकी आराधना करें तो उन्हें दुःख आ ही नहीं सकता।
 
 
कबीरा खड़ा बाजार में, सबकी मांगे खैर,
ना काहू से दोसती, ना काहू से बैर। 
 
अर्थ – कबीर जी ने  कहा कि जब उन्होंने इस संसार में जन्म लिया तो उनके मन में यहां के लोगों के लिए यही भावना थी कि सभी लोग अपना जीवन अच्छे से व्यतीत करें और किसी के भी मन में एक दूसरे के प्रति बैर भाव ना हो।
 
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।
 
अर्थ  कबीरदास जी कहते हैं कि हमारा यह शरीर जहर की गठरी के समान है और हमारे गुरु अमृत की तरह है तो अगर आपको अपना शीश भी देना पड़े ऐसे गुरू के लिए तो वह सौदा भी बहुत सस्ता होता है।
 
ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये ।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।
 
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य को ऐसी वाणी बोलनी चाहिए जैसे दूसरों को शीतलता मिले और साथ ही साथ स्वयं का मन भी शीतल हो जाए अर्थात हमेशा अच्छी वाणी ही बोलनी चाहिए।
 
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
 
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की बोली बहुत ही ज्यादा अमूल्य है इसे बोलने से पहले हमें अपने हृदय रूपी तराजू में इसे तोलना चाहिए उसके बाद ही यह हमारे मुंह से बाहर आनी चाहिए।
 
साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए ।
 
अर्थ – कबीरदस जी ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर! मुझे केवल उतना ही दीजिए जिसमें मैं और मेरा परिवार भूखा ना रहे और दरवाजे पर से कोई वापस न लौटें।
 
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।
 
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जब मेरे अंदर अहम था तब मुझे ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई लेकिन जब मुझे हरी मिल गए तो मेरे अंदर से सारा निकल गया या बिल्कुल उसी तरह निकल गया जैसे दीपक जलाने पर सारा अंधियारा मिट जाता है।
 
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय ।
 
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जब मैं इस संसार में बुरा खोजने चला तो मुझे कोई भी बुरा आदमी नहीं मिला, जब मैंने अपने ही मन में झांक कर देखा तो मुझे पता चला कि संसार में मुझसे बुरा इंसान कोई नहीं है।
 
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय
 
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि हमें कभी अपने जीवन में एक तिनके की भी निंदा नहीं करनी चाहिए क्योंकि जो तिनका हमारे पांव के नीचे होता है वही जब आंख में पड़ जाता है तो हमें कष्ट देता है।
 
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
 
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जो लोग इस संसार में जन्म लेते हैं पढ़ते हैं और मर जाते हैं लेकिन कोई भी पंडित नहीं हो पाता जो व्यक्ति प्रेम के ढाई अक्षर को समझ लेता है वह सबसे बड़ा विद्वान होता है।
 
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
 
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में हर एक काम धीरे-धीरे होता है जिस तरह माली अपने फूलों को 100 घड़े भी  सींच ले लेकिन जब ऋतु आती है तभी उस में फल लगते हैं।
 
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
 
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि हमें कभी भी साधु की  शरीर नहीं देखनी चाहिए बल्कि हमें उनसे ज्ञान की बातें सीखनी चाहिए जिस प्रकार से तलवार की दुकान पर मूल्य केवल तलवार का होता है ना कि उसकी म्यान का जिसमें वह रखा गया है।
 
निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें ।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए ।
 
अर्थ – 
 
बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर ।
 पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ।
 
अर्थ – कबीर कहते हैं कि इतना बड़ा होने से क्या होगा अगर आप किसी की सहायता न कर पाए जिस प्रकार खजूर का पेड़ इतना बड़ा होता है लेकिन वह किसी भी पक्षी को ना तो छाया दे पाता है और उसमें फल भी बहुत दूर लगते हैं।
 
 
कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये,
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये
 
अर्थ – कबीर कहते हैं कि जब हम पैदा हुए थे तो सारा संसार हंसा था और हम रोए थे लेकिन हमें इस संसार में ऐसा काम करके जाना है कि जब हमारी मृत्यु तो हम हंसे और यह पूरा संसार हमारी मृत्यु पर आँसू बहाये ।
 
मांगन मरण समान है, मत मांगो कोई भीख,
मांगन से मरना भला, ये सतगुरु की सीख
 
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि मांगना और मरना एक समान है इसलिए भीख मत मांगो उनके गुरु कह गए हैं कि भीख मांगने से अच्छा मरना है।
 
लुट सके तो लुट ले, हरी नाम की लुट ।
अंत समय पछतायेगा, जब प्राण जायेगे छुट ।
 
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि अभी समय है अभी से ही ईश्वर की भक्ति करना प्रारंभ कर दो क्योंकि जब अंत समय आएगा और प्राण छूटने लगेंगे तब पछताने से कुछ भी नहीं होगा।
 
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ।
 
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं इस संसार में जन्म लेने के बाद मनुष्य रात में सो कर और दिन में खा कर अपने अमूल्य समय को बर्बाद कर देता है और इस हीरे रूपी जन्म को कौड़ी में बदल देता है।
 
कुटिल वचन सबसे बुरा, जा से होत न चार ।
साधू वचन जल रूप है, बरसे अमृत धार ।
 
अर्थ – 
 
तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार ।
सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ।
 
अर्थ – कबीर का कहना है कि तीरथ जाने से हमें एक फल मिलता है वहीं अगर संत मिल जाए तो हमें चार फल मिलते हैं लेकिन अगर हमारे जीवन में एक अच्छे गुरु मिल जाए तो हमें अनेकों फल मिलते हैं।
 
जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप ।
जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप ।
 
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जहां पर दया होती है वहां धर्म होता है जहां पर लालच होती है वहां पाप होता है और जहां पर क्रोध होता है वहां पर मृत होती है लेकिन जहां पर क्षमा होती है वहां पर स्वयं ईश्वर निवास करते हैं
 
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगो कब ।
 
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं जो काम कल करना चाहिए वह आज करो और जो आज करना है वह भी करो क्योंकि समय कब गुजर जाएगा हमें पता नहीं चलेगा और हम पछताते रह जाएंगे।
 
माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।
 
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि मिट्टी कुंभार से कहती है कि तू मुझे क्या  एक दिन ऐसा आएगा जब मैं खुद तुम्हें मिट्टी में मिला दूंगी।
 
धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर।
अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर।
 
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि धर्म का कार्य करने से कभी धन नहीं घटता है ना तो नदी को देखने से उसका पानी कम होता है कबीर जी कहते हैं कि यह उन्होंने अपनी आंखों से देखा है।
 
माला फेरत जग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
 
अर्थ – 
 
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
 
अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि ना तो ज्यादा बोलना ही अच्छा है और ना ही ज्यादा चुप रहना अच्छा है उसी तरह ना तो ज्यादा बरसना ही अच्छा है और ना तो बहुत ज्यादा धूप ही अच्छी है।

इसे भी पढ़ें…

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguider.in does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment