The Road to Happiness Summary in Hindi by Bertrand Russell
The Road to Happiness Summary in Hindi – पिछले दो हजार वर्षों से अधिक के कालसे सुखान्वेषण की प्रवृत्ति को एक पतनोमुखी तथा अयोग्य विचार के रूप में हमें समझा जा रहा है। स्तोइक दार्शनिकों ने विशेषकर इसकी निन्दा की है। अपेक्षाकृत अधिक आधुनिक काल में जर्मन विचारकों ने कष्टप्रद सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जिससे उन्हें ही नहीं, शेष विश्व को भी दुख की उपलब्धि हुई तथा इस जर्मन विचारधारा का अनुगमन करने वाले कारलाइल प्रभुति विचारकों ने अपने समय के क्रामबेल, फ्रेडरिक महान गोबर आयर सरीखे नेताओं का समर्थन किया तथा उनके कुख्यात कार्यों का अनुमोदन किया।
सुख का द्वेष- इसका धर्म वास्तव में दूसरे लोगों को सुख का द्वेष हो जाता है तथा प्रछन्न रूप में शानदार लगने वाले वाला यह भाव मानव जाति के प्रति द्वेष के रूप में प्रतीत होता है। किसी महान उद्देश्य के लिए त्याग करते हुए प्रतीत होने वाले सन्त या साम्यवादी नेता जैसे लोग वास्तव में दूसरों के सुख से ईर्ष्या करते हैं तथा उनके प्रति क्रूरता धारण करते हुए विध्वेस का कार्य करते हैं।
सिद्धान्तों के निर्माण के पहले व्यक्ति चाहिए कि वह मनुष्य की उन स्वाभाविक प्रवृत्तियों का विचार कर ले जिनका दमन अन्ततः जीवन में कटुता उत्पन्न करता है तथा इस प्रकार की दमित इच्छाएं ( वासनाएं) मनुष्य को नशाखोरी या ऐसी कोई अन्य आरंभ में सुखद प्रतीत होने वाली क्रिया का अभ्यस्त बना देती है जो अनन्त सुखदायी होने के स्थान पर दुखदायी हो जाती है।
नीति शास्त्री बहुधा यह तर्क देते हैं कि सुख अपने अन्वेषक से दूर भाग जाया करते हैं परंतु यह बात तभी सच होती हैं जब आप गलत प्रकार से सुख की खोज करते हैं और परिणाम का विचार नहीं करते जैसा की चूत क्रीड़ा या मदिरापान से सुख चाहने वालो के साथ घटित होता है। अधिकाँश लोगों के लिए अत्यदिक अमूर्त और सिद्धाती हुए बिना सुख की खोज किया जाना उचित होगा।
विकसित समाजों में अक्सर यह देखा जाता है कि किसी श्रेष्ठ जीवन -उद्देश्य के लिए जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं का तिरस्कार अथवा मूल प्रवृत्तियों का दमन करने की प्रवृत्ति ऐसे सुविधा सम्पन्न तथा स्वस्थ्य लोगों को जीवन में आनन्द का हरण करने वाली हो जाती है।
सुखी रहने के लिए व्यक्ति को इस प्रकार क्रियाशील रहना चाहिए कि वह क्रिया ही स्वयं आनन्दप्रद बन जाय और उससे किसी ऐसी चीज का निर्माण हो जो अपने अस्तित्व में आते निर्माता को सुख देने लगे। बागवानी जैसी आनन्द प्रद क्रियायें (हॉबी) जिनमें उपलब्धि की सहजता होती हैं, स्वयं में लक्ष्य हो सकती है। आधुनिक नगरवासी जन अपने काम में ही इतने थकजाते हैं कि इस प्रकार की क्रियाओं में संलग्न नहीं हो पाते और अपनी ऊर्जा को खेलों में लगाकर बाहरस निकलते हैं।
अपनी “प्रतिष्ठा” बढ़ाने के सामाजिक मानक का पालन करते हुए तथा ‘लोग क्या कहेंगे’ के भय से एवं हमेशा “उचित” आचरण का पालन करने के विचार से ही व्यवहार करते रहना सहज स्वाभाविक नहीं होता। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि अभिभावक गण अपने बच्चों को इसी प्रकार का “सही” तरीका अपनाने का प्रशिक्षण देते रहते हैं जिससे उनकी सहजता नष्ट हो जाती है और वे कठपुतली जैसे धीर गंभीर बन जाते हैं।
केवल ऐसी सामाजिक सफलता जिसमें मित्र न हों, हॉबी या रुचि के कार्य न हों, पर्याप्त नहीं है क्योंकि निश्चित सिद्धान्त के अनुरूप ही जीने मात्र से सुख नहीं मिलता – केवल सिद्धान्तों वाला जीवन नीरस हो जाता है। कोई ऐसा जीवन का ढाँचा जिसमें इच्छाओं का प्रकटीकरण भी हो तथा मनोरंजन की गुंजाइश भी हो, एक स्वस्थ और सम्पन्न नर-नारी के लिए सुख का स्रोत हो सकता है।
जीवन में किसी सिद्धान्तों का होना या धर्म की उपस्थिति केवल इतने से ही किसी का जीवन सुखी नहीं बनता। सुख के लिए यह भी आवश्यक है कि सुव्यवस्थित परिवार हो, सन्तोषप्रद पेशा हो, सही प्रकार का भोजन मिलता हो, तथा व्यायाम आदि भी होता हो। इसे रचनात्मक विचार मात्र न माना जाय, परंतु सुख के लिए मनुष्य की मूलभूत जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति भी होनी चाहिए क्योंकि मनुष्य मूलतः एक ‘जीव’ है।
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